Monday 11 July 2016

विश्व जनसंख्या दिवस : गलत अवधारणा है जनसंख्या विस्फोट (अमूल्य रत्न नंदा )

आबादी केमुद्दे को समस्या के रूप में देखा जाता है। इसे लेकर कई तरह के मिथक और गलत धारणाएं हैं। भारत में यह खासतौर पर है। इसके लिए कुलीनतावादी, खुद के नैतिक रूप से सही होने की मध्यवर्गीय मानसिकता और एक-दूसरे को दोष देने की प्रवृत्ति जिम्मेदार है। प्राय: इसे सामाजिक-आर्थिक मोर्चे पर सरकार की विफलता के रूप में देखा जाता है। 'आबादी' के मुद्दे की असलियत या तो दिमाग में सही रूप में बैठाई नहीं गई या जान-बूझकर इसे विकृत रूप में पेश किया गया है। ऐसे में 'आबादी नियंत्रण' के लिए तानाशाही तरीकों की पुकार तीव्रतर होती जा रही है। नतीजा यह है कि 'क्विक फिक्स' समाधान लाए जाते हैं, जो लंबे समय में विपरीत परिणाम देने वाले, गरीब महिला विरोधी साबित होते हैं। आइए कुछ मिथकों, गलत धारणाओं की बातें करें।
सबसे पहले जनसंख्या विस्फोट का मिथक। पिछले तीन दशकों में वार्षिक/दशकीय वृद्धि, जन्म दर और कुल प्रजनन दर के संदर्भ में जनसंख्या वृद्धि में सतत गिरावट इस मिथक का भंडाफोड़ कर देती है। गिरावट ग्रामीण-शहरी, गरीब, मध्यवर्गीय धनी वर्ग सभी स्तरों पर देखी गई है। यही वास्तविकता है। पहली गलत धारणा से जुड़ा दूसरा मिथक यह है कि आबादी का आकार लगातार और अनियंत्रित ढंग से बढ़ रहा है। 1951 के 36 करोड़ से अब करीब 126 करोड़। वास्तविकता 'पापुलेशन मोमेंटम' फैक्टर है, जो आबादी के चरित्र में संक्रमण को स्पष्ट करता है। आबादी के साइज़ के 'फोबिया' को वास्तविकता समझकर खत्म करना जरूरी है।
तीसरा मिथक है गरीबी, कम प्रति व्यक्ति आय, धीमी आर्थिक प्रगति, संसाधनों में गिरावट आदि बड़ी आबादी का परिणाम है। यह धारणा वास्तविकता की कसौटी पर सही नहीं ठहरती। यह खराब वितरण व्यवस्था के साथ स्वास्थ्य, शिक्षा, पोषण और कल्याण कार्यक्रमों तक समान पहुंच के अभाव और उपभोग की शैली का परिणाम है। चौथा इसी प्रकार का मिथक पर्यावरण प्रदूषण, बढ़ता वैश्विक तापमान और पर्यावरण विनाश इसके लिए भी बड़ी आबादी (वह भी मोटेतौर पर गरीब) को ही दोषी बताया जाता है। वास्तविकता कुछ और ही है- कुछ लोगों द्वारा शोषण या उपभोग, न्यूनतम संसाधनों तक पहुंच और सामाजिक विकास के अभाव से गरीबी अन्य समस्याएं पैदा होती हैं।
इन अवधारणात्मक मिथकों ने गलत धारणाओं और पक्षपातपूर्ण मानसिकता को जन्म दिया है। नतीजा यह हुआ है कि आबादी की समस्या नफरत और फोबिया पर आधारित होकर आबादी के कुछ तबकों तक केंद्रित हो गई, जिनके बारे में माना गया कि वे गैर-जिम्मेदाराना ढंग से आबादी बढ़ा रहे हैं। इससे तात्कालिक प्रतिक्रिया और अच्छे-बुरे किसी भी तरीके से आबादी नियंत्रण 'क्विक फिक्स' समाधान की प्रवृत्ति पैदा होती है, जिससे अंत में उलटे नतीजे मिलते हैं। सरकार, स्वास्थ्य संस्थान और नागरिक समाज के लिए आबादी की समस्या की वास्तविकता को जन-मानस में सतत प्रचार और जागरूकता के जरिये बैठाने की चुनौती है। इसके लिए मैं कुछ सुझाव देना चाहूंगा। स्कूल-कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के