Monday 4 July 2016

रंग लाई भारत की कूटनीति (सुशील कुमार सिंह)

पुराने अनुभवों के आधार पर यह आकलन कि पहले भारत को दुनिया के चुनिंदा समूहों से बाहर रखने की कोशिश होती थी, उक्त कथन सौ फीसद की सत्यता लिए हुए है। जब वर्ष 1974 में पोखरण परमाणु परीक्षण हुआ तब भारत को परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह से बाहर रखने के लिए एक समूह बनाया गया था। इतना ही नहीं 1981-82 के दिनों में भारत के समेकित मिसाइल कार्यक्रमों के तहत नाग, पृथ्वी और अग्नि जैसे मिसाइल कार्यक्रम का जब प्रकटीकरण हुआ और इस क्षेत्र में मिली भरपूर सफलता के बाद मिसाइल तकनीक पर भी पाबंदी लगाने का पूरा इंतजाम किया जाने लगा। इसी के चलते वासेनार अरेंजमेंट और ऑस्ट्रेलिया समूह समेत भारत को कइयों ग्रुप से दूर रखने का प्रयास भी किया गया।
जाहिर है कि पहले दुनिया के तमाम देश नियम बनाते थे और उनका भारत अनुसरण करता था, लेकिन यह बदलते दौर की बानगी ही कही जाएगी कि एमटीसीआर यानी मिसाइल तकनीक नियंत्रण व्यवस्था में भारत अपनी उपस्थिति दर्ज कराकर नियमों का अनुसरणकर्ता ही नहीं निर्माता भी बन गया। इतना ही नहीं एमटीसीआर क्लब में शामिल होने से भारत को कूटनीतिक तौर पर सबल और सफल होते हुए देखा जा सकता है। गौरतलब है कि इसका सदस्य बनने के लिए चीन पिछले 12 वर्षो से प्रयासरत है और अभी इस सूची से वह कोसो दूर है। एनएसजी के मामले में अड़ंगा लगाने वाला चीन भले ही अपनी पीठ थपथपा ले पर एमटीसीआर में भारत की एंट्री उसके लिए भी किसी खतरे की घंटी से कम नहीं है। बदले दौर के परिप्रेक्ष्य को देखें तो भारत न केवल अनुसरण करने वाले देशों की सूची से बाहर निकल रहा है, बल्कि अमेरिका का सबसे बड़ा रक्षा सहयोगी भी बन रहा है और स्वयं को बराबरी पर रख रहा है। उभरती अर्थव्यवस्था वाले देशों में इसका शुमार होना यह सिद्ध करता है कि वैश्विक कूटनीति के फलक पर मात्र एनएसजी में न होने से भारत की क्षमता कम नहीं होती है, बल्कि एमटीसीआर के चलते निकट भविष्य में पड़ोसी चीन को भी भारत आईना दिखा सकता है।
बीते दिन प्रधानमंत्री मोदी की वैदेशिक नीति की आलोचना इन बातों के लिए भी हुई कि एनएसजी के मामले में उनकी कूटनीति विफल हो गई। यह सही है कि एनएसजी को लेकर अमेरिका, इंग्लैंड, स्विट्जरलैंड तथा मैक्सिको समेत कई देशों के समर्थन के बावजूद चीन के अड़ंगे के चलते सफलता अधूरी रह गई, पर इस प्रकरण के तीन दिन बाद ही एमटीसीआर में भारत की एंट्री इस बात का संकेत है कि बड़े कूटनीतिक परिदृश्य में असफलताएं रेस लगाने के काम आती हैं। हालांकि जिस प्रकार माहौल बना था उसे देखते हुए भारत को एनएसजी के मामले में भी सफलता मिली होती तो कूटनीति का एक और चेहरा देखने को मिलता। फिलहाल विविधता और विस्तार से भरी दुनिया में ऐसे बहुत से दौर आते-जाते रहेंगे। एमटीसीआर की सफलता इस लिहाज से भी बड़ी है कि चीन इसका सदस्य नहीं है और भारत के सहमति के बगैर इसमें वह शामिल भी नहीं हो सकता। एमटीसीआर की धारणा और अवधारणा को विस्तार से समझा जाय तो इसकी प्रमुखता को और बेहतरी से उजागर किया जा सकेगा। देखा जाय तो अप्रैल 1987 में जी-7 में शामिल देश कनाडा, फ्रांस, जर्मनी, इटली, जापान, ब्रिटेन और अमेरिका ने इसकी स्थापना की थी। भारत के शामिल होने से पहले इसमें सदस्य देशों की संख्या 34 थी। अब 35वें देश के रूप में भारत भी इसका पूर्ण सदस्य हो गया है।
