Friday 29 July 2016

बवाल के भंवर में इसलिए फंसा है कश्मीर (मेजर जनरल (रिटायर्ड) एसके राजदान )

आतंकी बुरहान वानी के सुरक्षा बलों के हाथों मारे जाने के बाद कश्मीर घाटी में हिंसा का दौर जारी है। मीडिया के कुछ लोगों द्वारा उसे शहीदे आजम का दर्जा देना, प्रचार के भूखे मानवाधिकार कार्यकर्ताओं द्वारा बुक्का फाड़कर रोना, पाकिस्तानी, तालिबानी, आईएस के झंडे तले युवाओं द्वारा पत्थरबाजी किसी भी आम भारतीय या विदेश पर्यटक को सोचने पर मजबूर कर देते हैं कि कश्मीर में चल क्या रहा है? इसके कारणों की तलाश में कश्मीर के इतिहास में जाना होगा।
किसी भी कश्मीरी से पूछों कि वह कौन है तो कहेगा, 'काशिर।' यानी एेसी भूमि जो जल से उत्पन्न हुई। प्राचीन ग्रंथों में इसे माता पार्वती का जन्मस्थान माना गया है। यहां रागिना देवी के रूप में पार्वती के कई मंदिर आज भी मौजूद हैं। यहां सनातम धर्म के अंतर्गत अद्वैतवाद, शाक्त और शैव मान्यताओं का विकास हुआ। बाद में बौद्ध धर्म आया और सनातन धर्म के साथ मिलकर उसका नया रूप मुखरित हुआ, जो तिब्बत के रास्ते चीन, कोरिया अफगानिस्तान तक फैला। यहां के मूल निवासी पंडितों के रूप में जाने गए। वासुदेव गुप्त और अभिनव गुप्त जैसे प्रकांड विद्वान विश्व-विख्यात हुए। 'त्रिखा शैव' तथा 'तंत्रलोक' जैसे बहुमूल्य ग्रंथ लिखे गए।
अरबी लोककथा है कि एक ऊंट रेतीले तूफान के दौरान खुद को बचाने के लिए मालिक के टेंट में घूस आया और फिर धीरे-धीरे उसने मालिक को ही निकाल बाहर किया। ठीक ऐसा ही कुछ कश्मीर में हुआ। आठवीं सदी में कश्मीर में इस्लाम के अनुयायियों का आगमन हुआ। कश्मीरी पंडितों ने खुद को ज्ञान की खोज तक ही सीमित रखा और अपनी सुरक्षा या हितों की रक्षा की ओर ध्यान नहीं दिया। इसी कमजोरी के कारण कश्मीरी पंडितों को कई आक्रमण झेलकर सात बार पलायन करना पड़ा। सातवें पलायन का बीज पाकिस्तानी मार्शल लॉ प्रशासक जनरल जिया उल हक ने अप्रैल 1988 को इस्लामाबाद में बोया। इसके तहत तीन युद्धों में पिटी हुई तथा 90 हजार युद्धबंदियों की रिहाई की भीख मांगने वाली पाकिस्तानी सेना ने 'ऑपरेशन टोपाज' की साजिश रची। नतीजा यह हुआ कि दो लाख हिंदुओं और सूफी विचारधारा के मुस्लिमों को घाटी छोड़ना पड़ी। अपने ही देश में शरणार्थी बने कश्मीरियों तकलीफों पर मानवाधिकार समर्थकों की कभी नज़र नहीं पड़ी ग्लैमर की दुनिया ने किसी फिल्म में उनकी व्यथा बयान की। इसके कारण कश्मीर समस्या उलझती चली गई। किसी आमजन के लिए यह समझना मुश्किल हो गया कि कश्मीरी कौन है? क्या इसमें हिंदू, बौद्ध, सिख, ईसाई तथा अन्य धर्मों के लोग शामिल है या सिर्फ इस्लामी कट्टरपंथी ही कश्मीरी हैं?
