Friday 22 December 2017

कट्टरता की राह छोड़ता सऊदी अरब (शंकर शरण)

चंद दिनों पहले सऊदी अरब की राजधानी रियाद में लेबनानी गायिका हिबा तवाजी का कंसर्ट हुआ। हजारों सऊदी लड़कियों ने उसे लाइव देखा-सुना ही नहीं, बल्कि साथ-साथ पश्चिमी पॉप गायिका सेलीन डियन की धुन पर नाची भीं। सऊदी इतिहास में यह पहला अवसर था जब किसी गायिका ने सार्वजनिक एकल कार्यक्रम पेश किया। जो लोग इस घटना का मर्म समझना चाहें उन्हें प्रसिद्ध फिल्म ‘साउंड ऑफ म्यूजिक’ (1965) की नायिका को याद करना चाहिए। बंद कॉन्वेंट में रहने वाली नन के लिए लोगों के साथ उन्मुक्त गीत-नृत्य का अवसर पाना जैसा आह्लादकारी था, हिबा का ऐतिहासिक कार्यक्रम भी सऊदी स्त्रियों के लिए वैसा ही था। भारत जैसे खुले समाज में हिंदू क्या, मुस्लिम भी उस रोमांच को महसूस नहीं कर सकते जो सऊदी अरब में महसूस किया जा रहा है। यह सब वहां के नए युवा शासक प्रिंस मुहम्मद बिन सलमान के साथ शुरू हुआ है। उन्होंने धार्मिक और आर्थिक सुधार का महत्वाकांक्षी कार्य शुरू किया है। उन्हें राजपरिवार के अधिकांश लोगों और युवा सऊदी आबादी का समर्थन प्राप्त है।
अभी वहां 65 प्रतिशत आबादी 30 वर्ष से कम की है। वे दुनिया के साथ चलना और किसी सऊदी युवक की संभावित आतंकी वाली छवि तोड़ना चाहते हैं। प्रिंस सलमान के पक्ष में सामाजिक वातावरण इतना सशक्त है कि मौलानाओं ने भी सुधारों को सहमति दे दी है।1एक और निर्णय यह हुआ है कि महिलाएं स्टेडियम जाकर फुटबॉल मैच देख सकती हैं। जल्द ही महिलाएं अकेले गाड़ी चला सकेंगी। देशभर में सैकड़ों सिनेमा और कंसर्ट हॉल खोले जा रहे हैं, जहां दुनिया भर की फिल्में और नृत्य-संगीत कार्यक्रम देखे जा सकेंगे। यह सब बहुत बड़े फैसले हैं। सऊदी अरब की आधी से अधिक आबादी इनके लिए उत्कंठित है। प्रिंस सलमान के अधिकांश मंत्री युवा हैं। शुद्धतावादी इस्लाम के दमघोंटू दबाव से मुक्त होने के कारण उन्हें नया सोचने और करने की आजादी मिली है। यदि ये सुधार सफल होते हैं तो पूरी दुनिया पर सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। स्वयं इस्लाम में वास्तविक सुधार होगा। इसलिए प्रिंस सलमान के अभियान का महत्व वैश्विक है।
आरंभ आर्थिक सुधारों से हुआ है जिसमें सर्वोच्च राजकीय लोगों के भ्रष्टाचार को कड़ाई से खत्म किया जा रहा है। इसकी सफलता निश्चित है, क्योंकि यह ऊपर से शुरू हुआ, न कि नीचे से। लगभग 100 अरब डॉलर की अवैध राशि सरकार के अधीन लाई गई। विशेषज्ञों की सलाह से इन सुधारों, धन-जब्ती आदि को इस तरीके से किया गया जिससे किसी प्रतिष्ठान या व्यवसाय का काम न रुके और रोजगारों पर दुष्प्रभाव न पड़े, लेकिन सबसे अधिक महत्वपूर्ण सुधार धार्मिक हैं। प्रिंस सलमान सऊदी अरब को 1979 से पहले वाली स्थिति में लाना चाहते हैं, जब धार्मिक कट्टरपंथ का दबदबा न था। तब सऊदी अरब में भी काफी हद तक उदार सामाजिकता थी। प्रिंस सलमान वही स्थिति बहाल करना चाहते हैं। उनके शब्दों में वहां ‘संतुलित, संयत इस्लाम होना चाहिए जो दुनिया और सभी धर्मो, परंपराओं और लोगों के प्रति खुला हो।’ इसमें बड़ी युगांतरकारी संभावनाएं छिपी हैं। 