Saturday 9 July 2016

गंगा को निर्मल-अविरल बनाने का सपना (सुशील कुमार सिंह)

मई 2014 के शासनकाल से ही मोदी सरकार की महत्वाकांक्षी परियोजना में नमामि गंगे को भी देखा जा सकता है। इतने ही समय के नियोजन के बाद अंतत: केंद्रीय जल संसाधन मंत्रलय ने उत्तराखंड एवं उत्तर प्रदेश समेत गंगा बेसिन के सभी पांचों रायों में नमामि गंगे नामक इस ड्रीम प्रोजेक्ट को हरिद्वार से प्रारंभिकी दे दी है। प्रथम गंगा एक्शन प्लान से अब तक हजारों करोड़ रुपये गंगा सफाई पर खर्च किए जा चुके हैं। यह सच है कि आशातीत परिणाम नहीं मिले, पर देखा जाय तो इसे लेकर चुनौती इतनी बड़ी है कि इसके लिए भागीरथ प्रयास की जरूरत पड़ेगी। गंगा ऋग्वैदिक काल से ही अनमोल रही है और इसे लेकर बहुत कुछ पहले भी पढ़ा-लिखा गया है।
गंगी की सफाई से जुड़े पहले के प्रयासों को विस्तार से देखें तो यह औपनिवेशिक काल से ही चिंता का सबब रही है। महामना मदन मोहन मालवीय और ब्रिटेन के बीच वर्ष 1916 में इस मसले को लेकर एक समझौता हुआ था। औपनिवेशिक सत्ता से मुक्ति के बाद बुनियादी ढांचों के निर्माण एवं मरम्मत में पूरा सरोकार झोंकने के चलते गंगा सफाई को लेकर गंभीरता मानो समाप्त हो गई। हालांकि उस दौर में औद्योगिकरण एवं नगरीकरण का प्रवाह धीमा होने के चलते गंगा मैली होने का सिलसिला भी कमजोर रहा। 1991 में उदारीकरण के बाद जिस तीव्रता से गंगा के बेसिन में विकास की बयार बही तथा नगरों, महानगरों एवं औद्योगिक इकाइयों की जिस कदर बाढ़ आई उसके चलते प्रति दिन लाखों लीटर पड़ने वाले कचरे का निस्तारण केंद्र जीवनदायनी गंगा हो गई। अर्थात गंगा निरंतर कूड़ा-कचरा, सीवेज, औद्योगिक इकाइयों के अपशिष्ट पदार्थो से लेकर जानवरों और मानव के शव का पोषण केंद्र बन गई।
इन सबके बीच लंबा वक्त निकल गया और गंगा की सफाई को लेकर की गई चिंता भी कमोबेश बढ़ती गई। सरकारें आईं-गईं, पर गंगा को निर्मल कर पाने में किसी ने असरदार काम नहीं किया। मौजूदा प्रधानमंत्री मोदी अपने चुनावी काल में भी गंगा को लेकर काफी संवेदना से भरे दिखाई देते थे। प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने बाकायदा इसके लिए एक अलग गंगा सरंक्षण मंत्रलय का निर्माण ही कर दिया, जिसका कार्यभार उमा भारती के पास है। हालांकि वे केंद्रीय जल संसाधन मंत्री भी हैं। बीते सात जुलाई को हरिद्वार के ऋषिकुल मैदान में मोदी सरकार के ड्रीम प्रोजेक्ट की चुनौती को उपल}िध में बदलने की कसरत शुरू हुई। गंगा की साफ-सफाई और सौंदर्यकरण की कई योजनाओं का खाका तो यहां गढ़ा ही गया, साथ ही 43 परियोजनाओं के शुभारंभ के बाद इसके निर्मल और अविरल बनाने के सपने को पंख भी दिया गया। परियोजना के तहत 250 करोड़ रुपये का बजट दिया गया है। इस बजट से हरिद्वार, श्रीनगर, देवप्रयाग, रूद्रप्रयाग, केदारनाथ गंगोत्री और यमुनोत्री में कार्य संभव होगा। 2525 किलोमीटर गंगा कहीं-कहीं यह आंकड़ा 2510 का भी है, देश की सबसे लंबी नदी है जिसे संप्रग सरकार के दिनों में राष्ट्रीय नदी का दर्जा मिला था। गंगा बेसिन का विस्तार 10 लाख वर्ग किलोमीटर से अधिक है जो भारत के कुल क्षेत्रफल का लगभग एक तिहाई और 40 फीसद जनसंख्या यहां प्रवास करती है। जाहिर है कि गंगा की गाथा सदियों से न केवल संस्कृति के धरोहर के रूप में, बल्कि सभ्यता को फलने-फूलने के मौके के रूप में देखा जाता रहा है। मां का संबोधन पाने वाली गंगा उत्तराखंड में 450 किलोमीटर, उत्तर प्रदेश में एक हजार किलोमीटर, जबकि बिहार एवं झारखंड में क्रमश: 405 एवं 40 किलोमीटर का विस्तार लिए हुए है। अंतिम प्रांत पश्चिम बंगाल में यह 450 किलोमीटर बहती है। इसकी दर्जनों सहायक नदियां भी हैं, पर सब अपशिष्ट के चलते बहुत बोङिाल हो गई हैं, जिसकी कीमत आज भी गंगा को चुकानी पड़ रही है।
