Friday 29 July 2016

दक्षिणी चीन सागर : ड्रैगन का दावा निरस्त प्रशांत सिंह

बारह जुलाई, 2016 को हेग स्थित पर्मानेंट कोर्ट ऑॅफ आर्बिट्रेशन (स्थायी मध्यस्थता न्यायालय) ने जो फैसला दिया है, वह फिलीपींस और चीन के मध्य दक्षिण चीन सागर में समुद्री क्षेत्रको लेकर अरसे से चले आ रहे विवाद में रुख मोड़ देने वाला साबित हो सकता है। कोर्ट ने फिलीपींस के तर्क को उचित ठहराते हुए उसके पक्ष में फैसला दिया है। हालांकि कोईऐसा तरीका नहीं है, जिसके जरिए इस फैसले को लागू कराया जा सके। यद्यपि तत्काल कुछ नाटकीय नहीं होने जा रहा ,लेकिन इतना पक्का है कि यह एक प्रमुख घटना है। अल्पकालिक तौर पर इस फैसले से चीन के तेवर स्वाभाविक रूप से तीखे और आक्रामक हो सकते हैं, क्योंकि यह फैसला चीन की ‘‘प्रतिष्ठा को आघात’पहुंचाने वाले फैसले के रूप में देखा जा रहा है। घरेलू राजनीतिक मजबूरियां भी दक्षिण चीन सागर में समुद्री क्षेत्रीय विवाद में अन्य दावेदारों और पश्चिम में उनके समर्थकों के प्रति चीन की सरकार को कड़ा रुख दिखाने को विवश कर सकती हैं। दीर्घकालिक तौर पर देखें तो यह फैसला हालात के रुख मोड़ देने वाला साबित हो सकता है। चीन को आत्मनिरीक्षण करने और दक्षिण चीन सागर में अपने दावों को तार्किक आधार पर परखने को विवश कर सकता है। हालांकि मौजूदा स्थिति में ऐसा होना मुश्किल जरूर दिखलाई पड़ रहा है, लेकिन यह असम्भव नहीं है। बहरहाल, इस पर सबकी नजर रहेगी कि क्या यह फैसला चीन के रुख को नरम करता है, या स्थिति को और भी जटिल बना देने वाला साबित होगा। फिलीपींस, जो दक्षिण चीन सागर समुद्री क्षेत्रमें चीन के साथ विवाद में उलझा हुआ है, ने वियतनाम, मलयेशिया और ब्रुनेई के साथही गैर-मान्यता प्राप्त दावेदार ताइवान के साथ जनवरी, 2013 में मध्यस्थता के लिए कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। उसने पंद्रह-बिंदु वाला अपना पक्ष (चीन के खिलाफ तर्क) रखा। इन पंद्रह-बिंदुओं को चार प्रमुख हिस्सों में वर्गीकृत किया जा सकता है : दक्षिण चीन सागर में चीन के ऐतिहासिक अधिकार और इसकी ‘‘नाइन-डेश लाइन’ की वैधता, विवादास्पद क्षेत्रकी भौगोलिक विशिष्टताओं, चीन की कार्रवाइयों की विधिसंगतता, चीन द्वारा विवाद को भड़काना और समुद्री पर्यावरण को नुकसान पहुंचाया जाना। हालांकि दक्षिण चीन सागर में समुद्री क्षेत्र का यह विवाद अरसे से चला आ रहा है, लेकिन फिलीपींस का जनवरी, 2013 में यकायक कोर्ट में पहुंचने का कारण चीन की हालिया गतिविधियां थीं। उसने क्षेत्रमें अपनी गश्त बढ़ा दी थीं, उसकी सैन्य एवं असैन्य गतिविधियां बढ़गई थीं, उसने सामरिक ढांचों का क्षेत्रमें निर्माण करना आरंभ कर दिया था, क्षेत्र के खनिज संसाधनों का दोहन करने लग पड़ा था और इनके अलावा नागरिक और वाणिज्यिक प्रकार की तमाम गतिविधियों का संचालन करने लगा था।