Friday 29 July 2016

बिगड़े हालात के सबक (ले. जनरल (रि.) सैयद अता हसनैन)

कोकरनाग दक्षिण कश्मीर में स्थित एक छोटा शहर है। पीर-पंजाल की पहाड़ियों और घने जंगलों के कारण कभी यह आतंकवाद का गढ़ था। हालांकि सेना ने 2008 तक यहां से आतंकवाद का सफाया कर दिया, लेकिन कुछ चिन्ह छूट गए थे। 2013 से वहां स्थानीय स्तर पर आतंकवाद के पनपने के संकेत मिलते रहे हैं, लेकिन इस दौरान कुल मिलाकर कोकरनाग में हालात शांत ही रहे। आठ जुलाई, 2016 को करीब शाम छह बजे गोलियों की आवाज से कोकरनाग की शांति एक बार फिर भंग हुई। यह सिर्फ एक मुठभेड़ नहीं थी। यह खुफिया एजेंसियों के कई महीनों के कठिन परिश्रम का परिणाम थी, जिसने सेना की 19 राष्ट्रीय राइफल यूनिट और जम्मू-कश्मीर पुलिस के स्पेशल ऑपरेशन ग्रुप के जवानों को बुरहान वानी को खोज निकालने में सफलता दिलाई थी। आतंकवादी वानी की लंबे समय से तलाश थी। दक्षिण कश्मीर में नए तरह का आतंकवाद पैदा करने में उसकी मुख्य भूमिका थी। उसकी रॉबिन हुड जैसी छवि ने आतंकवाद के प्रति खासा आकर्षण पैदा किया था। यही वजह है कि मुठभेड़ वाली जगह पर स्थानीय लोगों द्वारा उसे बचाने का प्रयास किया गया और साथ ही उसकी शवयात्र के दौरान समर्थन में भारी भीड़ भी जुट गई।
बुरहान बीते पांच वर्षो में स्थानीय स्तर पर 60-70 युवाओं को अपने साथ जोड़ने में सफल रहा था। वे सभी शिक्षित और तकनीकी रूप से दक्ष थे। हथियारों से लैस लड़ाकू पोशाक में उनकी तस्वीरें सोशल मीडिया पर पिछले दिनों वायरल हो गई थीं। बुरहान वानी के मारे जाने के बाद उसके समर्थकों ने सोशल मीडिया के जरिये लोगों को मुठभेड़ स्थल पर जुटने के लिए उकसाया। बुरहान का आतंक की दुनिया में प्रवेश त्रल में कुछ गुमराह पुलिसकर्मियों के गलत व्यवहार के कारण हुआ था। त्रल अलगाववाद की भावना के लिए कुख्यात है और पिछले 26 सालों में यहां ¨हसक घटनाएं खूब हुई हैं। इसके पश्चिम में वागड चोटी और उत्तर में दाचीगम जंगल होना इसे आतंकवादियों का सुरक्षित ठिकाना बनाता है। सीआरपीएफ सहित राष्ट्रीय राइफल्स की पूरी यूनिट होने के बावजूद यहां के कुछ ही हिस्सों पर पूर्ण नियंत्रण है। बुरहान भी त्रल का ही रहने वाला था।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि बुरहान का अंत एक बड़ी खबर बनी। इस पर मेरा सबसे पहला आकलन यही था कि अधिकारियों को मुठभेड़ के बाद के प्रभावों को नियंत्रित करने में सावधानी बरतनी होगी। हुर्रियत जैसे संगठन इसका अपने फायदे के लिए उपयोग करेंगे और अपने को प्रासंगिक बनाने के लिए घाटी में चिंगारी भड़काएंगे। अंतिम संस्कार के लिए बुरहान वानी के शव को उसके परिजनों को सौंपने का फैसला सोचा-समझा था। पहले भी प्रशासन ने लगभग हर बार मारे गए आतंकवादियों के शव के सार्वजनिक अंतिम संस्कार के लिए लोगों को छूट दी है और इस दौरान उसे विरोध भी ङोलना पड़ा है। सिर्फ अफजल गुरू का शव उसके परिजनों को नहीं दिया गया था और उसे दिल्ली में ही दफना दिया गया था। हालांकि दोनों घटनाओं में खासा अंतर है।
दरअसल जम्मू-कश्मीर प्रशासन को संभवत: यह बताया गया कि शव को उसके परिजनों को सौंपने से कुछ हद तक नाराजगी कम होगी। इसके बाद के घटनाक्रमों ने भी साबित किया कि भारी भीड़ के बावजूद अंत्येष्टि ने कोई बड़ी समस्या पैदा नहीं की। यहां तक कि बिना शव के ही नमाज-ए-जनाजा का आयोजन हो सकता है, जैसा कि बुरहान वानी के मामले में लगभग चालीस जगहों पर हुआ भी। हालांकि उस दौरान पुलिस की उपस्थिति में हवा में फायरिंग की घटनाओं की आलोचना भी हो रही है। बहरहाल यह कश्मीर है और जो लोग वहां के हालात से परिचित हैं वे जम्मू-कश्मीर पुलिस की कुछ मजबूरियों को जरूर समझते हैं।
