Monday 11 July 2016

स्वतंत्रता के आयाम (राजकिशोर)

स्वतंत्रता होती नहीं है, महसूस की जाती है। अंग्रेज भारत से गए, इसके पहले से ही भारत के बहुत-से लोगों ने अपने को स्वतंत्र अनुभव करना शुरू कर दिया था। गांधी जी को भारत की पराधीनता का पूरा एहसास था, पर जब वे बोलते थे, एक स्वाधीन व्यक्ति की तरह बोलते थे। तिलक की भाषा ऐसी ही थी और सुभाष की भी। वास्तव में, जो भीतर से स्वतंत्र है, वही स्वतंत्रतापूर्वक जी सकता है। अगर किसी की आत्मा में स्वतंत्रता का भाव नहीं है, तो वह अनुकूल से अनुकूल परिस्थिति में भी दास की तरह आचरण करता है। कह सकते हैं कि वह किसी और का नहीं, अपना ही गुलाम है। ऐसे लोग सर्वत्र पाए जाते हैं। इनकी एक बहुत बड़ी सामाजिक भूमिका होती है :उनकी राह मुश्किल बनाना जो इतर कारणों से सहमत होने के लिए तैयार नहीं हैं। लेकिन इतिहास की गति बताती है कि जब परिवर्तन की जमीन तैयार हो जाती है, तब बड़े से बड़ा शक्तिशाली पुरुष असहाय हो जाता है। विक्टर ह्यूगो का कहना है, जिस विचार का समय आ गया है, उसे दुनिया की बड़ी से बड़ी ताकत रोक नहीं सकती। स्वतंत्रता एक ऐसा ही विचार है।
लेकिन किसी विचार का समय आता कैसे है? क्या इतिहास एक के बाद एक तहा कर रखे हुए विचारों का ढेर है, जिसमें एक विचार अप्रासंगिक हो जाता है, तो उसका स्थान लेने के लिए दूसरा विचार सामने आ जाता है? क्या फ्रेंच क्रांति इतिहास के किसी पन्ने पर लिखी हुई थी जो ठीक उसी समय घटित होती जो उसके लिए तय कर दिया गया था? इतिहास की गति किसी न किसी तर्क पर आधारित होती है - क्योंकि उसका विषय मानवकार्य कलाप है जो तर्क से ही परिचालित होता है, भले ही वह भावना का ही तर्क हो।
परंतु इतिहास का देवता हमारे चित्रगुप्त जितना कुशल नहीं है कि वह विस्तार में जा कर एक-एक व्यक्ति या एक-एक स्थान की नियति तय कर दें। फ्रेंच क्रांति जैसी घटना कहीं न कहीं होती जरूर- वह यूरोप में न हो कर एशिया में भी हो सकती थी, क्योंकि वह जनता के लिए कठिन समय में सामंतवाद की यादती के प्रति जन गुस्से की अभिव्यक्ति थी और ऐसी यादती कहीं भी हो सकती थी। लेकिन यह यों ही नहीं होता- इसके पीछे विचारकों, लेखकों और कलाकारों की प्रेरणा और संगठनकर्ताओं का उद्यम होता। विचार और कर्म दोनों आगे-पीछे या साथ-साथ चलते हैं। लेकिन यह भी सच है कि दास प्रथा दुनिया में सभी जगह थी, पर स्पार्टाकस एक ही जगह पैदा हुआ।
यह एक भ्रम है कि जो जितना गरीब है, वह उतना ही स्वतंत्र है। गरीबी का स्वतंत्रता से कोई संबंध नहीं है। बल्कि वह आदमी को परतंत्र बनाती है। या यों कहें कि गरीब वे होते हैं जिनकी स्वतंत्रता छीन ली गई होती है। भूमिहीन किसान गरीब होता है, क्योंकि खेत वही जोतता है, पर भूमि उसकी नहीं होती। बेरोजगार आदमी गरीब होता है, क्योंकि उसे उन जगहों पर प्रवेश से वंचित कर दिया गया होता है, जहां उसके श्रम का उपयोग हो सकता है। अंतत: सबसे गरीब भिखारी होता है, क्योंकि उसके हाथ में भीख के कटोरे के सिवा कुछ भी नहीं होता। मध्य युग के साहित्य में गरीबी का महिमान्वयन इसलिए किया गया है कि वह सामूहिक गरीबी का युग था और संतोष को एक मूल्य के रूप में स्थापित करने के अलावा कोई चारा नहीं था। जो अपनी निर्धनता से असंतुष्ट था और उसे दूर करने के लिए प्रयास करना चाहता था, उसकी नैतिकता को शक की निगाह से देखा जाता था। यही कारण है कि उन दिनों के साधु-संत भी प्राय: गरीब हुआ करते थे, जबकि आज ठीक इसका उलटा है।
एक स्थिति जरूर है, जिसके बारे में कहा जा सकता है कि जिसके पास कुछ नहीं है, वास्तव में वही स्वतंत्र है। चाह गई चिंता मिटी, मनुवा बेपरवाह। जिनको कछू न चाहिए सोई शाहंशाह। लेकिन इस अर्थ में शहंशाह नहीं कि वह अपनी हर इछा को पूरा कर सकता है, बल्कि इस अर्थ में कि उसकी कोई ऐसी इछा ही नहीं है जो उसे पूरा करने के लिए उकसाती हो और उस जंजाल की ओर ले जाती हो जिसका नाम दुनिया है। निस्पृह हो जाने की शिक्षा भारतीय दर्शन में लंबे समय से दी जाती रही है, हालांकि वेदों में निस्पृहता नहीं, सक्रिया का वातावरण है। बाद में पता नहीं कैसे यह विचार मजबूत होता गया कि इछा ही बंधन है। इछा पाप है। जिसने कामना की, वह मिट गया। जिसने कुछ नहीं चाहा, वह बच गया। लेकिन यह स्वतंत्रता नहीं है, मुक्ति है। भारत में मुक्ति की उपासना होती आई है। इसीलिए यहां स्वतंत्रता को यथावश्यक महत्व नहीं दिया गया। मुक्ति संसार से तटस्थता है, संसार में रहते हुए भी संसार से दूर होने का स्थान है जिसे संघर्ष करते हुए जीने का आनंद है। मनुष्य को इस आनंद से वंचित रखना अध्यात्म नहीं, आध्यात्मिक षड्यंत्र है, जो दुनिया के हर देश में देखा जाता है, क्योंकि सामूहिक गरीबी के समय में, जब जीवन कठिन हो और इछाएं कठिन, इछाओं से मुक्ति का दर्शन ही सब से यादा प्रभावी हो सकता था। अकारण नहीं कि आज का दर्शन यह है-लालच सुंदर है (ग्रीड इज गुड)।
वास्तव में स्वतंत्रता का स्थान न इछाओं से मुक्ति में है न इछाओं की अबाध पूर्ति में। दोनों के संतुलन बिंदु पर स्वतंत्रता की देवी विराजती हैं। इछाएं इतनी ही हों जिससे समाज और प्रकृति में संतुलन बना रहे। महात्मा गांधी ने कहा है कि धरती सब की जरूरतों को पूरा कर सकती है, पर वह एक व्यक्ति के लालच को कभी पूरा नहीं कर सकती।
(लेखक वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं)(DJ)

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