Saturday 2 December 2017

इस उपनिवेशवाद को उखाड़ फेंकें (के विजयराघवन) (सचिव, बायोटेक्नोलॉजी विभाग, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय)

पूरी दुनिया में ताकत का एक बड़ा असंतुलन भाषा से पैदा होता है। नई खोज, इनोवेशन और विज्ञान व प्रौद्योगिकी की दुनिया पर यह हावी है। और यह भाषा कोई दूसरी नहीं, बल्कि अंग्रेजी है। पश्चिमी देश आज इसलिए बौद्धिक वर्चस्व हासिल कर सके, क्योंकि जिन समुदायों के बूते उन्होंने यह मुकाम हासिल किया है, उन्हें अपनी मूल भाषा से गहरा जुड़ाव होने के कारण ताकत मिलती रहती है। जिस भाषा में वे सोचते हैं, ख्वाब देखते हैं और दुनिया को गढ़ते हैं, वह उनकी अपनी भाषा है। इसी का परिणाम उन विचारों का जन्म है, जो दुनिया में बदलाव ला सकते हैं। जाहिर है, विज्ञान व तकनीक में यदि आप अपनी मातृभाषा का इस्तेमाल नहीं करते या उसे नहीं साध पाते, तो आप एक महान अनुयायी तो बन सकते हैं, पर अगुआ नहीं।
भारत ने राजनीतिक व आर्थिक उपनिवेशवाद को तो उखाड़फेंका, लेकिन इसका बौद्धिक उपनिवेशवाद अब तक खत्म नहीं हो सका है। देश में विज्ञान व प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अंग्रेजी को ही विमर्श की एकमात्र भाषा बनाकर हमने कई मोर्चों पर अपने लिए मुश्किलें खड़ी कर ली हैं। पहला, यदि अंग्रेजी अब भी उच्च बौद्धिक विमर्श की अकेली भाषा बनी रहती है, तो हमारे श्रेष्ठ संस्थान वैश्विक स्तर पर कभी नेतृत्व की भूमिका नहीं निभा सकेंगे। हमारे जहीन दिमाग बस दूसरों के विचारों से कतरब्योंत करके उसे हमारे सामने पेश करते रहेंगे। दूसरा, अंग्रेजी को तवज्जो देकर हम अपनी ही आबादी के बड़े वर्ग के लिए बौद्धिक नेतृत्व के दरवाजे बंद कर देते हैं। बौद्धिक मामले में हम दुनिया में कतई श्रेष्ठ नहीं हो सकते। यहां तक कि कुलीन वर्ग के रूप में भी हम उनके लिए दरवाजे बंद कर देते हैं। इसका एक नतीजा यह निकलता है कि प्रोफेशनल नेतृत्व हमारे समाज से पूरी तरह नहीं जुड़ पाता। इसीलिए, हम एक बेहतरीन बौद्धिक शक्ति बनने में सफल नहीं हो पा रहे। अभिजात्य वर्ग समाज से बाहर होता है और वह समाज के साथ उद्देश्य भी साझा नहीं करता। बदले में, हमारा समाज कुलीनवाद का जवाब उनकी शिक्षा व बौद्धिक उद्यमों को कमतर आंककर देता है।
विभिन्न देशों के ऐसे कई उदाहरण हैं, जिनमें उन्होंने विज्ञान व तकनीकी क्षेत्रों में बौद्धिक नेतृत्व के उभरते दिमागों की दोहरी चुनौतियों का हल सफलतापूर्वक निकाला है। आज भी वे गंभीर विमर्श के लिए अपनी मातृभाषा का इस्तेमाल करते हैं। जर्मनी में विज्ञान के छात्रों की मूल भाषा जर्मन है, फिर भी वे अंग्रेजी में दक्ष होते हैं। वहां की कई बेहतरीन प्रयोगशालाएं अंतरराष्ट्रीय स्तर की हैं और वहां विचार-विमर्श की भाषा के रूप में अंग्रेजी का इस्तेमाल भी हो सकता है। फिर भी, ज्यादातर एडवांस वैज्ञानिक विषयों में जर्मन वैज्ञानिकों को अपनी मातृभाषा में चिंतन करने का जो लाभ मिलता है, वह कम नहीं है। इसके विपरीत, भारत सहित वे तमाम देश, जिन्होंने वैज्ञानिक विमर्श की प्राथमिक भाषा अंग्रेजी तय कर रखी है, महज बौद्धिक पावरहाउस बनकर रह गए हैं।
