Monday 4 July 2016

वैश्वीकरण के खिलाफ पहला धमाका (शशि थरूर )

ऐतिहासिक जनमतसंग्रह में यूरोपीय संघ छोड़ने के ब्रिटिश जनता के फैसले ने अंतरराष्ट्रीय चिंतकों को स्तब्ध कर दिया, बाजारों में उथल-पुथल मचा दी और ब्रिटेन के साथ यूरोपीय संघ को भू-राजनीतिक अनिश्चितता के दौर में डाल दिया है, जिसका परिणाम अौर प्रभाव अनुमान के परे है। सिर्फ एक साल पहले दोबारा चुनाव जीतने का जश्न मनाने वाले ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन के लिए यह बहुत बड़ा झटका है। मैं जनमत संग्रह के पहले चल रहे प्रचार के अंतिम दो सप्ताह ब्रिटेन में था और कहना पड़ेगा कि मैं भी चकित हूं। मतदाताओं के व्यापक तबके से मेरी चर्चा में मुझे यही लगा था कि मुकाबला भले ही कड़ा हो, लेकिन ब्रिटेन के मतदाता खुद को अनिश्चितता के दौर में झोंकने की बजाय संघ में बने रहने की सुरक्षा चुनेंगे।
यह फैसला सिर्फ छह हफ्ते के प्राय: कटु हो गए अभियान का नतीजा नहीं है। जैसा कि लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी के नेता टिम फैरॉन ने कहा कि यह बड़ी संख्या में कंजर्वेटिव नेताओं द्वारा किए दो दशकों के यूरोपीय संघ और इसकी संस्थाओं के सतत पतन का परिणाम है। यूरोप के गरीब हिस्सों से प्रवासियों की बाढ़, यूरोपीय फंड्स में भुगतान से ब्रिटेन को होने वाला आर्थिक नुकसान, जिसका फायदा दक्षिण पूर्वी यूरोप से नए आने वाले सदस्यों मिलना, ऐसी बातों पर रोष जताने का फैशन हो गया था। पुराने यूरोपीय राजनीतिज्ञों ने समान विचारों वाले राष्ट्रों के ऐसे आदर्श समुदाय की कल्पना की थी, जो उन पृथकतावादी विभाजनों और संघर्षों से मुक्ति पा लेगा, जो इस 'पुराने महाद्वीप' को 600 साल से परेशान कर रहे हैं। कुछ समय तो लगा भी कि वे सफल हो रहे हैं, क्योंकि 1870 और 1945 में तीन भीषण युद्ध लड़ने वाले फ्रांस जर्मनी इतने नज़दीक गए कि भविष्य में युद्ध असंभव लगने लगे। किंतु यूरोपीय संघ एक तरह से अपनी ही सफलता का शिकार हो गया। जैसे-जैसे इसने अधिक देशों को गले लगाया, साझा मुद्रा बनाई, मुक्त आवाजाही के लिए सीमाएं साझा कीं, यूरोपीय संघ में हसरतें पैदा होने की बजाए रोष बढ़ता गया और ब्रिटेन को यूरोपीय संघ से बाहर लाने का आंदोलन शुरू हुआ।
संसारभर में वैश्वीकरण को लेकर विकसित दुनिया पर जो रोष है, 'ब्रेग्जि़ट' उसका पहला विस्फोट है। लोगों में यह अहसास बढ़ रहा है कि वैश्विक ताकतों ने उनकी स्थानीय जिंदगी का नियंत्रण अपने हाथों में ले लिया है। नीदरलैंड्स से लेकर हंगरी तक कई यूरोपीय देशों में धुर दक्षिणपंथी दलों का उदय यही बताता है। अमेरिका में डोनाल्ड ट्रम्प का उदय देखिए। 'ब्रेग्जि़ट' उन ताकतों के प्रवाह को रोकने की हताशाभरी पुकार है, जिन्हें लोग समझ नहीं पा रहे हैं और उन्हें लगता कि उनकी जिंदगी में जो भी गलत हुआ है, उसके लिए यही ताकतें जिम्मेदार हैं। अब फ्रांस नीदरलैंड्स में भी जनमत संग्रह की मांग उठ रही है।
डेविड कैमरन के पास अल्पावधि की राजनीतिक चुनौती से निपटने के लिए देश को लंबे समय की अनिश्चितता में डालने की गलती करने पर चिंतन करने के लिए पर्याप्त समय है। हमारे लिए तो सोचने के लिए और भी बड़ी बाते हैं- वैश्वीकरण का बढ़ता विरोध, पुराने किस्म के राष्ट्रवाद की वापसी, आप्रवासियों के खिलाफ तीव्र भावनाएं और लोकप्रिय धारणाओं के मुताबिक राष्ट्रीय नीतियां बनाने का जोखिम।
