Saturday 23 December 2017

कैसे 2जी घोटाले के फैसले से निकला प्रॉसिक्यूशन घोटाला (कल्पेश याग्निक ) (dainik bhaskar)


2जी फैसले से हैरान समूचा राष्ट्र इसे सरल रूप से समझना चाहता है। किन्तु कानून और न्याय की उलझी, जटिल भाषा, प्रक्रिया और तरीके आसान नहीं हैं।
फिर भी एक प्रयास।
क्या सारे आरोपी नेता, अफ़सर, पूंजीपति सुबूतों-गवाहों के अभाव में छोड़ दिए गए हैं?
- हां। क्या कोर्ट ने इन्हें 'बेनिफिट ऑफ डाउट' देकर छोड़ा है? - नहीं। फिर?
- अन्य मुकदमों से हटकर है इसीलिए यह केस।
कोर्ट ने सुबूत-गवाह पेश कर पाने पर सीबीआई को कड़ी फटकार लगाई है। किन्तु फैसले के कई बिन्दु बताते हैं कि वह संदेह का लाभ नहीं दे रही। कोर्ट ने स्पष्ट कहा है कि कोई घोटाला हुआ ही नहीं। समूचे प्रॉसिक्यूशन को कोर्ट ने बुरी तरह लताड़ा है।
वास्तव में देखा जाए तो 2जी घोटाला, निश्चित ही घोटाला था। आने वाले समय में ऊंची अदालतों में सबकुछ सामने आएगा।
किन्तु इस मुकदमें में यह प्रॉसिक्यूशन घोटाला बनकर सामने आया है।
कैसे?
एक-एक कर देखते हैं :
जो सबसे महत्वपूर्ण निष्कर्ष फैसले से निकले हैं वे हैं -
कोर्ट ने कहा - इसमें इतनी विरोधाभासी बातें, इतना भ्रम, इतनी अस्पष्ट पॉलिसी थी कि कोई कुछ समझ ही नहीं पा रहा था। इसी कारण कुछ अफ़सरों ने 'कुछ चुनिंदा तथ्यों को बढ़ाचढ़ा कर पेश किया। जिससे लगा कि यह महाघोटाला है। '...व्हाइल देयर वॉज़ नन।'
सीबीआई और ईडी क्यों 80 हजार पन्नों की चार्जशीट में भी इसे घोटाला सिद्ध नहीं कर पाए - यह तो आश्चर्य का विषय है ही किन्तु इस निष्कर्ष को थोड़ा और समझना होगा।
आखिर ऐसा क्या भ्रम पैदा कर दिया था टेलीकॉम मंत्रालय के अफ़सरों ने?
फैसले में ही उदाहरण हंै :
1. ये यूनीफाइड एक्सेस लाइसेंस थे। जो बंटने थे। उनका परिचय और जो जोड़ा गया (एडेन्डम) वो फाइल डी 591 में थे।
2. सारा झगड़ा 'फर्स्ट कम, फर्स्ट सर्व' की पॉलिसी पर था। इनका विस्तृत वर्णन डी 592 फाइल में था।
3. ट्राई की सिफारिशों की फाइल डी 5 थी।
4. किन्तु जिन लाइसेंस आवेदकों को ट्राई की सिफारिशों के इंतज़ार में प्रक्रिया से रोकना है, वह सब फाइल डी 44 में था। इसमें अहम निर्णय थे।
5. सॉलिसिटर जनरल को क्या भेजा क्या भेजना है, यह डी 7 फाइल में था।
6. घोटाले का सबसे बड़ा आधार कट-ऑफ तारीख को पिछली तारीख में बदलना था। इस कट ऑफ डेट की फाइल डी 6 थी।
7. टेलीकॉम मंत्री ए. राजा और प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के बीच चला पत्र-व्यवहार -जो राजा के निजी सचिव और आरोपी आर.के. चांदौलिया ने भेजा था- वह डी 598 फाइल में था।
यानी इतनी सारी फाइलें अलग-अलग बना दी गई थीं कि कोई भी किसी एक पॉलिसी पर निर्णय नहीं ले सकता था। सबकुछ 'मेस्ड-अप' था।
यही नहीं, कई ऐसे शब्द थे, जो कोर्ट ने पकड़े हैं कि हर अफ़सर उन शब्दों का अलग अर्थ समझ रहा था। कोई एक अर्थ नहीं बताया गया था। जबकि वही स्पैक्ट्रम-लाइसेंस देने का महत्वपूर्ण आधार था। जैसे-क्लाॅज़ 8 था। इसमें शब्द था : सब्सटेंशियल इक्विटी। ऐसे ही असोसिएट, प्रमोटर, स्टेक- कई शब्द थे। कंपनियों की पात्रता इस घोटाले का बड़ा मुद्दा रहा है। इन शब्दों को तोड़ने-मरोड़ने से पात्रता बन सकती थी। बिगड़ सकती थी।
यहां एक बड़ा प्रश्न है।
इतना सारा भ्रमजाल क्या केवल ग़लती से फैल गया? क्या कोई एक-दो अफ़सर इन पर काम कर रहे थे? क्या कभी किसी ने इनका अर्थ जानने की कोशिश नहीं की?
