Tuesday 19 December 2017

बच्चों के बचपन को बचाना मौजूदा समय की बड़ी चुनौती ( विशेष गुप्ता, प्राध्यापक, समाजशास्त्र )


पिछले डेढ़-दो दशक में सेवा क्षेत्र के विस्तार ने कामकाजी परिवारों की संख्या तेजी से बढ़ाई है। स्थिति यह है कि कामकाजी पति-पत्नी बच्चों तक की देखभाल के लिए समय नहीं निकाल पा रहे। ऐसे में, बच्चों के सीखने की उम्मीदें धराशाई हो रही हैं और ऐसे माहौल से निकले बच्चों की कल्पनाशीलता भी कमजोर पड़ रही है। एकल परिवारों में बच्चों के मां-बाप उन्हें ठीक से पाल-पोस नहीं पा रहे। दादा-दादी, नाना-नानी के साथ न रहने से यह पीढ़ी अपने अतीत के खट्टे-मीठे अनुभवों से भी वंचित हो रही है। अब नगरों व महानगरों के क्रेच यानी पालनाघर और प्ले-डे बोर्डिंग स्कूल तो ये कमियां पूरी करने से रहे। गौरतलब है कि मध्य वर्ग में, खासतौर पर कामकाजी एकल परिवारों में बच्चों को क्रेच अथवा डे बोर्डिंग स्कूलों में भेजने की प्रवृत्ति बढ़ी है। इन पालनाघरों में छह साल तक के बच्चों को उनके अनुसार माहौल उपलब्ध कराने कोशिश होती है। तीन साल तक की आयु के बच्चों को प्ले-वे लर्निंग व उसके बाद किताबी ज्ञान से रूबरू कराया जाता है। मगर इन संस्थाओं में भारी-भरकम फीस वसूली के बावजूद बच्चों के हितों से जुड़े कानूनों की अनदेखी आम है।
एकल कामकाजी परिवारों ने अपने बच्चे क्रेच में भेजने शुरू तो कर दिए, परंतु बेहतर निगरानी तंत्र न होने से वहां दो नुकसान साफ-साफ दिखते हैं। बच्चों के गुणात्मक विकास की जानकारी न तो इन संस्थाओं के पास रहती है, न ही अभिभावकों के पास। ये बच्चे मां-बाप के नैसर्गिक प्रेम व वात्सल्य से तो वंचित हो ही रहे हैं। बाल मनोविज्ञान बताता है कि पांच साल तक की उम्र बच्चों के विकास का सबसे संवेदनशील दौर होता है, जब वह परिवार और दुनियावी जिंदगी के बीच तालमेल बैठाता है। यही वह समय है, जब परिवार, समाज, प्रकृति, सामाजिक संबंध इत्यादि उसके भविष्य की दिशा तय करते हैं। निस्संदेह ये संस्थाएं कामकाजी परिवारों के लिए पैसे के बलबूते स्थानापन्न बनी हैं, परंतु ऐसे माहौल में पलने वाले बच्चों की सामाजिक, सांस्कृतिक और भावनात्मक नींव कमजोर हो रही है। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस के एक हालिया शोध के अनुसार, जो मां-बाप अपने बच्चों से सीधा संवाद नहीं रखते, ऐसे बच्चे पढ़ाई के साथ ही कामयाबी की दौड़ में पिछड़ जाते हैं। लेकिन आज का सच यही है कि काम के लंबे घंटों से उपजे तनाव को झेलता कामकाजी युगल बच्चों को समय ही नहीं दे पा रहा, उनसे संवाद करना तो दूर की बात है।
उनके लिए बच्चों के बड़ा होने का मतलब उनका जल्दी से समझदार बनना है। बस यह कि वे कंप्यूटर की भाषा जान जाएं, गणित का जोड़-घटाव सीखकर विजेता की कतार में आ जाएं। बच्चों के कल्पनालोक की उन्हें कोई परवाह नहीं। शायद यही कारण है कि आक्रामकता, गुस्सा और हिंसा जैसे नकारात्मक तत्व अब बच्चों के व्यक्तित्व के सामान्य अनुभव बन रहे हैं। स्कूल और घर की व्यवस्था में धीरे-धीरे एक आक्रोश अपनी पैठ बना रहा है। इस सच्चाई को न तो ये क्रेच और न ही इस शिक्षा व्यवस्था के संरक्षणकर्ता समझ पा रहे हैं। दरअसल, परिवार का विधिवत सामाजीकरण बच्चों के व्यक्तित्व को एक संरक्षण प्रदान करता रहा है, उस सीख के धीरे-धीरे कम होने से बच्चों के व्यक्तित्व में ये विकार पैदा हो रहे हैं। परिवार में बच्चों को संरक्षण, वात्सल्य और स्नेह का भाव जहां उन्हें सामूहिक सोच व आपसी जुड़ाव वाला बनाता है, वहीं उन्हें संरक्षण भी देता है। इसके अभाव में बच्चे या तो पलायनवादी बनते जाते हैं या फिर तनाव व अवसाद के शिकार हो जाते हैं। ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जहां बच्चों ने अपनी परीक्षाओं, खेल अथवा अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं में असफल होने पर अपने साथी की हत्या कर डाली या आत्महत्या कर ली।
यह समय भविष्य की वैश्विक जरूरतों और वर्तमान की गलाकाट होड़ के मद्देनजर बाल मनोविज्ञान को समझने का है। जरूरी है कि कामकाजी मां-बाप बच्चे को खुद समय दें, उनसे संवाद बनाकर उन्हें अपने भावनात्मक आंचल व वात्सल्य की छाया प्रदान करें। क्रेच या डे बोर्डिंग स्कूल कामकाजी जिंदगी अथवा समय की जरूरत को थोड़ा-बहुत भले पूरा कर दे, नैसर्गिक पारिवारिक और भावनात्मक माहौल देने में वे पूरी तरह असमर्थ हैं। मां-बाप को इस सच्चाई को गंभीरता से समझना होगा। (Hindustan)

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