Friday 29 July 2016

तब हमें सीमा पार करनी चाहिए थी (जी डी बख्शी, मेजर जनरल (रिटायर्ड)

आज कारगिल विजय दिवस है। आज भी जब अपने शहीद सैनिकों को हम श्रद्धांजलि देते हैं, तो वह सारा घटनाक्रम आंखों के सामने आ जाता है। सन 1999 में पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल परवेज मुशर्रफ ने कारगिल का अपना पासा फेंका था। नॉर्दर्न लाइट इन्फेंट्री (पाकिस्तानी सेना की एक रेजीमेंट) की पांच पलटनें सीमा पार से घुसपैठ कराई गईं। श्रीनगर-कारगिल-लेह सड़क को वे अपनी जद में लेना चाहती थीं। लाहौर बस यात्रा के एकदम बाद इस एकाएक हमले ने भारत को चौंका दिया था। हमारी खुफिया एजेंसियों को इसका कोई इल्म न था। सबसे पहले अंदाजा यही लगाया गया कि वे आतंकवादी हैं। मगर जब वहां से हमले शुरू हुए और हमने भारी नुकसान उठाया, तो हमें इसका एहसास हो गया कि हमलावर आतंकी नहीं, बल्कि पाकिस्तानी फौज के जवान हैं।
दुश्मन की ताकत को देखकर सेना ने हवाई हमले की मांग की। उस समय के विदेश मंत्री जसवंत सिंह का मत था कि हमें हवाई ताकत का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए, क्योंकि इससे युद्ध का विस्तार हो सकता है। ठीक यही भूल हमने 1962 में भी की थी। अपनी हवाई ताकत का इस्तेमाल न करने की वजह से ही उस युद्ध में हमें बुरी तरह शिकस्त खानी पड़ी थी। इतिहास अपने को दोहरा रहा था। हमारे सेना प्रमुख जनरल वीपी मलिक तब पोलैंड की यात्रा पर थे। वापस आते ही उन्होंने स्थिति का जायजा लिया। तब तक जाहिर हो गया था कि नॉर्दर्न लाइट इन्फेंट्री की तकरीबन पांचों पलटनें हमारे क्षेत्र में घुस आई हैं। उन्होंने पहाड़ी इलाके में तमाम ऊंची चोटियों पर कब्जा जमा लिया था और लेह-कारगिल सड़क को अपने निशाने पर ले रखा था।
उस समय हमारे पास दो विकल्प थे। पहला, सीमा पार करके इस क्षेत्र में व दूसरे क्षेत्रों में भी पलटवार करना और दुश्मन को उल्टे पांव भागने पर मजबूर करना। इस रणनीति में अंदेशा यह था कि करीब 10 दिनों के अंदर ही हम पर सीजफायर के लिए भारी दबाव आ जाता। दस दिन में कारगिल की ऊंचाइयों को खाली कराना असंभव था। इसलिए कोई भी सीजफायर कारगिल की चोटियों को दुश्मन के कब्जे में छोड़ देता।
दूसरा विकल्प था, अपने ही क्षेत्र में जवाबी हमला करके दुश्मन को वापस खदेड़ना। इसमें भारी जानी नुकसान का अंदेशा था। पहाड़ों में ऐसा ऑपरेशन कम से कम दो या तीन महीने लेता है। इसके लिए भारी तोपखाने और हवाई सहयोग की जरूरत थी। अंतत: फैसला किया गया कि हम सीमा पार नहीं करेंगे और अपने ही क्षेत्र में रहकर जवाबी हमला करेंगे। इससे अंतरराष्ट्रीय समुदाय में हमारे संयम की प्रशंसा होगी, क्योंकि दोनों देशों के पास परमाणु हथियार मौजूद थे। अपनी किताब में जनरल मलिक ने कहा है कि अगर यह फ्रंटल हमला कामयाब नहीं होता, तो उनकी योजना सीमा के पार वार करने की थी।
सरकार ने विचार-विमर्श के बाद जो आदेश दिए, उसमें साफ कहा गया कि सीमा पार न करें। मगर हवाई हमलों की छूट दी गई। भारी गोलीबारी के बाद हमारी इन्फेंट्री ने सीधे हमले शुरू किए। उन्हें भारी नुकसान उठाना पड़ा। मगर हिम्मत के साथ इंच-दर-इंच और गज-से-गज हमारे जांबाज लड़ते हुए आगे बढ़ने लगे।
