Monday 11 July 2016

नीतिगत मदद से होगा मेक इन इंडिया साकार (श्याम पोनप्पा,business standard)

अगर सही आकलन किया जाए तो कहा जा सकता है कि मेक इन इंडिया के तहत भारतीय निर्माताओं के लिए सहयोगी नीतियों के क्रियान्वयन की आवश्यकता है। खासतौर पर जब बात उन्नत उपकरण हासिल करने की हो। इससे यह मुद्दा उठता है कि तरक्की के नाम पर हमारी सरकारें दरअसल हमारे लिए या हमारे साथ कर क्या रही हैं। सरकारें इसलिए क्योंकि यह समस्या संप्रग-2 से भी बहुत पहले की है और अब तक चली आ रही है।
इन पहलुओं की शुरुआत सार्वजनिक नीति और व्यवहार के संदर्भ में प्राथमिक लक्ष्य और संगठनों के साथ होती है। इसमें आवश्यक तौर पर बाजार पहुंच शामिल होती है और इसका विस्तार प्राथमिक और द्वितीयक कानूनों के निर्माण तक होता है जिसमें मौजूदा कानूनी और पारंपरिक आवश्यकताएं शामिल होती हैं। इसके बाद विस्तृत नियम और प्रक्रियाएं होती हैं, आर्थिक और वित्तीय संपर्क होते हैं और संस्थागत एवं परंपरागत बदलाव होते हैं। इसके अलावा भी तमाम अन्य बातें हैं। इसके बावजूद, इन सभी पर विचार होना चाहिए और मजबूत विकास के लिए इन पर काम भी होना चाहिए। खासतौर पर सामरिक क्षेत्रों में नीतिगत समर्थन आवश्यक है। उदाहरण के लिए स्थानीय बाजार तक पहुंच सुनिश्चित करना, शेयर और ऋण के लिए वित्त जुटाना, बढिय़ा लॉजिस्टिक्स और प्रभावी बुनियादी ढांचा।
उच्च तकनीक वाले विनिर्माण क्षेत्र में कोई घरेलू स्टार्टअप अनुबंध प्रदान करने वाले रसूखदार लोगों के दायरे में जगह कैसे बना पाएगा? इस प्रश्न का उत्तर है कि वह ऐसा नहीं कर पाएगा जब तक कि उसे एक दूरदर्शी सरकार का सहयोग नहीं हासिल हो। अन्यथा तो भारतीय विनिर्माण कंपनियों को अपना बढिय़ा उत्पाद विदेशी बाजारों में पेश करना पड़ता है, उसके बाद ही वे देश में अनुबंधों के लिए जद्दोजहद ककर पाते हैं।
अब जरा पहले ही देरी से गुजर चुके और लंबित डिजिटल इंडिया पहल के ऊपर विचार कीजिए। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) के प्रथम कार्यकाल के दौरान पेश किए गए बड़े बदलावों और सीमित ब्रॉडबैंड के साथ मोबाइल टेलीफोनी में असीमित वृद्घि के बाद भी नीतिगत जगत में कुछ खास बदलाव नहीं आया है जिसकी बदौलत ब्रॉडब्रैंड में वृद्घि को बल दिया जा सके। खासतौर पर ग्रामीण भारत में।
देश के विनिर्माण क्षेत्र की कंपनियों को इस बात से जूझना पड़ रहा है कि सरकार अपनी ही नीतियों पर टिक नहीं रही। बहरहाल वह एक अलग मसला है। नीचे दिया गया उदाहरण एक और समस्या को उजागर करता है। मान लेते हैं कि एक विनिर्माण स्टार्टअप उद्यम है जिसने कुछ नवाचारी बेतार उपकरण कबाड़ से तैयार किए हैं। इसके उत्पाद ऐसे हैं जो टेलीविजन, डाटा और ध्वनि सेवाओं तक ब्रॉडबैन्ड संचार के इस्तेमाल को बढ़ा सकते हैं। खासतौर पर ग्रामीण और उपनगरीय इलाकों में। उनमें से कुछ उत्पाद शुरुआती परीक्षण में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धा के योग्य हैं। ऐसे उत्पादों को तैनाती के पहले उनका परीक्षण करने के लिए नई नीतियां बनानी होंगी। हमारे देश में ऐसी परंपरा नहीं रही।