लिए आबादी पर तैयार पाठ्यक्रमों में इन मिथकों, गलत धारणाओं को दिखाकर वास्तविकता पर सतत जोर देना चाहिए। आबादी और जनसांख्यिकी पर पाठ्यक्रमों की समीक्षा होनी चाहिए। आबादी के अध्ययन को डेमोग्राफी की बजाय 'डेमोलॉजी' यानी जनसांख्यिकी विज्ञान नाम दिया जाना चाहिए। इस विषय के तहत अर्थशास्त्र, सामाजिक विज्ञान, सामाजिक मनोविज्ञान, सामाजिक मानविकी, लोक स्वास्थ्य, िचकित्सा विज्ञान और पर्यावरण जैसे विषयों पर फिर गौर करके इन्हें 'डेमोलॉजी' की वास्तववादी अवधारणा से जोड़ना चाहिए। अकादमिक विद्वानों, नौकरशाही, विधायिका और स्वास्थ्य क्षेत्र के प्रोग्राम लीडरों के सघन प्रशिक्षण में आमूल परिवर्तन होना चाहिए। प्रशिक्षण संस्थानों को इसमें अग्रणी भूमिका निभानी चाहिए। मिथक गलत धारणाओं को रोकने के लिए विभिन्न विषयों में एकीकृत रिसर्च के जरिये सबूत एकत्रित करने चाहिए, जो वास्तविकता सामने रखें।
धान को भूसे से अलग करने के लिए सारे स्तों पर लगातार अधिकारों और संवेदनशील नीति की वकालत की जानी चाहिए। नीतिगत विश्लेषण और निगरानी अध्ययन साथ-साथ होने चाहिए ताकि आंतरिक विरोधाभासों और मिथकों का पता लगाकर नियमित रूप से फीडबैक मिलता रहे। इस प्रयास में नागरिक समाज की सक्षम संस्थाओं और शोध संस्थानों को शामिल किया जाना चािहए। मिथकों और गलतधारणाओं को सार्वजनिक क्षेत्र में पूरी तरह उजागर किया जाना चाहिए और संवेदनशीलता, सहानुभूति और मानवीयता के साथ वास्तविकता को समय-समय पर अपडेट करने के साथ लोगों के सामने लाना चाहिए। इसमें सतत सतर्कता बरतना बहुत जरूरी है।
केंद्र राज्य सरकारों को जनसंख्या कार्यक्रमों की रणनीति को समय-समय पर मिथक बनाम वास्तविकता के नज़रिये से जांचना चाहिए। इसके लिए मानवाधिकार, प्रजनन अधिकारों और महिला स्वास्थ्य के लिए प्रतिबद्ध संस्थाओं की मदद ली जानी चाहिए। आखिर में केंद्रीकृत ऊपर से नीचे की ओर चलने वाली प्रबंधन शैली के शासन में आमूल सुधार लाने की जरूरत है, जिसमें वास्तविक विकेंद्रीकरण, अधिकार सौंपने और लोगों की भागीदारी का अभाव है। ऊपर से थोपे गए स्वास्थ्य गर्भ-निरोधक योजनाएं मानकर चलने पर आधारित होती हैं। इसमें यथार्थता तभी आती है जब ये कार्यक्रम लोक समुदायों से आते हैं। तब लॉजिस्टिक मैन पॉवर प्लानिंग वास्तववादी होती है।
ऐसा करने पर उनकी स्वीकार्यता और प्रभाव बढ़ने के साथ लागत भी कम हो जाती है। लोग खुद को अधिक भागीदार समझने लगते हैं और उन्हें अपने अधिकारों, लाभों और कर्तव्यों का अधिक ज्ञान होता है। तब आबादी के कार्यक्रम बेहतर ढंग से अमल में लाए जाते हैं, जिसमें पारदर्शिता के साथ जवाबदेही होती है। इससे लोगों के साथ प्रोग्राम मैनेजरों और नीति रणनीतिगत नेतृत्व के दिमाग में बैठे मिथक भी टूटते हैं। तब आबादी की समस्या, लोगों की समस्या हो जाती है और आबादी के कार्यक्रम लोक कार्यक्रम हो जाते हैं। (DB)
पूर्वसचिव, केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय तथा पॉपुलेशन फाउंडेशन के पूर्व कार्यकारी निदेशक

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