यह सच है कि हमारी वायुसेना सीमा पार हमले के लिए तैयार थी। मगर सरकारी आदेश के जरिये उसके हाथ-पैर बांध दिए गए थे। पहले हवाई हमलों में दुश्मन की जमीन से हवा में मार करने वाली मिसाइलों से हमें काफी नुकसान पहुंचा और हमारे दो जेट फाइटर व एक हेलीकॉप्टर को मार गिराया गया। लिहाजा वायुसेना ने ऊंचाई से हमले शुरू किए। इससे निरंतरता में काफी फर्क पड़ा और कई बम लक्ष्य से हटकर गिरे। तब वायुसेना ने लेजर निर्देशित बम का इस्तेमाल शुरू किया। बाद में आम बमों पर जीपीएस मार्गदर्शन उपकरण लगाकर बमवर्षा की कारगरता को बढ़ाया गया। मगर सीमा न पार करने की विवशता के कारण हमारी वायु सेना को काफी अड़चनों का सामना करना पड़ा।
फिर भी हवाई हमलों का भारी मनोवैज्ञानिक असर पड़ा। दुश्मन हेलीकॉप्टर का इस्तेमाल नहीं कर सका। उसे रसद पहुंचाने में भी भारी दिक्कतें पेश आईं और अंतत: उसका मनोबल टूटने लगा। हमने दुश्मन की हर पलटन के जवाबी हमले के लिए 100 तोपें तैनात कर दीं। भारी गोलाबारी से दुश्मन हिल गया। फिर हमारी इन्फेंट्री के जांबाज दुर्गम पहाड़ों पर चढ़कर दुश्मन के पांव उखाड़ने में कामयाब हुए। कारगिल में हमारे लगभग 500 जांबाज शहीद हुए। पहली सफलता हमें तोलोलिंग पर मिली। उसके बाद एक-एक करके दुश्मन की चौकियां गिरने लगीं। जनरल वीपी मलिक का कहना है कि अगर हमें तोलोलिंग की सफलता नहीं मिलती, तो फिर फौज को सीमा पार करने के लिए बाध्य होना पड़ता।
बहरहाल, हमारे जवानों की बहादुरी और उनका दृढ़ निश्चय रंग लाया, और हम भारी कीमत पर दुश्मन को वापस धकेलने में सफल हुए। दुनिया भर ने सीमा न पार करने के हमारे संयम की प्रशंसा की। एक परमाणु ताकत होने के बाद भी पाकिस्तान का रवैया अत्यंत गैर-जिम्मेदाराना था, अमेरिका ने जमकर उसकी भर्त्सना भी की। पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को भागकर वाशिंगटन जाना पड़ा। वहां उन्हें निर्देश मिला कि अपनी तमाम फौजें वह सीमा पार से तुरंत वापस करें।
कई सामरिक विशेषज्ञों का मानना है कि सीमा पार न करना हमारी भूल थी। पाकिस्तान की फौज को लगा कि परमाणु हमला करने की उसकी धमकी कारगर रही और भारत ने पलटवार नहीं किया। अपने ज्यादातर इलाकों को खाली कराके पाकिस्तान को सबक सिखाने के लिए हम सीमा पार कर सकते थे।
इससे पाकिस्तान को यह चेतावनी मिलती कि वह इस प्रकार का दुस्साहस नहीं कर सकता। हमारे सीमा पार न करने के कारण 2001 में पाकिस्तान ने फिर हमारी सीमा पर हमला किया। ऑपरेशन पराक्रम हुआ और एक बार फिर हम सीमा के पार नहीं गए। पाकिस्तान ने शायद इससे गलत निष्कर्ष निकाला। असल में, कारगिल युद्ध में हमारी मूल रूप से दो गलतियां कही जाएंगी। पहली, खुफिया एजेंसियों की नाकामी। हमें पता ही नहीं चला कि पाकिस्तान हमले की तैयारी कर रहा है। और दूसरी, सीमा पार न करने का आदेश। हमें तब सीमा पार करके पलटवार करना चाहिए था। मुश्किल यह है कि सेना में अब भी वही हालात हैं। यानी जो कुछ है, उसी से युद्ध करो। अत्याधुनिक हथियारों व तोपों आदि को लेकर हमने कोई खास प्रयास नहीं किया। दुखद है कि कारगिल का यह सबक हमने अब तक नहीं सीखा है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)(हिन्दुस्तान )

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