Saturday 9 July 2016

बांग्लादेश में हमारी चिंता आईएसआई (लेफ्टि. जन. (रिटा.) सैयद अता हसनैन सेनाकी 15वीं कोर के पूर्व कमांडेंट)

ढाका में हाल ही में पहला बड़ा आतंकी हमला हुआ। हमले की खौफनाक घटनाओं के बारे में बहुत कुछ लिखा गया है, लेकिन मुख्य मुद्‌दा यह है कि इन दो हमलों के पीछे आईएसआईएस का हाथ होने की बात कही गई है। इसमें कितनी सच्चाई है? पड़ोस में हुई ये घटनाएं भारत को किस तरह प्रभावित करती हैं?
इन घटनाओं के बारे में मेरा अाकलन सात माह पहले मेरी बांग्लादेश यात्रा के दौरान किए विश्लेषण पर आधारित है। बांग्लादेश सेना के आमंत्रण पर मैं पहली बार उस देश में गया था। मैं 1971 के युद्ध की ऐतिहासिक जगहों पर जाना और लोगों से बात करना चाहता था कि वे उन रोमांचक दिनों के बारे में क्या कहते हैं, जब इतिहास बन रहा था और उपमहाद्वीप का नक्शा हमेशा के िलए बदलने वाला था। नवंबर 2015 में हुई इसी यात्रा के समय में उदारवादी ब्लॉगरों पर सर्वाधिक हमले हुए। सुरक्षा क्षेत्र के समुदाय सहित जिन लोगों से मैंने बात की उन्होंने बेबाकी से विचार व्यक्त किए। उन्होंने काफी भरोसे के साथ बताया कि ढाका में अभी जो कुछ चल रहा है, वह ऐसा कुछ है जो 1971 में पाकिस्तानी सेना द्वारा किए कत्लेआम के साथ शुरू हुआ था और 1975 में बंगबधु शेख मुजीब की हत्या के बाद उसी शिद्‌दत के साथ चल रहा है।
आमतौर पर माना जा रहा था कि पाकिस्तान ने पूरी कोशिश की कि वहां कभी उदारवादी संस्कृति जड़ जमा पाए और इस्लाम ही लोगों को बांधने वाली कड़ी रहे। यानी पाकिस्तान चाहे इसके पूर्वी भाग पर राज करे लेकिन, वहां सांठ-गांठ कर भारत के खिलाफ काम करे। वहां ऐसे बहुत से घरेलू कट्‌टरपंथी तत्व थे, जो यह काम करने को तैयार थे। इनकी मातृ संस्था जमात-ए-इस्लामी कोई कम नहीं थी। जमात परंपरागत रूप से शेख हसीना के विरोधियों के साथ रही, क्योंकि इसे अवामी लीग की उदार विचारधारा हजम नहीं होती। अपनी यात्रा में मैंने पाया कि उदार सूफी परंपरा में बांग्लादेश की जड़ें मजबूती से जमी हैं। फिर रवींद्रनाथ टेगोर और नजरूम इस्लाम के काव्य कलाओं वाले गैर-वैचारिक बंगाली संबंध भी हैं। ये मिलकर धार्मिक कट्‌टरता का काफी प्रतिकार करते हैं। यहां यह याद दिलाना होगा कि 1971 में पाकिस्तानी सेना द्वारा नौ माह तक चलाया गया कत्लेआम उन्हीं तत्वों की मदद से संभव हो पाया, जो पाकिस्तान के हिमायती थे और अवामी लीग के धर्मनिरपेक्ष चरित्र के खिलाफ थे। उसके बाद से बांग्लादेश का इतिहास कट्‌टरपंथी और उदारवादियों के संघर्ष का इतिहास ही रहा है। आज प्रधानमंत्री शेख हसीना मजबूती से सत्ता में बैठी हैं, भारत से रिश्ते काफी अच्छे हैं। फिर भारत के पूर्वोत्तर में आईएसआई की नापाक गतिविधियों के लिए अपनी जमीन का इस्तेमाल करने देने से हसीना के इनकार और 1971 के कत्लेआम के दोषियों को कठघरे में लाने के सक्रिय प्रयासों से कट्‌टरपंथी ताकतों में काफी गुस्सा है।
नवंबर 2015 में स्थिति तब वाकई खराब हो गई जब विदेशी मीडिया ने भी बांग्लादेश के कुछ तबकों के इस विश्वास की पुष्टि करनी शुरू कर दी कि उदारवादियों की हत्या के पीछे दाएश है। अमेरिका और कुछ अन्य पश्चिमी देशों ने तो अपने नागरिकों के लिए ट्रेवल वार्निंग तक जारी कर दी। बांग्लादेश सरकार के लिए स्थिति चिंताजनक हो गई, क्योंकि इसका प्रभाव विदेशी निवेश और विदेशी वाणिज्यिक प्रतिनिधिमंडलों की यात्रा पर भी पड़ने लगा।