कोर्ट सुबूत-गवाह मांगती है। जो सौ प्रतिशत ठोस बात है। कानून यही है।
किन्तु न्याय यहां चीखकर कहता है कि इतना भ्रम फैलाया ही इसलिए गया ताकि घोटाला किया जा सके! कोई भी निर्णय ले सके। हर बात के लिए मंत्री या उनके द्वारा तय किए गए एक-दो अफ़सरों के पास ही जाना पड़े।
अब सीबीआई-ईडी इसे सिद्ध करने में विफल रहीं - यह उसकी ग़लती है। उसकी कमजोरी है।
और भी देखना चाहिए -
कट-ऑफ डेट का मामला। टेलीकॉम मंत्रालय ने 24 सितंबर 2007 को सार्वजनिक प्रेस ोट जारी किया था। कि 1 अक्टूबर 2007 अंतिम तारीख रहेगी स्पैक्ट्रम के आवेदन की। 10 जनवरी 2007 को दो प्रेस नोट जारी किए गए। पहले में कहा अंतिम तारीख 25 सितंबर 2007 तय की गई है। दूसरा प्रेस नोट दोपहर में जारी किया। कहा - इच्छुक कंपनियां आज ही 3.30 से 4.30 बजे के बीच सारी कागज़ी कार्रवाई कर लें। इस पर शुरू से निगाह रखे फाइनेंशियल एक्सप्रेस के सुनील जैन ने विस्तार से बताया है कि कैसे उसी दिन जमा कराए गए कुछ डिमांड ड्राफ्ट तो बहुत पुरानी तारीखों में, एडवांस बने पड़े थे। स्पष्ट है, उन्हें पहले ही सूचना लीक हो गई होगी!
अब सीबीआई उन ड्राफ्ट की कॉपियां क्यों नहीं निकाल पाईं? क्यों इन प्रेस नोट्स को कोर्ट में नहीं रख पाई? कोई तो पूछेगा उन से? जज ने पूछा तो प्रॉसिक्यूशन जवाब दे सका।
कोर्ट ने तो कट-ऑफ डेट पर लम्बी कार्रवाई की। राजा, जो इस पर चारों ओर से घिरे हुए थे, ने तीन कारण गिनाए - पहला कि फालतू प्लेयर्स को हटाने के लिए। दूसरा कि लम्बी लाइन लग चुकी थी, और बढ़े। तीसरा कि ट्राई ने कहा था कि आवेदन की तारीख से एक माह पहले।
पाठकों के लिए जानना महत्वपूर्ण होगा कि कोर्ट ने राजा की इस सफाई पर क्या कहा?