जब कभी इस विषय पर चर्चा की जाती है, तो विश्वविद्यालयों में मातृभाषा के इस्तेमाल के खिलाफ दो तर्क दिए जाते हैं। पहला यह कि आज के युग में अंग्रेजी जरूरी है। यह एक वाजिब तर्क है, पर मातृभाषा में शिक्षा देने का मंतव्य अंग्रेजी को कमतर आंकना नहीं, बल्कि हर स्तर पर अपनी मातृभाषा के इस्तेमाल को कहीं बेहतर बनाना है। दूसरा तर्क यह दिया जाता है कि ऐसा करने से लक्ष्य को हासिल करना नामुमकिन होगा। यह तर्क गलत है और बहानेबाजी से भरा है। बहानेबाजी इसलिए कि हमेशा अंग्रेजी राग अलापने से भी हम बौद्धिक प्रभुत्व वाला मुल्क नहीं बन सकते। गलत इसलिए, क्योंकि फोकस रहकर और अधिक निवेश से लक्ष्य पाया जा सकता है।
सवाल यह है कि आखिर क्या किया जाए? अभी हमारे कॉलेजों में विज्ञान व तकनीकी विषयों के पठन-पाठन का ज्यादातर हिस्सा अंग्रेजी में है, जबकि उच्च-माध्यमिक शिक्षा स्थानीय भाषा में दी जाती है। इसीलिए कॉलेजों में विज्ञान विषय अधिकतर शहरी पृष्ठभूमि के छात्र पढ़ते दिखते हैं। जब ऐसा होता है, तो अंग्रेजी में शिक्षा जाहिर तौर पर न तो गुणवत्ता के रूप में और न ही अनुवाद के रूप में कक्षा में प्रभावी रह पाती है। हम चाहें, तो केंद्रीय और नवोदय विद्यालयों को आदर्श बना सकते हैं। यहां के शिक्षकों को ट्रेनिंग दी जा सकती है, ताकि वे छात्रों को अंग्रेजी और अपनी मातृभाषा, दोनों में समान रूप से पढ़ा सकें। हालांकि उच्च माध्यमिक स्कूलों में अभी ऐसा अनौपचारिक तौर पर होता है, पर इसे औपचारिकता का चोला पहनाना होगा। इतना ही नहीं, छात्र को किसी भी भाषा में परीक्षा देने की स्वतंत्रता मिलनी चाहिए या फिर उसे दोनों भाषा को मिलाकर परीक्षा की कॉपी लिखने की छूट मिले। यहां से हासिल होने वाले नतीजों को देखते हुए इस नजरिये को हमारे सभी श्रेष्ठ शिक्षण संस्थानों में लागू किया जाना चाहिए और सुखद नतीजा हासिल होने पर ही इसे व्यापक तौर पर लागू किया जाए। सरकारी और निजी कॉलेज एसटीईएम विषयों (विज्ञान, तकनीक, इंजीनियरिंग और गणित) में ऐसे प्रयास कर सकते हैं और द्विभाषीय व्यावसायिक शिक्षा को बढ़ावा दे सकते हैं। इस तरह वे इस शिक्षा को आकर्षक व आर्थिक रूप से व्यावहारिक भी बना सकेंगे। तकनीकी शिक्षा निश्चित तौर पर कार्यान्वयन में सहायता करती है, लेकिन इसका प्राथमिक उद्देश्य ‘बदलाव का वाहक’ बनना है।
कई भारतीयों के अंग्रेजीदां होने की वजह से मिलने वाली सुविधाओं से हमारे अंतरराष्ट्रीय सहयोगी हमारे प्रति विद्वेष की भावना रखते हैं। हमें इसे गंवाना नहीं है, पर यह क्षमता भी विकसित करनी चाहिए कि किस तरह जटिल व कठिन विषयों में हम दुनिया में सबसे बेहतर तरीके से चिंतन-मनन कर सकते हैं। और यह तभी हो सकता है, जब राजस्थान, केरल या ओडिशा जैसे क्षेत्रों में बौद्धिक समुदाय इतने दक्ष हों कि वे विज्ञान के प्रमुख विषयों पर अपनी भाषा में उसी तरह सोच सकें, जिस तरह फ्रेंच, डच या कोई जर्मन सोचता है। हमें अंग्रेजी को संवाद की भाषा नहीं बनाना चाहिए और इसका इस्तेमाल ‘वैचारिक ताकत’ के रूप में भी नहीं करना चाहिए।(हिंदुस्तान )
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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