मैंने वहां जो देखा उससे मुझे लगा कि इन हमलों के पीछे जो भी है, वह खासतौर ऐसे लोगों को निशाना बना रहा है कि जिससे दहशत फैले, सरकार पर भरोसा उठ जाए और ऐसा भी लगे कि इन घटनाओं में किसी विदेशी का स्पॉन्सर के रूप में हाथ है। मैंने निष्कर्ष निकाला कि आईएसआईएस का नाम जोड़ना एक हथकंडा है, जो इस आतंकी गुट को भी रास आता है। इरादा अंतरराष्ट्रीय समुदाय की दृष्टि में सरकार की क्षमताओं से भरोसा उठाना और उसे भीतर से कमजोर करने का है। आईएसआईएस के जिस कनेक्शन की बात की गई वह मुझे चकित करती है। अफगानिस्तान, पाकिस्तान और भारत, जहां प्रयास प्राथमिक रूप से भरती तक सीमित है, उन्हें छोड़कर आईएसआईएस को बांग्लादेश में क्या हासिल होने की उम्मीद है। वह बांग्लादेश के दक्षिण-पूर्वी एशिया की ओर बढ़ने के लिए पैर रखने की जगह बनाने से तो रहा और निश्चित ही यह एेसा क्षेत्र नहीं है, जहां से दक्षिण एशिया में वह मुहिम शुरू करे। पेरिस से ब्रसेल्स और इ्तांबुल तक आईएसआईएस यूरोप में फोकस के साथ सक्रिय है। पश्चिम के खिलाफ इसका युद्ध बदला लेने का युद्ध है। अफ्रीका में इसके अल शबाब और बोको हरम जैसे सहयोगी गुट हैं। यह उन्हें वैचारिक समर्थन देता है और संभव है कुछ आर्थिक लेन-देन भी हो। यदि सैन्यस्तर पर इसे इराक सीरिया से बेदखल कर दिया जाता है तो ये कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जहां जाने की आईएसआईस नेतृत्व सोच सकता है। बशर्ते लीबिया भी इसकी मौजूदगी का समर्थन करे। बांग्लादेश आईएसआईएस की रणनीति में कहीं नहीं बैठता।
ढाका में हाई प्रोफाइल रेस्तरां पर हमले ने दुनिया का ध्यान खींचा है। यहां तक कि अल-कायदा ने भी इसकी जिम्मेदारी ली है। चाहे इसमें आईएसआईएस की भूमिका अत्यल्प हो, लेकिन इससे बांग्लादेशी गुटों और आईएसआईएस दोनों का उद्‌देश्य पूरा होता है। यदि वाकई इस हमले में अल-कायदा का हाथ है तो आतंक के खिलाफ युद्ध का विस्तार इस उपमहाद्वीप में हो गया है तथा यह और भड़केगा। हैदराबाद में हिरासत में लिए जाने की हाल की घटना को देखें तो यह भारतीय खुफिया एजेंसियों के लिए कुछ चिंता का कारण है।
भारत और बांग्लादेश की खुफिया एजेंसियों के बीच सहयोग की स्थापित प्रणाली है, जिसे तत्काल और बढ़ाने की जरूरत है। बांग्लादेश सेना ने बहुत अच्छी कार्रवाई कर छहों आतंकी मार गिराए। इसके पीछे प्रधानमंत्री का दृढ़ता से लिया फैसला था, जिन्हें सेना पर पूरा भरोसा है। आईएसआईएस हो सकता है या अल-कायदा, लेकिन बिल्कुल साफ है कि इन दो हमलों को पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई का समर्थन था। यहीं भारत का संबंध आता है। ऐसा लग सकता है हम हर चीज को आईएसआई से जोड़ते हैं, लेकिन जब ऐसा दुष्टतापूर्ण नेटवर्क हमारे आस-पास हो तो किसी बड़ी घटना की तैयारी रखना बेहतर है, जिसे यह अंजाम देने में यह लगी हो। इसे किसी भी कीमत पर नाकाम करना ही होगा। (येलेखक के अपने विचार हैं।)(DJ)

No comments:

Post a Comment