अब तक इन उपकरणों के लिए कोई बड़ा अंतरराष्ट्रीय खरीदार भी नहीं है क्योंकि इन उपकरणों के लिए कोई अंतरराष्ट्रीय बाजार बनाया ही नहीं गया। ऐसा इसलिए क्योंकि विकसित देशों में फाइबर और तार का गहन संजाल है और वहां ऐसे बेतार उपकरणों की मांग बहुत सीमित है। एक बार आकार और कीमतों में गिरावट के बाद विकसित देशों में बाजार बन सकता है लेकिन वह बहुत उलझी हुई स्थिति है। इसके बावजूद भारतीय कंपनी को अपनी अधिकांश फंडिंग के लिए विदेशी निवेशकों पर निर्भर रहना पड़ता है क्योंकि उनके लिए अपने उत्पाद को बाजार में लाना एक बड़ी मशक्कत है। सहयोगी नीतियों के साथ ये उपकरण ब्रॉडबैन्ड के विस्तार में जबरदस्त भूमिका निभा सकते हैं। इसके बजाय इन भारतीय उद्यमियों को पता चला कि ऐसे उद्यम के समर्थन की कहीं कोई भूमिका नहीं है।
इतना ही नहीं बल्कि हर कदम पर नीतिगत बाधाएं मौजूद हैं। उदाहरण के लिए ऐसी कंपनियों को अपने उत्पाद का परीक्षण करने के लिए कोई फ्रीक्वेंसी मुहैया नहीं कराई गई हैं। ऐसे हर परीक्षण को भारत सरकार द्वारा नियंत्रित धीमी प्रक्रिया में अंजाम दिया जाता है। स्पेक्ट्रम के दुरुपयोग की आशंका को देखते हुए यह समझा जा सकता है कि उसका आवंटन किस कदर चिंता का विषय है लेकिन ऐसे उच्च तकनीक वाली विनिर्माण इकाइयों के आवेदन को निपटाने की कोई सुसंगत व्यवस्था भी देखने को नहीं मिलती है ताकि वे अपने उपकरणों का परीक्षण कर सकें।
डिजिटल इंडिया को बढ़ावा देने के लिए यह आवश्यक है कि ऐसी कंपनियों को बढऩे का अवसर दिया जाए। लेकिन इसके बजाय हमारी नीतियां अनुत्पादक प्रतीत होती हैं। बाजार की बात करें तो सरकार कंपनियों से और कंपनियां एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा करती नजर आती हैं। बाजार ढांचे या नीतियों को लेकर ऐसा कोई सकारात्मक घटनाक्रम नजर नहीं आता है जो तेज और समुचित विकास की ओर ले जाए। ऐसी नीतियों में इस्तेमाल से बची हुई फ्रीक्वेंसी का प्रयोग अथवा साझा नेवटर्व साझेदारी जैसी सुविधाओं का प्रयोग संभव किया जा सकता है। अगर अंतिम छोर तक ब्रॉडबैन्ड सुविधा देने के लिए बिना इस्तेमाल किया हुआ स्पेक्ट्रम सेवा प्रदाताओं को मुहैया कराया जााता है तो ग्रामीण उपभोक्ताओं तक ब्रॉडबैंड की सुविधा पहुंचाने में मदद मिलेगी। वहीं सेवा प्रदाताओं को भी साझा बुनियादी ढांचे से बढिय़ा राजस्व हासिल होगा।
राजस्व में सरकार की हिस्सेदारी में भी इजाफा होगा। इस प्रकार विरासत में मिली समस्याओं, अनुचित विदेशी मॉडल और सहयोगविहीन स्थानीय विनिर्माण मिलकर विश्लेषकों, शिक्षाविदों, प्रशासकों और विधिक समुदाय सभी को भ्रमित करते हैं। निर्णय प्रक्रिया में शामिल लोग समस्या के आकार से भयभीत होते हैं। इसके लिए जटिल वित्तीय पुनर्गठन की आवश्यकता है। इसके अलावा भी अन्य बदलाव अपनाने होंगे।
ऐेसे में प्रश्न है कि क्या किया जाए? यहां सरकार को हस्तक्षेप करना होगा और समझदारी से कदम उठाने होंगे। जिस प्रकार बिजली की आपूर्ति केंद्रीय पहल, समन्वय और अंशधारकों की भूमिका के बिना सफल नहीं हो सकती है ठीक उसी प्रकार ब्रॉडबैन्ड और संचार नेटवर्क भी बिना समस्या निवारण संबंधी रुख के आगे नहीं बढ़ सकता। केवल सरकार ही इन मसलों पर सकारात्मक ढंग से मदद कर सकती है। मंत्रालयों और नियामकों को इस संबंध में जरूरी पहल करनी चाहिए। वे सभी सेवा प्रदाताओं, आपूर्तिकर्ताओं और एजेंसियों को साथ लाकर एक ऐसा हल निकाल सकते हैं जिसे व्यवहार में आजमाया जा सके।

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