असल में इस समूह के निहित उद्देश्य एवं प्रावधान को देखें तो पता चलता है कि इसके सदस्य न होने वाले देश 500 किलोग्राम विस्फोटकों के साथ 300 किलोमीटर या उससे अधिक दूरी तक मार करने में सक्षम खतरनाक मिसाइलें सहित अन्य हथियारों या उपकरणों का निर्यात नहीं कर सकते, पर इस व्यवस्था में शामिल होने से भारत कई अहम फायदे की ओर झुकता दिखाई देता है। जहां उसे मिसाइल तकनीक निर्यात करना आसान होगा वहीं क्रायोजेनिक इंजन की तकनीक हासिल करने में सहूलियत भी होगी। ध्यान देने वाली बात यह है कि दो दशक पहले भारत रूस से अमेरिकी अड़ंगे के चलते क्रायोजेनिक इंजन की यह विधा हासिल नहीं कर पाया था। तब का दौर आज की तुलना में कहीं अंतर लिए हुए था। फिलहाल पांच साल के निरंतर प्रयास के चलते भारतीय वैज्ञानिकों ने स्वयं का क्रायोजनिक इंजन निर्मित कर लिया है। यह दौर का बदलाव ही है कि विरोध करने वाले देश आज भारत को न केवल हाथों-हाथ ले रहे हैं, बल्कि उसकी ताकत को अपनी मजबूती के लिए जरूरी भी मान रहे हैं। यह बात और पुख्ता तब होती है जब अमेरिका एनएसजी की सदस्यता के लिए भारत को पूरी तरह पात्र बताता है। इतना ही नहीं भारत में अमेरिका के राजदूत रिचर्ड वर्मा ने भी कहा है कि उनका देश सभी 48 सदस्यों को साथ लेकर एनएसजी में भी भारत की सदस्यता के लिए प्रयास जारी रखेगा।
एमटीसीआर का सदस्य होने का मतलब है कि भारत को अपने मिसाइल की तकनीक और उसके प्रक्षेपण से जुड़ी प्रत्येक जानकारी सदस्य देशों को देनी होगी। भारत के लिए दूसरे देशों से मिसाइल तकनीक तो हासिल करना आसान हो जाएगा, मगर भारत किसी दूसरे देश को इस तरह की कोई तकनीक देता है या कारोबार करता है तो उसकी पूरी जानकारी भी सदस्य देशों को देनी होगी। स्पष्ट है कि एमटीसीआर का तात्पर्य सबका साथ, सबका विकास और सबको सूचना भी देना है। जानकारों का यह भी मानना है कि एमटीसीआर के सूची में आने से भारत के लिए एनएसजी की सदस्यता हासिल करना एक मिशन की तरह होगा। देश की ऊर्जा जरूरतों के साथ-साथ सुरक्षा और मेक इन इंडिया जैसी भारत की महत्वाकांक्षी योजनाओं को इस समूह में शामिल होकर प्रवाह दिया जा सकता है। भारत ने भी माना है कि इस समूह में उसका प्रवेश वैश्विक अप्रसार शर्तो को बढ़ाने के लिए परस्पर फायदेमंद होगा। गौरतलब है कि एमटीसीआर में भारत की सदस्यता किसी भी बहुपक्षीय निर्यात नियंत्रण व्यवस्था में पहला प्रवेश है।
भारत इस समूह की अक्टूबर, 2016 में दक्षिण कोरिया में होने होने वाली बैठक में हिस्सा भी लेगा। इस समूह की खासियत यह भी है कि इसमें शामिल होने के लिए सभी की सहमति जरूरी है। पड़ोसी चीन एमटीसीआर के सदस्य बनने के लिए वर्ष 1991 में ही इसके नियम स्वीकार करने पर सहमति जता दी थी, लेकिन बाद में कुछ कारणों के चलते कदम पीछे खींच लिए थे। 2004 में एक बार फिर सदस्यता केलिए आवेदन दिया, पर कई सदस्यों की खिलाफत के कारण उसकी एंट्री संभव नहीं हो पाई थी। चूंकि अब इस समूह में भारत पूरी दमदारी से प्रवेश कर चुका है। ऐसे में अब चीन के लिए भारत का राजी होना भी जरूरी है। जिस प्रकार चीन भारत को नीचा दिखाने के लिए वैश्विक मंचों पर अपनी कूटनीति का भेदभावपूर्ण तरीके से इस्तेमाल करता रहा उसे देखते हुए स्पष्ट है कि एमटीसीआर में चीन का प्रवेश भारत के चलते आसान होने वाला नहीं है। ऐसे में निकट भविष्य में दोनों देश अपने-अपने हितों को लेकर सौदेबाजी की कूटनीति भी कर सकते हैं।
फिलहाल एमटीसीआर में धमाकेदार प्रवेश से दक्षिण एशिया में तो भारत की साख बढ़ेगी ही इसके अलावा आने वाले दिनों में इसके काफी सकारात्मक नतीजे भी देखने को मिलेंगे। इसमें भी कोई दो राय नहीं कि इसके चलते भारत अपनी कूटनीति को भी संतुलित करने में काफी हद तक सफल होगा। आंख दिखाने वाले पड़ोसी चीन को उसी की कुटिल चाल से उस पर पलटवार करने की जोर-आजमाइश भी कर सकेगा। उपरोक्त सकारात्मक पक्षों के बावजूद भारत के लिए एमटीसीआर अभी भी बदलते दौर की एक बानगी मात्र ही कही जाएगी, जबकि समूचा वैश्विक परिप्रेक्ष्य हासिल करने के लिए अभी भी उसे एड़ी-चोटी का जोर लगाए रखना होगा।
(लेखक रिसर्च फाउंडेशन ऑफ प}िलक एडमिनिस्ट्रेशन के निदेशक हैं)(DJ)

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