Friday 29 July 2016

ट्रम्प की लोकप्रियता में हमारे लिए सबक (चेतन भगत )

पिछले हफ्तेडोनाल्ड ट्रम्प आखिरकार औपचारिक रूप से अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के लिए रिपब्लिकन पार्टी के प्रत्याशी मनोनीत हो गए। चुनाव इस साल के अंत में होने हैं। ट्रम्प ने पिछले कुछ महीनों में अपनी बढ़त मजबूत की है। हालांकि, एक साल से भी कम समय पहले अपनी व्यापक रिसर्च और विश्वसनीयता के लिए ख्यात अमेरिकी मीडिया घरानों ने ट्रम्प के अभियान को एक मजाक, विसंगति और नाकामी बताकर खारिज कर दिया था। जल्दी ही ट्रम्प के पक्ष में आकड़े जुटने लगे तो उसी मीडिया ने इस बार उन्हें नस्लवादी, लिंगवादी और कर्कश व्यक्तित्व बताकर खारिज किया।
इस बीच ट्रम्प अपने सत्ता प्रतिष्ठान विरोधी विद्वेषपूर्ण, राजनीतिक रूप से गलत और 'हे, ईश्वर मुझे भरोसा ही नहीं होता, ऐसा कहा उन्होंने' किस्म के प्रचार अभियान पर डटे रहे, जिसमें आप मोटे लोगों को मोटे नहीं कहते (आप उन्हें बड़ा कहते हैं, फिर इसका जो भी अर्थ हो)। श्रेष्ठतम कॉलेज जिन्हें आईवी लीग कहा जाता है, वहां पढ़े लोगों दशकों के अनुभव वाले अमेरिकी मीडिया ने इसे अस्थायी सनक के रूप में देखा। उसे लगा कि अभियान में ट्रम्प का पतन अपरिहार्य और अासन्न है। आप ऐसी फर्जी हेयरस्टाइल के साथ अमेरिका के राष्ट्रपति कैसे बन सकते हैं? इसके बावजूद ट्रम्प एक प्राइमरी के बाद दूसरी प्राइमरी जीतते रहे और अब अमेरिकी राष्ट्रपति पद के चुनाव में दो में से एक उम्मीदवार हैं। ट्रम्प की जीत अमेरिका के लिए अथवा व्यापक विश्व के लिए अच्छी होगी या नहीं, इस बारे में मेरा कोई दृष्टिकोण नहीं है, क्योंकि यह बहुत ही जटिल बहस का विषय है। इसी तरह कोई यह नहीं कह सकता कि वे जीत ही जाएंगे। यह सही है कि अंतिम दो उम्मीदवारों में से एक होने का मतलब है कि उनके पास वाकई जीत का मौका तो है। यहां इस चिंतन का उद्‌देश्य यह समझने की कोशिश करना है कि कैसे दुनिया के अत्याधुनिक मीडिया घराने इतने गलत साबित हुए? मूल परिकल्पना यह थी कि केवल अशिक्षित, नादान और उलटी दिशा में चलने वाले मूर्ख ही ट्रम्प को समर्थन दे रहे हैं, लेकिन यह सोच पूरी तरह गलत साबित हुई। मौजूदा जनमत संग्रह के आकड़े देखें तो करीब आधा अमेरिका ट्रम्प का समर्थन कर रहा है। अब यह नामुमकिन-सी बात है कि दुनिया के सबसे शक्तिशाली राष्ट्र में तो छोड़ो किसी भी देश में इतने सारे मूर्ख लोग हों।
ट्रम्प के उदय को देखने में मीडिया क्यों चूक गया, इसके कई कारण हैं। एक, मीडिया में उदारवादी भरे हैं, जो प्राय: एलीट यानी श्रेष्ठि वर्ग के स्कूलों से आए होते हैं, जिनमें एक खास किस्म का विश्व दृष्टिकोण होता है। फिर ये लोग अपने टेलीविजन चैनल या अखबार में कनिष्ठ लोगों की भर्ती करते हैं, जिनका दृष्टिकोण उन्हीं की तरह होता है। समय के साथ ये मीडिया घराने एक जैसी सोच वाले उदारवादियों का अनैतिक-सा समूह बन जाता है, जिनका आम लोगों से कोई संपर्क नहीं होता। यही लोग प्राय: कहते रहते हैं, 'हर कोई ट्रम्प से नफरत करता है'। नहीं, हर आदमी उनसे नफरत नहीं करता। केवल आपके क्यूबिकल के आस-पास मौजूद लोग, वे लोग जो काम के बाद आपसे ड्रिंक पर मिलते हैं और फेसबुक पर आपके दोस्त ही उनसे नफरत करते हैं। आप मानें या मानें यह बहुत ही छोटा बुलबुला है कि 'हर कोई।'
