Friday 29 July 2016

कुपोषण और क्रेच की पहल (अलका आर्य)

महिला और बाल विकास मंत्रलय राष्ट्रीय क्रेच नीति तैयार कर रहा है, जो सरकारी, निजी और असंगठित क्षेत्रों पर लागू होगी। संसद के चालू सत्र में केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने एक सवाल के जवाब में यह जानकारी दी। नेशनल प्रोग्राम फॉर क्रेच एंड डे केयर फैसिलिटीज फॉर चिल्ड्रेन की दिशा-निर्देश को अंतिम रूप देने के लिए महिला और बाल विकास मंत्रलय के सचिव के तहत एक वर्किग ग्रुप का गठन किया गया है। हमारे मुल्क को ऐसी राष्ट्रीय नीति की दरकार है। छोटे बचों के स्वास्थ्य के लिए क्रेच जरूरी है तो इसका एक पहलू मुल्क की जीडीपी से भी जुड़ता है। कामकाजी महिलाओं या मांओं को बचों के लिए यह सुविधा जितनी अधिक मिलेगी, उसका लाभ देश की अर्थव्यवस्था को होगा। ऐसा नहीं है कि भारत में क्रेच व्यवस्था को लेकर कोई दिशा-निर्देश नहीं हैं। सभी कार्य स्थलों पर जहां महिलाओं की संख्या तीस या इससे अधिक है, वहां नियोक्ता अथवा संस्थान के प्रबंधन पर कार्यस्थल के दायरे में क्रेच का प्रावधान करने की जिम्मेदारी है, लेकिन हकीकत में इस पर अमल बहुत ही कम होता है।
देश की सवरेच अदालत में भी एक साल पहले तक क्रेच नहीं था। बीते साल सवरेच अदालत ने इस बाबत आदेश जारी किए। असंगठित क्षेत्र जहां महिला कर्मचारियों की बहुत बड़ी तादाद काम करती है, वहां हालात बदतर हैं। अब सवाल यह है कि सरकार जिस नीति का मसौदा तैयार कर रही है, वह मौजूदा समस्याओं को कितना निदान करने वाली होगी और सरकार उसके अमल को कैसे सुनिश्चित करेगी। क्रेच की अवधारणा को अगर हम शहरी मध्य और अमीर वर्ग की जरूरत के रूप में देखेंगे तो यह तर्कसंगत नहीं होगा। क्रेच की जरूरत कुपोषित बचों को भी अधिक होती है। क्रेच की आवश्यकता क्यों, इस विमर्श का वे एक अहम हिस्सा हैं। कुपोषण स्वास्थ्य संबंधित बड़ी समस्याओं में से एक है। ग्रामीण छत्तीसगढ़ में अल्प पोषण शायद सबसे व्यापक समस्या है। अल्प पोषण का चक्र अक्सर छोटेपन में ही शुरू हो जाता है और जिसके परिणाम पीढ़ियों तक रह सकते हैं।
प्रारंभिक बाल्यावस्था का कुपोषण खराब स्वास्थ्य व ज्ञान संबंधी विकास की मुख्य वजह बनता है, जो कि एक इंसान की भावी कमाने की क्षमता पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है और गरीबी व कुपोषण के चक्र को स्थायी बना देता है। वैसे ही कुपोषण बीमार होने के मौकों को बढ़ाने में मुख्य भूमिका निभाता है और कई बार मौत का कारण भी बनता है। छोटे बचों पर इसके प्रभाव खासतौर पर गंभीर होते हैं जैसा कि साक्ष्य दिखाते हैं कि पांच साल से कम आयु वाले बचों में से 50 प्रतिशत से अधिक की मौत का मूलभूत कारण यही है। जिंदगी के प्रारंभिक स्तरों पर (आयु दो या तीन) जब सबसे यादा मानसिक विकास होता है, कुपोषण स्कूल में बचों की सीखने की क्षमता को प्रभावित कर सकता है। छत्तीसगढ़ में बचों में अल्प पोषण की समस्या को खत्म करने के लिए जन स्वास्थ्य सहयोग ने फुलवाड़ी नामक कार्यक्रम शुरू किया है, जिसका उद्देश्य राय के 54 गांवों में रहने वाले छह माह से लेकर तीन साल की आयु तक के सभी बचों को क्रेच की सुविधा मुहैया कराना है।