कह सकते हैं कि फैसले ने ‘‘नाइन-डेश लाइन’ की विधिक वैधता और ऐतिहासिकता, जो चीन के इस क्षेत्रमें अपनी संप्रभुता के दावों का आधार हैं, को जांच-परख कर निरस्त कर दिया। यह भी कहा कि ‘‘स्प्रेटली आईलैंड्स में हाई-टाइड विशिष्टताएं विधिवत ‘‘चट्टानें’ (द्वीप नहीं) हैं, जो कोई विशेष आर्थिक क्षेत्रया कंटिनेंटल सेल्फ नहीं बनातीं।’ इस प्रकार इस फैसले ने चीन को कथित द्वीप होने के दावे की आड़ में अपनी समुद्री सीमाओं को बढ़ाने की जानी-बूझी हरकतों के लिए उसे झिड़की लगाई है। कोर्ट ने चीन को इस समुद्री क्षेत्र में उसके अविवेकी व्यवहार से विवाद को और भड़काने तथा क्षेत्र की सुरक्षा की स्थिति को खराब करने का दोषी भी पाया है। यकीनन, फिलीपींस ने इस फैसले पर प्रसन्नता जतलाईहै। चीन की क्या प्रतिक्रिया क्या होनी थी, पहले से ही अनुमान लगाया जा सकता था। चीन ने तो यह फैसला देने के कोर्ट के क्षेत्राधिकार और सक्षमता पर ही सवाल उठा दिया था। उसने कोर्ट के अधिकार क्षेत्र को चुनौती देते हुए किसी भी रूप में इसकी कार्यवाही में शिरकत करने तक से इनकार कर दिया था। चीन के विदेश मंत्रालय ने इस फैसले को ‘‘बाध्यकारी’न होने की बात कही है। राष्ट्रपति जि झिनपिन ने एक बयान में कहा है : ‘‘अनंतकाल से दक्षिण चीन सागर द्वीप चीन के क्षेत्र रहे हैं। चीन की क्षेत्रीय सम्प्रभुता और समुद्री क्षेत्र के हितों को किसी भी सूरत में किसी फैसले से प्रभावित नहीं किया जा सकता।’ फैसला आने के एक दिन पश्चात चीन ने अपना एक ेतपत्र जारी किया जिसमें फिलीपींस के साथ समुद्री विवाद को लेकर उसने अपना रुख ही दोहराया था। जापान के विदेश मंत्रालय ने इस फैसले को ‘‘अंतिम और बाध्यकारी’ करार दिया। अमेरिकी विदेश विभाग ने भी कहा कि ‘‘यह फैसला चीन और फिलीपींस, दोनों के लिए ही अंतिम और बाध्यकारी है।’ हालांकि भारत ने ‘‘अंतिम और बाध्यकारी’शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया है, लेकिन उसने अपील की है कि यूएन कंवेंशन ऑन द लॉ ऑफ द सी’ के साथचला जाए जिसके तहत इस मामले की सुनवाईकी गई थी। बहरहाल, कोर्ट के फैसले से चीन की स्थिति कमजोर हुई है। वह कोर्ट की वैधानिकता और उसकी न्यायिक प्रक्रिया को चुनौती नहीं दे सकता। यह कोर्ट अनेक नियंतण्र और क्षेत्रीय संस्थानों में अग्रणी स्थान रखता है। इसके खिलाफ कुछ कहने पर निश्चित ही चीन की नियंतण्र स्तर पर स्थिति नाजुक हो जाएगी। इस विवाद में वह विश्व भर के देशों की नजरों में कठघरे में खड़ा नजर आएगा। इस फैसले से चीन के राजनयिक और आर्थिक तकाजों से लबरेज प्रयास भी भोथरे साबित हो सकते हैं। हालांकि वह इस प्रकार के प्रयास करने को तत्पर दिखलाईपड़ता है। इस फैसले को अपने देश में ही शी झिनपिन की छवि धूमिल करने वाले फैसले के रूप में देखा जा रहा है। बहरहाल, इस फैसले ने चीन के तेवर कड़े जरूर कर दिएहैं, लेकिन दीर्घकाल में देखा यह जाना है कि क्या चीन अपने रुख में नरमी लाता है, या इस क्षेत्रको जटिल बना देने की ओर अग्रसर होता है। (लेखक आईडीएसए से संबद्ध हैं)(RS)

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