Monday 18 December 2017

देश के लोक विश्वविद्यालय हैं भिखारी ठाकुर (सदानंद शाही प्रोफेसर, काशी हिंदू विश्वविद्यालय )


लोक आज अपने ढंग से, अपने कलाकार भिखारी ठाकुर को फिर याद कर रहा है। कुतुबपुर से लेकर छपरा तक पूरा लोकमन भिखारीमय है। भिखारी ठाकुर जैसे जन-कवि, जन-नाटककार के लिए यह सच्ची श्रद्धांजलि है। भिखारी ठाकुर से कभी पूछा गया था कि वे कैसे तय करते हैं कि उनकी रचना कम या ज्यादा अच्छी है। भिखारी ठाकुर ने जवाब दिया, ‘लोगों की भीड़ देखकर’। उनके लिए न कोई काव्यशास्त्र मानक था और न नाट्यशास्त्र। जनता के कवि की कसौटी सिर्फ और सिर्फ जनता की उपस्थिति थी। भिखारी ठाकुर के नाटकों के दौरान जनता की उपस्थिति नितांत भिन्न किस्म की होती थी। दर्शक कब नाटक के पात्र में बदल जाता और पात्र में बदलकर नाटक की कहानी में शामिल हो जाता था, इसकी उसे सुधि ही नहीं होती।
भिखारी ठाकुर के जीवन पर केंद्रित अपने उपन्यास सूत्रधार में संजीव बताते हैं कि हजारीबाग में कहीं बेटी बेचवा नाटक की प्रस्तुति हो रही थी, जिसे देख दर्शक फूट-फूट कर रोने लगे। वहां बेटी बेचने की परंपरा थी। नाटक के दूसरे दिन हजारों लोगों की सभा हुई, जिसमें शिव की प्रतिमा पर हाथ रखकर बेटी न बेचने की कसम खाई गई। यानी भिखारी ठाकुर के दर्शकों ने इलाके से इस कुप्रथा के खात्मे की जिम्मेदारी ले ली। बेटी बेचवा नाटक का असली नाम बेटी वियोग है। बेटी बेचवा नाम तो समाज में बेटी बेचने की प्रथा से दुखी जनता ने अपनी ओर से दिया था। पाठक या दर्शक द्वारा रचना के नामकरण की यह मिसाल भी अनूठी है। कहने की जरूरत नहीं कि बेटी बेचने की प्रथा का संबंध गरीबी और भुखमरी से है। गोदान में प्रेमचंद भी बता चुके हैं, जब होरी को इसी कारण अपनी बेटी रूपा को बेचना पड़ा था।
सारे हास्य और प्रहसन के बावजूद भिखारी ठाकुर के नाटकों में करुणा की एक गहन अंतर्धारा बहती है, जिसका संबंध स्त्री की व्यथा से है। बिदेसिया से लेकर बेटी वियोग, ननद-भौजाई, विधवा विलाप और गबर-घिचोर जैसे नाटक पूरब की स्त्री की पीड़ा की दास्तान हैं। आर्थिक दिक्कतें पतियों को परदेश जाने पर मजबूर करती हैं और घर में अकेली छूट गई स्त्री का जीवन तमाम संकटों से घिर जाता है। बिदेसिया में भिखारी ठाकुर हमें इसका एहसास कराते हैं। वे हमें यह भी बताते हैं कि किस तरह विधवा के लिए लागू होने वाले विधि-निषेधों का संबंध घर की संपत्ति से है। विधवा के विलाप के मूल में संपत्ति की चिंता है। इसका संबंध भी गरीबी से है। लेकिन ऐसा नहीं कि भिखारी ठाकुर की स्त्रियां सिर्फ विलाप करना ही जानती हैं। वे अपने हक के लिए लड़ती और तर्क भी करती हैं। बेटी बेचवा की उपातो की पिता से उलाहना और बाद में यह चेतावनी कि फिर ऐसा काम नहीं करना, इसका उदाहरण है। पति के प्रवासी होने से पर-पुरुष के फंदे में फंसी औरतों की कहानी गबर-घिचोर को जन्म देती है, जहां सहज तर्कों से पुरुष सत्ता को चुनौती देती स्त्री बड़ी मजबूती से खड़ी दिखाई देती है। उनकी तमाम रचनाएं ऐसे ही संघर्ष का बयान हैं, जहां स्त्री न सिर्फ मजबूत, बल्कि विवेकशील भी होकर उभरती है।
भिखारी ठाकुर जब गांव लौटे, तो वृद्धों के लिए आवास बनवा रहे थे। गांव में सब कुछ भुलाकर लौटे थे कि वे कितने बड़े कलाकार हैं या उन्हें कितना सम्मान प्राप्त है। भूल तो वे यह भी चुके थे कि कभी अंग्रेज सरकार ने उन्हें राय बहादुर की उपाधि दी थी। महत्वपूर्ण है कि जो राय बहादुरी बडे़-बड़े सामंती खानदानों का उपनाम बन जाती थी, उसे भिखारी ठाकुर सहज ही भूल जाने देते हैं। दरअसल, भिखारी ठाकुर मुकम्मल कलाकार ही नहीं, मुकम्मल मनुष्य भी थे। दुर्भाग्य से हमारा कुलीन वर्ग इस कदर हीन-ग्रंथि से ग्रस्त है कि उपाधि, इनाम, इकराम के बिना उसे अपने मुकम्मल होने का एहसास ही नहीं होता। कई बार लगता है कि हमारे विश्वविद्यालयों में चलने वाले विमर्शों को ठेठ भारतीय होने के लिए भिखारी ठाकुर से बहुत कुछ सीखने की जरूरत है। सीखना यह भी होगा कि मुकम्मल मनुष्य होने के लिए बाहरी उपाधियां नहीं, भीतरी संपन्नता जरूरी है। कुतुबपुर और आसपास के उत्सव में जन-सहभागिता बताती है कि भिखारी ठाकुर जैसे लोक कलाकार ही भारत के असली विश्वविद्यालय हैं, जिनसे सीखे बिना हमारे विश्वविद्यालय अपने उद्देश्य में कामयाब नहीं हो सकते हैं। (हिंदुस्तान )
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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