इन क्रेच में बचों को तीन बार खाना दिया जाता है, जो कि बचे की रोजाना की कैलोरी व प्रोटीन की जरूरत की दो तिहाई पूर्ति कर देता है। कई सालों के फील्डवर्क और रिसर्च से यह बात सामने आई है कि छोटे बचों को पर्याप्त कंपलीमेंट्री भोजन नहीं मिलना कुपोषण में मुख्य भूमिका निभाता है। रिसर्च से इस समस्या को खत्म करने के लिए कई कारणों की पहचान कर ली गई है। कुछ निष्कर्ष कंपलीमेंट्री भोजन को शुरू करने में देरी की ओर इशारा करते हैं जहां बचों को दिए जाने वाले भोजन की मात्र कम होती है। इसके अलावा देखभाल की भूमिका निभाने वाले का नहीं होना, खासतौर पर जब दोनों अभिभावक दिन के दौरान काम पर बाहर जाते हों, खराब पोषण के कारण बार-बार बीमार पड़ना और अभिभावक की क्रय शाक्ति का खराब होना भी बाों में कुपोषण के कारण हैं।
न्यूटिशनल रिहैबिलाइजेशन सेंटर्स (एनआरसीएस) इसमें सफल नहीं हुई है, क्योंकि यह केवल गंभीर व घोर कुपोषित बचों के लिए है। ये केंद्र कुपोषित बचों का पोषण का स्तर तो सुधार देते हैं, पर उसका प्रभाव बचे के घर वापस जाने के बाद कम हो जाता है। इसके अतिरिक्त ये केंद्र उन बचों को सेवाएं मुहैया नहीं कराते, जिनका कुपोषण स्तर यादा कम नहीं है या मध्यम है। देश के कुपोषित बचों का आबादी में इनकी तादाद बहुत यादा है। समेकित बाल विकास सेवा (आइसीडीएस) जैसे बड़े कार्यक्रम भी हैं और यह कार्यक्रम छत्तीसगढ़ में भी चल रहा है। इसकी व्यापक पहुंच के बावजूद यह भी कुपोषण के स्तर में उल्लेखनीय कमी लाने में असमर्थ रहा है।
विश्व बैंक द्वारा तैयार हेल्थ एंड न्यूट्रीशन पेपर में इस कार्यक्रम में कई कमियां पाई गईं। पेपर बतलाता है कि आइसीडीएस कार्यक्रम सबसे यादा संवेदनशील बचों की पर्याप्त देखभाल नहीं करता जैसे कि तीन साल से कम आयु वाले बचे और सबसे गरीब रायों में जहां इसकी सबसे यादा जरूरत है, वहां यह प्रभावी तौर पर काम नहीं कर रहा है। सबसे गरीब गांववासी फुलवाड़ी की अधिक मांग कर रहे हैं, क्योंकि दोनों अभिभावक रोजाना काम के लिए बाहर जाते हैं। गांव की स्वास्थ्य कार्यकर्ता सभी बचों का जन्म से वजन का रिकॉर्ड रखती है। क्रेच की पहल सिर्फ सफल ही नहीं रही, बल्कि इसके बहुतेरे सकारात्मक नतीजे भी सामने आए। क्रेच जाने वाले बचों की खाने की आदतों में बदलाव देखा गया। परिवार के दूसरे सदस्य भी इससे लाभान्वित हुए। बचों के बड़े बहन-भाइयों ने फिर से स्कूल जाना शुरू कर दिया और दोनों अभिभावक बचों की फिक्र किए बिना काम पर जाने लगे।
इस क्रेच प्रोग्राम के सामने कई चुनौतियां हैं। मसलन खाद्य पदार्थो की बढ़ती कीमतें आदि। सभी कोशिशें करने के बावजूद यह गांव से दूर सबसे गरीब परिवारों तक नहीं पहुंच सकी है। इसमें प्रत्येक बचे पर रोजाना 17 रुपये खर्च किए जाते हैं। फंड जुटाना बहुत बड़ी चुनौती है। मनरेगा के तहत क्रेच वर्कर को तो पैसा देने के लिए फंड है, पर क्रेच की अन्य सुविधाओं के लिए नहीं। वैसे महिला एवं बाल विकास मंत्रलय जिस राष्ट्रीय क्रेच नीति का मसौदा तैयार कर रहा है, उसके फंडिग पैटर्न को लेकर भी अंदरखाते बहस चल रही है।
(लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)(DJ)

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