1 सऊदी अरब में मजहबी पुलिस के अधिकारों पर अंकुश लगा है। शिक्षा में भी सुधार हो रहे हैं। सालाना 1700 सऊदी शिक्षक विश्व स्तरीय प्रशिक्षण के लिए फिनलैंड भेजे जा रहे हैं। सऊदी लड़कियों के लिए शारीरिक शिक्षण की कक्षाएं शुरू हो रही हैं। स्कूलों में बच्चों के लिए विज्ञान व सामाजिक विषयों में रुचि अनुसार खोज-बीन और प्रोजेक्ट करने की सुविधा देने के उपाय किए जा रहे हैं। मतलब साफ है कि केवल इस्लाम शिक्षा की कसौटी नहीं रहेगा। प्रिंस सलमान ने कट्टरपंथी इस्लामियों को वैचारिक चुनौती भी दी है। वे ‘इस्लाम की पुनव्र्याख्या’ वाली छद्म-शब्दावली या घुमा-फिरा कर नहीं, बल्कि खुल कर कहते हैं कि ‘हम उग्रवाद खत्म करेंगे।’ वे साफ कहते हैं कि समाज में खुलापन होना चाहिए, संगीत-कला की आजादी और दूसरे धर्म के लोगों के प्रति आदर होना चाहिए। वे याद दिलाते हैं कि पैगंबर मोहम्मद के जमाने में मदीना में महिला न्यायाधीश होती थीं। इस प्रकार सलमान इस्लामी सिद्धांत के बदले वास्तविक उदार व्यवहार को कसौटी बना रहे हैं। यदि सऊदी अरब में ऐसे धार्मिक-सामाजिक सुधारों ने गति पकड़ी तो घर-घर इंटरनेट, यू-ट्यूब और सोशल मीडिया के जमाने में संपूर्ण मुस्लिम विश्व में वही गति कोई रोक न सकेगा, क्योंकि सऊदी अरब दुनिया भर के मुसलमानों की आदर्श भूमि है। यदि वहां लोग दूसरे समाजों की तरह सहज हंसने-गाने, खाने-पीने, घूमने-फिरने, जीने और भावनाएं साझा करने लगेंगे तो देखते ही देखते बिना किसी बहस के सारी दुनिया के मुसलमान वैसा ही करने लगेंगे। इसलिए नहीं कि उन्हें नकल करनी है, बल्कि इसलिए कि धर्मगुरुओं ने उन पर जो मजहबी अंकुश लगा रखा है, वह स्वत: हटने लगेगा। नि:संदेह प्रिंस सलमान के लिए परिस्थितियां अनुकूल हैं। दुनिया में इस्लाम में सुधार की मांग जोर पकड़ रही है, जो हर चीज में इस्लाम लागू करने के बजाय इस्लाम को ही समय अनुरूप बदलने की जरूरत समझती है। संयुक्त अरब अमीरात में ऐसे कुछ सुधार पहले ही हो चुके हैं, लेकिन इस्लाम के केंद्र सऊदी अरब में यह होना संपूर्ण मुस्लिम जगत में सुधार लाएगा।
तेल-संसाधनों का मूल्य घटने और चौतरफा इस्लामी आतंकवाद से अरब मौलानाओं को भी दबाव महसूस हो रहा है। उस आतंकवाद के कारण दुनिया भर में मारे गए और तबाह लोगों में 95 प्रतिशत लोग मुसलमान ही रहे हैं। इस सच्चाई का निहितार्थ अब झुठलाया नहीं जा सकता। यही कारण है कि जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने गत 21 मई सऊदी अरब की राजधानी में पचास से अधिक मुस्लिम देशों के शासकों के सामने ‘इस्लामी आतंकवाद’ और ‘इस्लामी उग्रवाद’ खत्म करने का आह्वान किया तो किसी मुस्लिम नेता या मौलाना ने एक शब्द न कहा। यह अपने-आप में बहुत बड़ी घटना और बदलते समय का संकेत था। सऊदी अरब में सुधार की नई हवा का महत्व तभी ठीक-ठीक समझा जा सकता है जब गत चार दशक से मुस्लिम जगत की तमाम उथल-पुथल को ध्यान में रखा जाए।
1979 से सऊदी अरब और ईरान, यानी इस्लाम की दोनों बड़ी धाराओं के केंद्र ने कट्टरता की प्रतियोगिता-सी आरंभ की। आज उसका जोर और उत्साह, दोनों खत्म हो चुके हैं। ईरान में अभी कट्टरपंथी प्रभावी हैं, लेकिन कुछ वर्ष पहले वहां राष्ट्रपति सैयद खातमी ने भी खुलकर इस्लाम में सुधार और सर्व-धर्म आदर की जरूरत बताई थी। अर्थात वहां भी सच्चाई समझी जा चुकी है और केवल समय की बात है कि तदनुरूप सामाजिक परिवर्तन किए जाएं।(दैनिक जागरण )(लेखक राजनीतिशास्त्र के प्रोफेसर हैं)

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