Monday 4 July 2016

खत्म करें लाभ का पद (फैजान मुस्तफा)

छिड़ गया है ‘‘लाभ के पद’को लेकर विवाद। इस बार दिल्ली विधान सभा के इक्कीस विधायकों की विधायकी दांव पर लग गईहै। ये विधायक आम आदमी पार्टी (आप) से सम्बद्ध हैं। इनको दिल्ली सरकार के विभिन्न मंत्रालयों के तहत संसदीय सचिव के रूप में सम्बद्ध किया गया था। राष्ट्रपति ने उस बिल को लौटा दिया है, जो इनकी विधान सभा में सदस्यता को बचाने की गरज से पारित किया गया। और अब चुनाव आयोग ने इन्हें तलब करके अपना मामला उसके समक्ष रखने को कहा है क्योंकि राष्ट्रपति उनकी सदस्यता केवल चुनाव आयोग की सिफारिश पर ही समाप्त कर सकते हैं। इसी आधार पर जया बच्चन को 2006 में राज्य सभा की सदस्यता खोनी पड़ी थी। सोनिया गांधी को यूपीए-एक के दौरान राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की चेयरपर्सन होने के चलते लोक सभा की सीट से इस्तीफा देकर राय बरेली से पुन: चुनाव लड़ना पड़ा था। विचित्र बात यह है कि ‘‘लाभ का पद’ की कोईपरिभाषा नहीं है। हालांकि इसे लेकर 1950 के बाद से ही जब-तब विवाद पैदा होते रहे हैं। इन विवादों ने कईबड़े राजनेताओं को प्रभावित किया है। आखिर, ‘‘लाभ का पद’ ग्रहण करने पर हमें किसी को अयोग्य करने की जरूरत क्या है? इन शब्दों का वास्तव में तात्पर्य क्या है? अदालतों ने इनकी व्याख्या किस तरह से की है? ‘‘आप’ विधायकों का भविष्य क्या है? कुछेक सवाल हैं, जिनके जवाब मिलने ही चाहिए। भारत ने लोकतंत्र के संसदीय स्वरूप को अंगीकार किया था क्योंकि यह ब्रिटेन की संसदीय पण्राली के समान था। ‘‘वेस्टमिनिस्टर शैली’ के लोकतंत्रमें ‘‘सत्ता के पृथकीकरण’के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता क्योंकि सरकार और संसद निकटता से एक-दूसरे से जुड़े होते हैं। दरअसल, राष्ट्रपति (सरकार का प्रमुख) से आशय संसद में राष्ट्रपति से है। सरकार का मुखिया होने के नाते प्रधानमंत्री लोक सभा में बहुमत प्राप्त पार्टी का नेता होता है। संविधान के अनुच्छेद 102 तथा 191 में ‘‘लाभ का पद’ को लेकर अयोग्य ठहराने संबंधी व्यवस्था की गईहै ताकि विधायिका की स्वतंत्रता सुनिश्चित की जा सके और सरकार पदों का लालच देकर विधायिका को प्रभावित न करने पाए। बाद में संसद ने 1958 में पार्लियामेंट (प्रिवेंशन ऑफ डिस्क्वालिफिकेशन) एक्ट पारित किया। इसमें कईबार संशोधन किए जा चुके हैं ताकि ‘‘लाभ का पद’संबंधी अयोग्यता की परिधि से बाहर छूटे ज्यादा से ज्यादा पदों को इस एक्ट के तहत लाया जा सके। भारत सरकार और राज्य सरकारों के तहत सैकड़ों ऐसे पद हैं, जिन्हें ‘‘लाभ का पद’ से छूट मिली है। मसलन, नेता प्रतिपक्ष, मुख्य सचेतक, योजना आयोग, अल्पसंख्यक तथा महिला आयोग के अध्यक्ष। वर्ष 2006 में 55 पदों की नईश्रेणियों को छूट प्रदान की गई। मसलन, दलित सेना, मौलाना आजाद एजुकेशन फाउंडेशन, डॉ. अंबेडकर फाउंडेशन, वक्फ बोर्ड, मंदिर ट्रस्ट, अन्य अनेक निगम, आयोग और बोर्ड। वर्ष 2013 में एस और