गंगा सफाई का पूरा सच तीन दशक पुराना है। इसकी शुरुआत वर्ष 1981 में उसी बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से देखी जा सकती है, जिसके निर्माता महामना मदन मोहन मालवीय थे जिन्होंने गंगा की सफाई को लेकर अंग्रेजों से पहली बार समझौता किया था। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में 68वें विज्ञान कांग्रेस का आयोजन इसी वर्ष हुआ था, जिसके उद्घाटन के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी विश्वविद्यालय में उपस्थित थीं। इनके साथ कृषि वैज्ञानिक और योजना आयोग के सदस्य डॉ. एमएस स्वामीनाथन भी थे। इसी समय गंगा प्रदूषण को लेकर पहली शासकीय चिंता और चर्चा देखने को मिलती है। तत्पश्चात उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्रियों को निर्देश जारी किए गए कि गंगा प्रदूषण रोकने के लिए एक समग्र कार्ययोजना शुरू करें। इस पहल को गंगा को गुरबत से बाहर निकालने के एक मौके के रूप में देखा जाने लगा। लगा कि मैली गंगा अब निर्मल गंगा हो जाएगी। समय और परिस्थितियां बदलीं, राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में प्रथम गंगा एक्शन प्लान के तहत पांच सौ करोड़ सफाई के लिए स्वीकृत भी किए गए।
रोचक यह भी है कि उन दिनों के लोकसभा के चुनाव में कांग्रेस ने इसे अपने चुनावी एजेंडे में भी शामिल किया था। दरअसल यह विचार आया कहां से उसकी कहानी भी पूरी होनी चाहिए। असल में राष्ट्रपति द्वारा पर्यावरण मित्र पुरस्कार प्राप्त कर चुके प्रोफेसर बीडी त्रिपाठी उन दिनों बीएचयू के वनस्पति विज्ञान विभाग में गंगा पर्यावरण विषय पर अनुसंधान कर रहे थे। इन्हीं के दिमाग की उपज आज गंगा निर्मल करने का अभियान बन गई है। हालांकि वर्ष 1981 में ही सांसद एसएम कृष्णा ने पहली बार संसद में इस मसले पर प्रश्न भी उठाया था। दूसरा गंगा एक्शन प्लान भी आया, जिसके लिए 12 सौ करोड़ रुपये स्वीकृत किए गए। पहले एक्शन प्लान से ही कानपुर, काशी, पटना सहित कई स्थानों पर सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट से सफाई को लेकर जोर-आजमाइश भी चल रही थी, पर आशातीत सफलता कोसो दूर थी। उस समय उच न्यायालय ने अनुकूल सफलता न मिलने के चलते इसे रोकने का आदेश भी दिया था।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नमामि गंगे को एक बार फिर बड़ी आशा की दृष्टि से देखा जा रहा है। संभव है कि मोदी के नेतृत्व में इस बार वह सफलता मिले जिसका बीते तीन दशकों से इंतजार है, पर सियासत न हो तब। जिन प्रदेशों में गंगा बहती है उनमें केवल झारखंड में ही भाजपा की सरकार है। ऐसे में अन्य सरकारों का समन्वय गंगा सफाई के लिए बड़े काम का साबित होगा, पर नमामि गंगे को लेकर गैर भाजपाई की तरफ से आई टिप्पणी निर्मल गंगा को लेकर समुचित करार नहीं दिया जा सकता। 30 बरस सफाई करते-करते बीत चुके हैं। जाहिर है, अपशिष्टों के चलते गंगा हांफने लगी है। हाल ही में सवरेच न्यायालय ने भी गंगा सफाई पर अप्रसन्नता जाहिर की, यहां तक कह दिया कि इस तरह तो गंगा को साफ होने में दो सौ साल लगेंगे। साथ ही यह भी कहा कि पवित्र नदी के पुराने स्वरूप को यह पीढ़ी तो नहीं देख पाएगी, कम से कम आने वाली पीढ़ी तो ऐसा देखे। सवाल है कि कोशिशों के बावजूद ऐसी क्या खामी है कि सफाई के नाम पर मामला ढाक का तीन पात ही रहा।
आरोप है कि सरकारों ने गंगा के सवाल पर अधिक आवेश दिखाया। साथ ही सरकारें अदूरदर्शी भी रहीं। इतना ही नहीं वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों के प्रमाणित अनुसंधानों को दरकिनार करके गंगा को निर्मल बनाने की बेतुकी कोशिश की गई और लगभग सात हजार करोड़ जनता के टैक्स का पैसा पानी में बहा दिया गया। नमामि गंगे को लेकर जिस प्रकार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी संवेदनशील प्रतीत होते हैं उसे देखते हुए यह अलख जगती है कि इस बार गंगा सफाई को लेकर किया गया नियोजन और होमवर्क कहीं अधिक वैज्ञानिक और तार्किक है। अंतत: आशा से भरी बात यह है कि सियासत से परे यदि सत्ता, सरकार और जनता साथ रही तो इसी पीढ़ी में निर्मल गंगा संभव होगी।
(लेखक रिसर्च फॉउंडेशन ऑफ प}िलक एडमिनिस्ट्रेशन के निदेशक हैं)(DJ)

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