मजे की बात है कि यही प्रधानमंत्री पद पर मोदी के चुनाव के दौरान हुआ। 2011 और 2012 में देश के लगभग सारे अंग्रेजी मीडिया के लिए प्रधानमंत्री पद के गंभीर प्रत्याशी तो छोड़िए, मोदी तो उनके लिए अवांछित व्यक्ति थे। उनकी लोकप्रियता, उदय और आकर्षण को कई बरसों तक पहचानने में चूक होती रही और आखिरकार मीडिया ने खुद में सुधार किया और आम भावना को समझा। अब ट्रम्प के उभार की काफी बेहतर ढंग से व्याख्या की जा सकती है। जरूरत से ज्यादा छवि-प्रबंधन वाले राजनीतिक प्रतिष्ठान से अमेरिकी उकता गए हैं। वे हर समय राजनीतिक रूप से सही होने की शैली से ऊब गए हैं, क्योंकि इसके कारण अमेरिकी बनावटी हो गए हैं और ज्यादातर समय वे जो महसूस करते हैं, उसे व्यक्त नहीं कर पाते। अमेरिकी आबादी के निम्न आर्थिक तबकों को लगता है कि मौजूदा सारे राजनेता धूर्त मक्कार हैं और वे उनकी जिंदगी में कोई सुधार नहीं ला सकते। ट्रम्प में जो सुरुचि संपन्नता का अभाव (श्रेष्ठि वर्ग के मुताबिक) नज़र आता ै वह वास्तव में उन्हें निम्न आर्थिक वर्गों में प्रिय बनाता है, क्योंकि इसकी वजह से ये तबके अन्य किसी प्रत्याशी की बजाय उनसे खुद को जोड़ पाते हैं। जहां तक ट्रम्प के फर्जी दावों, अतिशयोक्तियों और विद्वेषपूर्ण हमलों की बात है तो यह सच है, लेकिन यह कोई अलग बात नहीं है। 'उच्च वर्ग और सुरुचि' के नेता भी तो यही करते रहे हैं। इसमें हम भारतीयों और भारतीय मीडिया के लिए महत्वपूर्ण सबक है। भारत में वर्गों के बीच विभाजन रेखा बिल्कुल स्पष्ट और गहरी हैं। आमतौर पर विभिन्न भारतीय आर्थिक वर्ग आपस में उससे बहुत कम मिलते-जुलते हैं, जितना वे अमेरिका में ऐसा करते हैं। यदि अमेरिका का एलीट मीडिया ट्रम्प के उदय को पहचानने में गलती कर सकता है तो भारतीय मीडिया से ऐेसा होने की और भी संभावना है। पहले ही भारतीय मीडिया पर सोशल मीडिया को गहरा अविश्वास है। 'प्रेस्टीट्यूट' जैसी अपमानजनक शब्दावली इसी अविश्वास से उपजी है, जो हालांकि अनुचित है, बताती है कि आम लोगों को लगता नहीं है कि मीडिया उनका प्रतिनिधित्व करता है।
मीडिया घरानों और राजनीतिक दलों को चाहिए कि वे हमेशा अपना एक कान धरती से लगाकर रखें ताकि देश की सामाजिक भावनाअों को समझ सकें। उदाहरण के लिए हार्दिक पटेल का आंदोलन लीजिए। वह िजस तेजी से फैला उसने हर किसी को चौंका दिया। मीडिया घराने को सिर्फ एलीट दिल्ली यूनिवर्सिटी के स्नातकों (जो, बेबाकी से कहें तो, विचित्र कटऑफ मानकों के साथ अब केवल किताबी कीड़ों को ही ले रहे हैं) को ही लेने के लिए बेचैन नहीं रहना चाहिए बल्कि उन लोगों को लेना चाहिए, जिन्हें भारत की समझ है। राजनीतिक दलों को मालूम होना चाहिए कि जनता क्या चाहती है और क्या वह खुश है बजाय इसके कि वे सिर्फ मीडिया रिपोर्टों पर भरोसा करें। लोगों के रूप में हमें भी अपने वॉट्सएप ग्रुप और फेसबुक बबल से परे जाकर देखना चाहिए कि दुनिया हकीकत में कैसी है।
(येलेखक के अपने विचार हैं।)(दैनिक भास्कर )
संदर्भ... राजनीतिकदलों एवं समाचार माध्यमों की सोच और जमीनी हकीकतों से जुड़ने की जरूरत

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