Thursday 21 December 2017

दलबदल के खिलाफ नया नजरिया (ए. सूर्यप्रकाश)


उपराष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति एम. वेंकैया नायडू द्वारा राज्यसभा के दो सदस्यों, शरद यादव और अली अनवर की सदस्यता रद करने का फैसला और इस संबंध में दिए गए उनके तर्क ने दलबदल रोधी कानून में नए आयाम जोड़े हैं। इससे न सिर्फ इसके प्रावधानों को मजबूती मिली है, बल्कि कानून निर्माताओं के मूल इरादे भी सुदृढ़ हुए हैं। इसके अलावा उम्मीद है कि पीठासीन अधिकारियों पर भी दबाव पड़ेगा कि वे ऐसे मामलों की जांच-पड़ताल और निपटारा तीन महीने के अंदर करें। इन दोनों सदस्यों के खिलाफ दलबदल का मुद्दा कुछ इस तरह सामने आया। दरअसल कुछ महीने पहले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने चुनाव पूर्व लालू यादव के राष्ट्रीय जनता दल के साथ बने गठबंधन यानी महागठबंधन से अलग होकर भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन करने का फैसला किया किया। शरद यादव और अली अनवर, दोनों ने नीतीश कुमार के इस निर्णय का खुलेआम विरोध किया। इतना ही नहीं, बल्कि उन्होंने लालू यादव के साथ मंच तक साझा किया। उधर नीतीश कुमार को अपने फैसले के पक्ष में अपनी पार्टी के विधायकों और अन्य पदाधिकारियों का बहुतायत में समर्थन मिला। परिणामस्वरूप जनता दल (यू) ने बिना समय गंवाए शरद यादव को उच्च सदन यानी राज्यसभा में पार्टी नेता के पद से विमुक्त कर दिया और उनके और अली अनवर के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई आरंभ कर दी।
दलबदल रोधी कानून, जो कि संविधान की 10वीं अनुसूची का हिस्सा है, के पैरा 2 (1) में कहा गया है कि यदि कोई सदस्य ‘स्वेच्छा से अपनी पार्टी की सदस्यता त्याग दे’ या अपनी पार्टी लाइन से इतर जाकर सदन में वोट करे या वोटिंग के समय सदन से अनुपस्थित रहे तो वह अयोग्य ठहराया जा सकता है। यहां महत्वपूर्ण सवाल यह खड़ा होता है कि इन दोनों राज्यसभा सदस्यों का आचरण क्या अपनी पार्टी जनता दल (यू) की सदस्यता को ‘स्वेच्छा से त्यागने’ के अंतर्गत आता है? अपने खिलाफ कार्रवाई के विरोध में इन दोनों सांसदों ने तर्क दिया कि उन्होंने पार्टी का ‘स्वेच्छा से त्याग’ नहीं किया था। वास्तव में यह नीतीश कुमार थे, जिन्होंने पार्टी संविधान के ध्येय और उद्देश्यों का उल्लंघन करते हुए और पार्टी के सिद्धांतों की बलि चढ़ाते हुए ऐसा किया।
उन्होंने यह भी कहा कि दरअसल नीतीश कुमार का महागठबंधन से अलग होकर भारतीय जनता पार्टी के साथ जाने का फैसला ही जनता दल (यू) में टूट का कारण बना था और पार्टी में हुए विभाजन के बाद उनके गुट के पास पार्टी सदस्यों का पर्याप्त बहुमत था। सांसदों ने ऐसे तमाम तर्क देने की कोशिश की कि चुनाव पूर्व बने गठबंधन की शुचिता का उल्लंघन नहीं किया जा सकता, लेकिन महागठबंधन को एक राजनीतिक दल के बराबर खड़ा करने का उनका प्रयास सफल नहीं हो सका। वास्तव में दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग ने सिफारिश की है कि चुनाव पूर्व बने गठबंधन की पवित्रता बरकरार रखने के लिए दलबदल रोधी कानून में संशोधन किया जाना चाहिए। वह कहता है कि गठबंधन आज हकीकत बन गए हैं और ऐसे में चुनाव पूर्व बने गठबंधन को अपने सहयोगियों के साथ कानूनी रूप से बांधे रखने के लिए कुछ जरूरी प्रावधान किए जाने की आवश्यकता है। हालांकि संसद ने इस पर अभी तक सहमति नहीं दी है और उसने दलबदल रोधी कानून का विस्तार चुनाव पूर्व बने गठबंधन तक नहीं किया है और मौजूदा कानून सिर्फ केवल राजनीतिक दलों की बात करता है और उन्हीं पर लागू होता है।
संविधान की समीक्षा करने के लिए बने राष्ट्रीय आयोग ने भी जनप्रतिनिधियों द्वारा चुनाव लड़ने के लिए ऐन वक्त पार्टी बदलने पर रोक लगाने के लिए इस बात पर जोर दिया था।