कोर्ट ने कहा : दीज़ वर गुड रीज़न्स। सीबीआई ने इसे 'अपराधिक षड्यंत्र कहा था। कोर्ट ने कहा : यह षड्यंत्र नहीं, बल्कि प्रशासनिक पहल थी।
अब सीबीआई या प्रॉसिक्यूशन उन तमाम अफ़सरों की गवाही और तारीख बदलकर शाहिद बल्वा और अन्य पूंजीपतियों को फायदा पहुंचाने की बात क्यों सिद्ध नहीं कर पाई, वही बता सकती है। किन्तु कुछ तथ्य हैं जो हैरान कर देने वाले हैं -
राजा के निजी सचिव रहे आचार्य ने गवाही दी थी कि डीबी ग्रुप के बल्वा- गोयनका राजा से तब से संपर्क में थे जब वे पर्यावरण मंत्री थे। आचार्य ने कहा - वे दोनों कोई 20 बार राजा से मिले थे।
आश्चर्यजनक है कि सीबीआई या प्रॉसिक्यूशन क्यों पर्यावरण मंत्रालय के रेकॉर्ड पेश नहीं कर सके। क्योंकि यह सामान्य प्रक्रिया है कि मंत्री से मिलने जाने वालों का मंत्रालय और सरकारी बंगले-दोनों में रेकॉर्ड होता ही है। जैसा कि सीबीआई डायरेक्टर रहे रंजीत सिन्हा का मिला था।
हां, बाद में टेलीकॉम मंत्री रहते राजा से मिलने जाने वाले लाइसेंस आवेदकों के लिए यह सुविधा की जाना कोई बड़ी बात नहीं है कि एंट्री की ही जाए। या अन्य नाम से की जाए।
किन्तु कानून में ऐसा नहीं चलेगा। बल्कि कानून तो इस पर भी कुछ सिद्ध नहीं कर सकता कि कोई 20 बार मिला, इसलिए ही उसे स्पैक्ट्रम मिल गया।
'पहले आओ, पहले पाओ' पर घोटाले का दारोमदार है। आरोप पत्र में है कि राजा ने इसे पहले आओ, पहले फीस जमा कराओ तो पाओ कर दिया। इस पर कोर्ट ने कहा - किसी भी गवाह ने ऐसा नहीं कहा कि जानबूझकर, किसी को फ़ायदा पहुंचाने के लिए ऐसा किया गया।
कोर्ट ने प्रॉसिक्यूशन की भर्त्सना करते हुए कहा कि सिंगल-स्टेज पॉलिसी को उसने मल्टी-स्टेज बनाकर पेश किया।
यहां वैसा ही प्रश्न है।
पॉलिसी में जानबूझकर इतना भ्रम पैदा किया गया। ताकि कोई इसे आसानी से लागू कर सके। अन्यथा 'पहले आओ' की जगह नीलामी वाली पारदर्शी नीति की सलाह तो कानून मंत्रालय, वित्त मंत्रालय और प्रधानमंत्री कार्यालय से भी दी गई थी। वो लागू क्यों नहीं की राजा या अफ़सरों ने?
सीबीआई या प्रॉसिक्यूशन क्यों सिद्ध नहीं कर पाया इतनी सी बात कि मात्र कट ऑफ तारीख पीछे करने से ही राजा ने कुल 575 आवेदकों में से एक झटके में 408 बाहर कर दिए। और इसीलिए पहले आओ में जैसे ही पहले फीस भरो का क्लॉज़ आया, कई बाहर हो गए।
कोर्ट क्यों प्रॉसिक्यूशन की बातें मानेगा? कानून में परिस्थितिजन्य साक्ष्य तभी मानने की विवशता होती है जब सारे साक्ष्य अनुपस्थित हों। और अपराध हुआ दिख ही रहा हो।
यहां तो अपराध का 'अ' भी नहीं सिद्ध कर पाया प्रॉसिक्यूशन।
जबकि पहले फीस से एक और आरोप याद आया। एंट्री फीस बढ़ाई नहीं। इस पर यह कानूनन माना गया कि 2003 में सिर्फ 51 लाइसेंस बंटे थे। फीस बढ़ाते इस बार तो और कम हो जाते। यदि स्पर्धा बढ़ानी ही थी -जो कि कोर्ट भी मान रही है- तो राजा कम क्यों कर रहे थे? ये तो विरोधाभासी तथ्य हैं। प्रॉसिक्यूशन इसे क्यों नहीं उठा पाया?
वास्तव में सीबीआई, ईडी, इनकम टैक्स, सबकी दिशा अलग-अलग हो गई थी। कैग विनोद राय 1.76 लाख करोड़ के नुकसान के आंकड़े पर अड़े रहे - जो खुद सीबीआई ने 30 हजार करोड़ कर दिया। जो इसलिए समझ में आता है चूंकि कानून विचार या अनुमान पर नहीं चल सकता।
गवाह-सुबूत हैं। जनरल सीनियर पब्लिक प्रॉसिक्यूटर अनेक कागज़ों पर हस्ताक्षर करने से बचते रहे। कहा स्पेशल पब्लिक प्रॉसिक्यूटर करेंगे। उनसे पूछा तो वो कहने लगे - सीबीआई करेगी।
इस ग़ैर-जिम्मेदारी

No comments:

Post a Comment