जिस बात की आशंका नहीं थी वह है बुरहान वानी के अंतिम संस्कार के बाद दक्षिण कश्मीर में पिछले कुछ दिनों से भीड़ का ¨हसक रवैया। इतनी भारी ¨हसा वहां सितंबर 2010 के बाद से नहीं देखी गई। तब जून से सिंतबर के दौरान वहां 117 युवा पुलिस की गोली के शिकार हो गए थे। वहां अलगाववाद की भावना स्पष्ट रूप से कई गुना बढ़ गई है और यह नब्बे के दशक के स्तर को छू रही है। ऐसा प्रतीत होता है कि बुरहान वानी की मौत ने इसमें चिंगारी भड़काने का काम किया है। यहां कट्टरता में वृद्धि हो रही है और नियंत्रण रेखा के उस पार से मिल रही शह के कारण लोगों में अलगाववाद की भावना बढ़ी है। बुरहान वानी के प्रयास और अलगाववादियों से हमदर्दी रखने वालों की भी इसे हवा देने में भूमिका है। इस समय सबसे खास बात यह देखने को मिली है कि भीड़ पहले से ज्यादा संगठित है और पुलिस स्टेशनों पर योजनाबद्ध तरीके से हमले कर रही है। भीड़ को इस बात की पूरी जानकारी है कि कानून एवं व्यवस्था की स्थिति बनाए रखने के लिए पुलिसकर्मियों को बाहर भेजा गया है और पुलिस स्टेशन एक तरह से खाली हैं। पिछले कुछ दिनों में करीब 17 पुलिस स्टेशनों और कुछ पुलिस कैंपों को निशाना बनाया गया, कई पुलिसकर्मियों को बंधक बनाया गया और कुछ हथियार भी लूटे गए। अनंतनाग में कुछ कश्मीरी पुलिसकर्मी के घरों को जलाया गया है। यह 2008 में हुई घटनाओं की याद दिलाता है जिसका मैं प्रत्यक्षदर्शी था। पिछले कई दिनों में जो मौतें हुई हैं उनमें अधिकांश पुलिस फायरिंग में हुई हैं, जब पुलिस को भीड़ द्वारा निशाना बनाया गया। मैं यह नहीं मान सकता कि स्थानीय लोगों द्वारा फैलाई जा रही ¨हसा बुरहान वानी की भावना में बहने का परिणाम है। जिस तरह से भीड़ पूरी तरह नियोजित और संगठित होकर ¨हसा फैला रही है उससे इसमें अलगाववादियों, आतंकवादियों और आइएसआइ की साठगांठ साफ नजर आती है। 1सितंबर 2010 में भी इस साठगांठ ने ही सेना के कैंपों पर हमले करने की धमकी दी थी। सेना ने अतिसक्रियता दिखाते हुए गंभीर परिणाम की चेतावनी दी और लोगों के बीच जाकर अपनी बात कही। इस समय भी ऐसा ही कुछ करने की जरूरत है। इस समय ¨हसा की तीव्रता को कम करना, अलगाववादियों को साफ शब्दों में चेतावनी देना और सभी देशविरोधी नेताओं को गिरफ्तार करने की धमकी देना सबसे ज्यादा जरूरी है। यदि जरूरी हो तो उन्हें घाटी से बाहर भी करना चाहिए। राजनीतिक समुदाय को लोगों के बीच जाना होगा और उनसे संवाद कायम करना होगा। हालांकि लंबे समय में ऐसी घटनाओं से पार पाने की जिम्मेदारी पुलिस और सेना की ही है। घाटी में ऐसी घटनाओं के दौरान मोबाइल और इंटरनेट सेवाएं बंद कर दी जाती हैं, लेकिन मीडिया खासकर प्रिंट को खबरें देने में जिम्मेदारी दिखानी चाहिए। अमरनाथ यात्र हर हाल में सुरक्षित की जानी चाहिए। इसे रोकने पर पूरे देश में गलत संदेश जाता है। बुरहान ने भी कहा था कि उसकी मंशा है कि तीर्थस्थल में दखलअंदाजी नहीं होनी चाहिए। घाटी में हालात सामान्य होने दें, उसके पहले हम आगे के रास्ते पर विचार कर सकते हैं। (DJ)
(लेफ्टीनेंट कर्नल के तौर पर कश्मीर में लंबे समय तक तैनात रहे लेखक सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं)

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