Saturday 2 December 2017

फौज और मौलवियों के बीच फंसी पाक सरकार (वेदप्रताप वैदिक) )भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष)

मज़हब के नाम पर बना पाकिस्तान आज भी यह सिद्ध कर रहा है कि वहां सबसे बड़ी कोई ताकत है तो वह मज़हब ही है। मज़हबी ताकतों के आगे पाकिस्तान की फौज और सरकार को हाल ही में घुटने टेकने पड़े। जिस मज़हबी संगठन की सभी मांगों के आगे मत्था टेकना पड़ा, वह एकदम नया संगठन है। इस संगठन का नाम है तहरीके-लबायक या रसूल अल्लाह! इस नए संगठन की मांग थी कि पाकिस्तान के कानून मंत्री जाहिद हामिद इस्तीफा दें, क्योंकि उन्होंने सांसदों की शपथ में कुछ शब्द बदलवाकर ऐसा हेर-फेर कर दिया है, जो पाकिस्तान के ईश-निंदा कानून का सरासर उल्लंघन है और जिसकी सजा मृत्यु-दंड तक है।
हामिद ने कहा कि क्लर्क की गलती के कारण 'मैं निष्ठापूर्वक शपथ लेता हूं' की जगह छप गया कि 'मैं विश्वास करता हूं' कि मोहम्मद साहब आखिरी पैगंबर थे। सरकार ने अपनी गलती सुधारने की घोषणा भी कर दी। इसके बावजूद हजारों आंदोलनकारियों ने रावलपिंडी और इस्लामाबाद के रास्ते ठप्प कर दिए। पाकिस्तान के लगभग सभी शहरों में दो-तीन हफ्ते तक धरने जमा दिए। पंजाब प्रांत की सरकार ने इस आंदोलन को लाहौर से सरकाकर इस्लामाबाद तक पहुंचने दिया ताकि शाहबाज़ शरीफ की प्रांतीय सरकार के बजाय केंद्रीय सरकार उससे निपटे। यदि केंद्र सरकार शुरू में ही सख्त रवैया अपनाती तो तीन-चार हजार आंदोलनकारियों से निपटना मुश्किल नहीं था लेकिन, नए-नए प्रधानमंत्री शाहिद खाकान अब्बासी दुविधाग्रस्त रहे। उन्होंने कोई कड़ी कार्रवाई नहीं की, क्योंकि उनके सामने मुशर्रफ के जमाने में हुए लाल-मस्जिद कांड की मिसाल सामने थी।
लगभग तीन हफ्ते तक चले धरनों ने पाकिस्तान में इतनी अराजकता फैला दी कि इस्लामाबाद के उच्च न्यायालय को आदेश जारी करना पड़ा कि सरकार जल्द से जल्द इन धरनों से निपटे। सरकार ने पुलिस के 8000 जवान लगाकर धरने हटाने की कोशिश की। सात लोग मारे गए और करीब दो सौ लोग घायल हो गए। स्थिति बिगड़ती देखकर सरकार ने फौज से हस्तक्षेप का निवेदन किया लेकिन, सेनापति कमर जावेद बाजवा ने कह दिया कि 'दोनों पक्षों को हिंसा से दूर रहना चाहिए'। जब सरकार ने सेना के हस्तक्षेप के लिए ज्यादा जोर लगाया तो जनरल बाजवा ने साफ-साफ कह दिया कि पाकिस्तान की 'जनता फौज को प्यार करती है'। फौज अपने ही लोगों को कैसे मार सकती है? बाजवा का यह बयान अपने आप में अजूबा था, क्योंकि पाकिस्तानी फौज ने एक बार नहीं, कई बार सैन्य-हस्तक्षेप करके लोगों को मारा है। बांग्लादेश का निर्माण कैसे हुआ? सिंध, पख्तूनख्वाह, बलूचिस्तान और सीमांत-क्षेत्रों में पाकिस्तानी फौज ने कई बार बढ़-चढ़कर हस्तक्षेप किया है।