अनिश्चितता के इस दौर में यह स्वाभाविक ही है कि लोग निश्चितता में शरण लें। और उन्होंने ऐसा किया भी है। फ्रांस में नेशनल फ्रंट सांवली त्वचा वाले मुस्लिम आप्रवासियों से रहित राष्ट्र की कल्पना कर रहा है तो ब्रिटेन में ब्रिटिश साम्राज्य के गौरवशाली दिनों को लौटाने की फैंटसी है। अमेरिका में डोनाल्ड ट्रम्प के उदय को भी कामकाजी मध्यवर्गीय श्वेतों में व्याप्त असुरक्षा में देखा जा सकता है। ये लोग उनकी दुनिया के उस रूपांतरण का विरोध कर रहे हैं, जिसे वे नहीं पहचानते। सिर्फ एक साल पहले किसने कल्पना की थी कि यूरोप, ब्रिटेन अौर अमेिरका वैश्विक भू-राजनीतिक स्थिरता के लिए खतरा बन जाएंगे। यह अजीब नई दुनिया है और कोई नहीं जानता कि यह कहां जाएगी।
'डायरेक्ट डेमोक्रेसी'के खतरे ही अधिक : भारतीयोंको खुद से यह प्रश्न पूछना चाहिए कि ब्रिटेन में जिस तरह की 'डायरेक्ट डेमोक्रेसी' आजमाई गई, क्या उसमें फायदे की बजय खतरे ही अधिक नहीं हैं? ब्रिटिश व्यवस्था के अनुरूप हमारी व्यवस्था में लोग अपने प्रतिनिधि चुनते हैं, जो उनकी ओर से अपनी बुद्धिमत्ता के हिसाब से फैसले लेते हैं। स्विट्जरलैंड जैसी अन्य व्यवस्थाएं अपने सारे महत्वपूर्ण फैसले जनमत संग्रहों से लेती हैं। कैमरन ने दो पद्धतियों का जो अजीब-सा घालमेल अपनाया वह राजनीतिक साहस का अभाव दर्शाता है। अपनी ही पार्टी में यूरोपीय संघ विरोधी भावनाओं का सामना कर पाने की अक्षमता। किंतु नीतिगत मामलों में जनता का मुंह देखने से राजनेता उस अधिकार से वंचित हो जाते हैं, जो वे अपने पेशे को जवाबदारी से निभाकर अर्जित करते हैं। जनमत संग्रहों से राष्ट्रीय निर्णय प्रक्रिया का आधार राजनीति से बदलकर लोकप्रिय भावना हो जाती है। फैसला विशेषज्ञों की बजाय लोगों को उकसाने वाले नेता करने लगते हैं। फिलहाल जो बातें वित्त मंत्रियों के दिमाग पर हावी होंगी, ब्रिटिश मतदाताओं को उनका गुमान भी नहीं होगा। वे शायद बस में (उनके लिए) अजीब-सी भाषाएं सुनकर पैदा हुई खीज की प्रतिक्रिया दे रहे होंगे। फिर सवाल है कि यदि लोकतंत्र जनता द्वारा, जनता के लिए है तो क्या उसे उसकी जिंदगी पर प्रभाव डालने वाले महत्वपूर्ण फैसले नहीं करने चाहिए? बिल्कुल सही सवाल, लेकिन इसका उत्तर तो यह है कि प्रातिनिधिक लोकतंत्र में वे यह भारत में हर पांच साल में- करते ही हैं अपने प्रतिनिधि चुनकर। लोकतंत्र में लोग ही सबसे ऊपर हैं, लेकिन वे अपनी संप्रभुता संसद के मार्फत व्यक्त करते हैं, जो उनकी इच्छाओं को परिलक्षित करने के लिए ही गठित होती है। यदि नेता जनता से संपर्क खो देंगे तो उन्हें अगले चुनाव में बेदखल किया जा सकता है।
इस तरह जनमत संग्रह से निर्णय करने का अर्थ है राजनीतिक वर्ग द्वारा उन लोगों की ओर से सूचना आधारित फैसले लेने की प्रमुख जिम्मेदारी से मुंह मोड़ना, जिनके लिए वे काम करते हैं। महत्वपूर्ण राजनीतिक प्रश्न 'यह या वह' के जवाबों पर नहीं छोड़ेजाते। हमेंभारत में जनमत संग्रह से बचना चाहिए।
(येलेखक के अपने विचार हैं।)

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