सभापति ने इस आपत्ति को भी नजरअंदाज कर दिया कि जद-यू राज्यसभा में नए नेता का चुनाव कर रही है। दरअसल शरद यादव को हटाने के बाद जदयू से जुड़े बहुतायत सांसदों ने सदन में नए नेता का चुनाव किया था। इस संदर्भ में सभापति ने कहा कि मैं इस विषय को लोकतांत्रिक व्यवस्था के आईने में देख रहा हूं। लोकतंत्र में बहुमत का शासन होता है और उसी की आवाज सुनी जाती है और सुनी जानी भी चाहिए। इस मामले में उन्होंने यह भी कहा कि दोनों सांसद यह प्रमाण देने में असफल रहे कि पार्टी के विधायकों-सांसदों और पदाधिकारियों का बहुमत उनके साथ है। इसके अलावा नीतीश कुमार द्वारा महगठबंधन से अलग होने के फैसले की दोनों सांसदों द्वारा निंदा और जद-यू विरोधियों के साथ सार्वजनिक मंच साझा करना इस बात के पक्के सुबूत थे कि दोनों ने पार्टी विरोधी गतिविधियों में बड़ी भूमिका निभाई थी।
इस मामले में मुख्य जोर यह स्पष्ट किया जाना था कि क्या दोनों सांसदों ने ‘स्वेच्छा से पार्टी की सदस्यता त्यागी’ थी? सभापति ने इसके लिए सुप्रीम कोर्ट के दो फैसलों का सहारा लिया। राम नाईक बनाम संघ सरकार के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि ‘स्वेच्छा से अपनी सदस्यता त्याग देना’ का अर्थ इस्तीफा देना नहीं है, बल्कि इसका व्यापक अर्थ होता है। प्रत्यक्ष रूप से इस्तीफे के अभाव में एक सदस्य के आचरण से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि वह जिस पार्टी से जुड़ा है उसकी सदस्यता उसने ‘स्वेच्छा से त्याग’ दी है या नहीं? एक-दूसरे मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि राजनीतिक पार्टी की सदस्यता ‘स्वेच्छा से त्यागने’ का कार्य व्यक्त या अव्यक्त, दोनों रूपों में हो सकता है। हालांकि राम नाईक मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के पूर्व आठवीं लोकसभा की विशेषाधिकार समिति ने भी ‘स्वेच्छा से सदस्यता छोड़ने’ के सवाल का गहन परीक्षण किया था। तब समिति ने माना था कि इस संवैधानिक प्रावधान को संकीर्ण दायरे में नहीं देखा जाना चाहिए। उसने कहा था कि इसे संसद को ध्यान में रखते हुए परिभाषित किया जाना चाहिए। इसकी व्याख्या भी सी संदर्भ में होनी चाहिए, जिसके परिप्रेक्ष्य में इसका प्रयोग होता है। उसने अपनी रिपोर्ट में कहा था, ‘कानून निर्माताओं के इरादे बिल्कुल स्पष्ट हैं। इसमें न सिर्फ प्रत्यक्ष रूप से इस्तीफा देना शामिल है, बल्कि एक सदस्य द्वारा अपनी पार्टी की सदस्यता ‘स्वेच्छा से त्यागना’ भी समाहित है।
समिति के विचार हैं कि यदि एक सदस्य अपने व्यवहार से यह स्पष्ट कर देता है कि वह पार्टी अनुशासन से बंधा हुआ नहीं है यानी उससे मुक्त है और अपने आचरण से से नुकसान पहुंचाने को तैयार है तो उसे इसकी कीमत भी चुकाने के लिए तैयार रहना चाहिए।’ वेंकैया नायडू ने दलबदल रोधी मामलों के समय पर निपटाने की जरूरत का मुद्दा भी सामने ला दिया है। उन्होंने ऐसे मामलों को निपटाने में होने वाली अनावश्यक देरी के लिए कुछ पीठासीन अधिकारियों की हो रही भारी आलोचनाओं का भी हवाला दिया कि किस तरह वे दलबदलुओं को सांसद-विधायक बनाए रखने में मददगार साबित हो रहे हैं। हरियाणा विधानसभा बनाम कुलदीप बिश्नोई एवं अन्य के मामले में अध्यक्ष ने अयोग्य ठहराने की मांग करने वाली अर्जी का निपटारा करने में चार साल का समय लिया था। सभापति ने कहा कि ऐसे सभी मामले तीन महीने में निपटाए जाने चाहिए तभी दलबदल के दोष से छुटकारा पाया जा सकता है।(dainik jagran)
(लेखक प्रसार भारती के अध्यक्ष एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

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