फौज की तटस्थता ने अब्बासी सरकार के दम फुला दिए। वह इतनी डर गई कि सरकारी चैनल के अलावा सारे टीवी चैनल दो दिन तक बंद कर दिए गए। फेसबुक, यू-ट्यूब और ट्विटर गायब हो गए। स्कूलों और कॉलेजों की छुट्‌टी कर दी गई। ऐसा लग रहा था कि अब्बासी सरकार अदालत के आदेश पर अमल ही नहीं कर पा रही है। ऐसे में फौज से वह काम करने के लिए कहा गया, जो वह कभी नहीं करती। सरकार के निवेदन पर जनरल बाजवा ने पहल की और आईएसआई (गुप्तचर विभाग) के एक मेजर जनरल को मध्यस्थ बनाया। उसने तहरीके-लबायक के नेता खादिम हुसैन रिज़वी के द्वारा रखी गईं छहों शर्तों को मान लिया। सारे दंगाइयों को माफ कर दिया गया। गिरफ्तार लोगों को रिहा कर दिया गया। पुलिस कार्रवाई पर जांच बिठाई जाएगी। कानून मंत्री को भी इस्तीफा देना ही पड़ा। गृहमंत्री एहसान इकबाल की भी काफी मरम्मत हुई। कहा जा रहा है कि खुद मियां नवाज़ शरीफ इस सारे कांड से बहुत दुखी हैं।
यह मामला खात्मे-नबूवत का नहीं, बल्कि खात्मे-हुकूमत का बन गया है। मियां नवाज़ शरीफ जुलाई में ही इस्तीफा देकर प्रधानमंत्री पद से अलग हो गए थे। 'पनामा पेपर्स' में मोटेतौर पर नवाज़ इतने दोषी नहीं थे कि अदालत उनके खिलाफ फैसला दे सके लेकिन, कहा जाता है कि उस फैसले के पीछे फौज की ताकत थी। नवाज़ के हट जाने से सरकार काफी कमजोर हो गई, क्योंकि अकेले नवाज़ अपने सारे मंत्रिमंडल के मुकाबले ज्यादा वज़नदार रहे हैं। इसके अलावा उनके छोटे भाई शाहबाज शरीफ की जगह अब्बासी को प्रधानमंत्री बना देना भी पार्टी में झगड़े की जड़ बन गया है। शाहबाज ने पंजाब के मुख्यमंत्री के तर पर नवाज़ की मुस्लिम लीग के सबसे बड़े गढ़ पंजाब को सुरक्षित रखा है। इस मौके पर वे प्रधानमंत्री होते तो वे शायद कामयाब हो जाते। वित्तमंत्री इशाक दर पर चले रहे भ्रष्टाचार के मुकदमे और हाफिज सईद की रिहाई ने भी इस सरकार की छवि को धूमिल कर दिया है। कुलमिलाकर आज पाकिस्तान में फौज का पाया मजबूत हो गया है। जनरल मुशर्रफ के जमाने में फौज की छवि को जो नुकसान हुआ था, उसकी भरपाई हो गई है। मुस्लिम लीग (नवाज़) की परेशानियों और फौज के उठान का सबसे ज्यादा फायदा इमरान खान की पार्टी (पीटीआई) को मिलने की संभावना है।
पाकिस्तान के कई अखबार और खासतौर से उच्च न्यायालय ने इस सारे मामले में फौज और सरकार की कड़ी आलोचना की है। जज शौकत अजीज सिद्‌दीकी ने सरकार को अकर्मण्य कहा और फौज से पूछा है कि उसका काम लड़ना है या मध्यस्थता करना है? हिंसक प्रदर्शनकारियों को दबाना फौज का काम है या उसके आगे घुटने टेकना? गुप्तचर विभाग के एक अफसर से ऐसा काम करवाया गया, जो गुप्तचरी के बिल्कुल विरुद्ध है। जज की इस टिप्पणी को मैं साहसपूर्ण जरूर मानता हूं लेकिन, उससे मैं सहमत नहीं हूं, क्योंकि यदि फौज ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल सही समय पर करके खून की नदियां बहने से रोकीं तो इसमें बुराई क्या है? हां, यह जरूर हुआ है कि इस सारे मामले ने पाकिस्तानी लोकतंत्र और कानून के राज की खिल्ली उड़ा दी है। लेकिन, हम यह भूलें कि पाकिस्तान ने अपने लोकतंत्र को लेकर कभी डींगे नहीं मारीं। मजहब और फौज का वर्चस्व होने के बावजूद पाकिस्तान के कई बुद्धिजीवी, न्यायाधीश और पत्रकार दिन को दिन और रात को रात कहने से चूकते नहीं है।(DB)
(येलेखक के अपने विचार हैं।

No comments:

Post a Comment