एसटी आयोगों को भी इसी प्रकार छूट दी गई। हमारे जैसे संसदीय लोकतंत्र में ‘‘लाभ का पद’ के कारण अयोग्य ठहराने में खामियां दिखलाई पड़ती हैं क्योंकि सभी मंत्री तथा संसद में बहुमत पक्ष के सदस्य सत्ताधारी पार्टी यानी सत्ता पक्ष ही होते हैं। अवधारणात्मक अवलम्बन लेकर कह सकते हैं कि संसद को सरकार पर नियंतण्ररखना चाहिए, लेकिन तय यह है कि संसद नहीं बल्कि सरकार ही है जो संसद पर नियंतण्ररखती है। ‘‘लाभ का पद’ग्रहण करने पर सदन की सदस्यता के अयोग्य करार देने से सांसदों की स्वतंत्रता सुनिश्चित नहीं की जा सकती। तय यह है कि सदन के सदस्य कभी भी सरकार से इतर नहीं हो सकते। न सरकार ही अपनी पार्टी के सदन में सदस्यों से ही पूरी तरह से मुक्त हो सकती। ‘‘लाभ का पद’ जब कहा जाता है, तो इसमें तीन तत्व निहित होते हैं-यानी यह कोईपद होना चाहिए; सरकार के तहत होना चाहिए; और यह ऐसा होना चाहिए जिससे इसके धारक को लाभ मिलता हो। अब लाखटके का सवाल है कि ‘‘लाभ’क्या है? सुप्रीम कोर्ट ने अगाथा संगमा मामले में व्यवस्था दी थी, ‘‘लाभ का आशय उस आर्थिक लाभ से जो खर्च के लिए देय से इतर होता है, और जिसके पाने से कोईव्यक्ति इस लाभ को पहुंचाने वाली कार्यपालिका के प्रभाव में आ सकता है।’ सिबू सोरेन मामले में अदालत ने स्पष्ट किया कि शब्दों के फेर में न पड़ते हुए जान लें कि आर्थिक फायदा ‘‘लाभ’ होता है। इसलिए मानदेय कहने भर से सदस्यता नहीं बचाई जा सकती। ‘‘लाभ का पद’के प्रावधान के तहत अगर कुछभुगतान देय है, तो यह अयोग्य करार देने के लिए पर्याप्त है। दूसरी तरफ, अगर कोई, जैसे कि केरल हज कमेटी के अध्यक्ष, यात्रा भत्ता या दैनिक भत्ता प्राप्त करता हो तो वह अयोग्य करार नहीं दिया जा सकता क्योंकि ये भुगतान आर्थिक नहीं, बल्कि क्षतिपूर्ति सरीखे हैं। बहरहाल, इस तर्क में दम है कि राजनेताओं को ये पद यों ही थमा दिए जाते हैं, और कईदफा उन्हें बहुत थोड़ा मौद्रिक लाभ भी हो जाता है। पद, रुतबा, सत्ता और प्रभाव का अहसास कराने को दे दिए जाते हैं, लेकिन अदालत इस तर्क से सहमत नहीं होती। इसलिए दिल्ली सरकार ने 14 मार्च, 2015 को जारी बयान में स्पष्ट किया था कि सरकार की ओर से इन 21 संसदीय सचिवों को कोई मेहनताना या अनुलाभ नहीं दिया जाएगा। इसलिए लगता नहीं कि उनकी सदस्यता खत्म हो। लेकिन मुख्यमंत्री के तहत ‘‘संसदीय सचिव’ का पद दिल्ली अयोग्यता कानून, 1997 के तहत छूट प्राप्त है, जिसे 2006 में संशोधित किया गया। लौटाए गएबिल में मुख्यमंत्री के बाद मात्र ‘‘मंत्री’ शब्द जोड़ा गया था। बेहतर होता कि इससे स्वीकृति दी गई होती। सच तो यह है कि यह संशोधन जरूरी नहीं था क्योंकि मुख्यमंत्री स्वयं एक मंत्री ही हैं, भले ही वह ‘‘समान पदधारियों में प्रथम’ हैं, लेकिन अरविंद केजरीवाल ने अतिरिक्त सतर्कता बरतते हुए इसे पारित कराकर मुसीबत मोल ले ली। (लेखक नलसार लॉ यूनिवर्सिटी, हैदराबाद के वाइस चांसलर हैं(RS)

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