इसे समझने के लिए 'टोपाज' को समझना होगा। इसके तीन चरण हैं। एक, प्रशिक्षित व्यक्तियों, जिनमें बुद्धिजीवी शामिल हैं, राजतंत्र, नौकरशाही पुलिस में घुसपैठ कराना। जो उचित वक्त पर केंद्र से टकराव पैदाकर सुरक्षा बलों पर कार्रवाई करे। कानूनों में फेरबदल करें। दो, अर्द्धसैनिक बल सेना में घुसपैठ कर विद्रोह की स्थिति पैदा करना, मानवाधिकार आदि का आरोप लगाकर दीर्घकालीन मुठभेड़ की स्थिति पैदा करना। तीन, स्थानीय आतंकियों की फौज खड़ी करना, पुलिस थानों से हथियार गोला-बारूद लूटना और सेना से मुठभेड़ कर स्वतंत्र क्षेत्रों की स्थापना करना। इनके साथ अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत विरोधी अभियान चलाकर वैश्विक राय को भारत के विरुद्ध खड़ा करना और कश्मीर में संयुक्त राष्ट्र शांति सेना की तैनाती कराना। तीनों चरण एक साथ चलाए जाने थे।
गलती यह हुई कि वे भारतीय सेना, सुरक्षा बलों, केंद्र सरकार और खुफिया तंत्र का सही आकलन नहीं कर पाए। हमें साजिश का पता चल गया। तत्काल अग्रिम क्षेत्रों में तार की बाड़, वहां सेना की तैनाती, जम्मू-कश्मीर पुलिस को बेहतर प्रशिक्षण और हथियार, स्थानीय लोगों का दिल जीतने के लिए सेना की 'सद्‌भावना' मुहिम जैसे कदम उठाए गए अंतरराष्ट्रीय मंचों पर पाकिस्तान को आतंकी देश के रूप में पेश किया गया। बलूचिस्तान, सिंध, पाक-अधिकृत कश्मीर यहां तक कि पख्तुनिस्तान में पाक सेना के अत्याचारों का विश्व मंच पर पर्दाफाश किया गया। केंद्र द्वारा शुरू की गई राजनीतिक प्रक्रिया से कश्मीर विकास के मार्ग पर लौटने लगा। 'अवाम आर्मी' जैसी योजनाएं फलीभूत हुई। कश्मीरी आएएस अन्य अखिल भारतीय सेवाओं में शामिल हो कर अपनी बुद्धिमत्ता का लोहा मनवाने लगे। पर्यटन फलने-फूलने लगा। लश्करे तय्यबा और हिजबुल के सरगना मारे गए।
दुर्भाग्यवश इसके कारण राज्य केंद्र सरकारें उदासीन हो गईं अौर पाक सेना टोपाज के नए संस्करण में लग गई। इसमें स्थानीय आतंकियों का इस्तेमाल, अाईएस की विचारधारा का प्रचार, नए धर्मस्थलों का निर्माण, स्थानीय लोगों की बच्चों के प्रति संवेदनशीलता को भुनाना, गैर-इस्लामी धर्म यात्राओं को कम करना, सोशल मीडिया के जरिये पढ़े-लिखे कश्मीरी युवाओं को आईएस की विचारधारा से जोड़ना शामिल था। हवाला के जरिये फंडिंग की गई। नशीले पदार्थों की तस्करी और वन संपदा की बिक्री से भी पैसा जुटाया गया। इनके कारण विकास की रफ्तार सुस्त पड़ गई। साजिश पर अमल 2012 से शुरू हुआ। वानी जैसे आतंकियों के मारे जाने की और घटनाओं की आशंका है। आगे जाकर सुरक्षा बलों पर पत्थरों की बजाय स्वचालित हथियारों से हमले हो सकते हैं।
ऐसा नहीं है कि सरकार सुरक्षा बल इससे अनभिज्ञ हैं। विदेश नीति में अथक प्रयास से विश्व में भारत की स्थिति कई गुना बेहतर है। जम्मू-कश्मीर पुलिस ने अनुकरणीय साहस कार्यकुशलता का परिचय दिया है। हमेशा की तरह सेना ने साहस के साथ संयम का परिचय दिया है। उसके बलिदान की तुलना नहीं हो सकती। कश्मीर में विकास और रोजगार बढ़ाना होगा। घोर दारिद्रता पीड़ा भुगत रहे कश्मीरी पंडितों अन्य धर्मों के विस्थापितों को वापस लाना होगा। फिल्मकारों मीडिया को देशहित ध्यान में रखकर काम करना अत्यंत आवश्यक है। ध्यान रहे आतंकी केवल आतंकी होता है। उसका कोई मजहब नहीं होता। हिंसा का यह उफान कश्मीर की सूफी विचारधारा उतार देगी। हमें इसमें पूरा योगदान देकर यह सुनिश्चित करना होगा कि टेंट में खड़ा हो रहा ऊंट, टेंट से बाहर निकल जाए। (येलेखक के अपने विचार हैं।) (DB)

No comments:

Post a Comment