Friday 15 December 2017

नेपाल के साथ संबंधों की चुनौती (प्रो. राम मोहन पाठक)


नेपाल में संसदीय चुनावों के परिणाम भले ही चौंकाने वाले रहे हों, लेकिन राजनीतिक अस्थिरता से पिछले पांच दशकों से जूझ रहे इस देश के मतदाताओं ने राजनीतिक स्थिरता का स्पष्ट जनादेश दिया है। तीन प्रमुख वामपंथी दलों की एकजुटता (बाद में एक दल अलग हो गया) का स्पष्ट परिणाम यह रहा कि 165 सदस्यीय प्रतिनिधि सभा के लिए हुए सीधे मतदान में उसे 116 सीटों के साथ दो तिहाई पूर्ण बहुमत प्राप्त हुआ। 2015 में नया संविधान स्वीकार करने के बाद नेपाल ने मजबूत लोकतंत्र और लोकतांत्रिक संघीय ढांचे की स्थापना की ओर जो कदम बढ़ाया था वह चुनाव परिणामों से सफलता की एक नई मंजिल तक पहुंचने में कामयाब रहा। इस चुनाव के बाद विश्व मानचित्र पर नेपाल एक नई छवि के साथ उभरा है। भारत के सामने उससे संबंध मधुर रखने की चुनौती भी उभरी है, क्योंकि भारत समर्थक नेपाली कांग्रेस को पराजय का सामना करना पड़ा है। विश्लेषकों के अनुसार 110 बाकी बची संसदीय सीटों पर समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली से होने वाले चुनाव में भी वामदलों के गठबंधन का पूर्ण वर्चस्व स्थापित होने की पूरी संभावना है। 275 सदस्यों की प्रतिनिधि सभा से ही प्रधानमंत्री का चुनाव होगा। वैसे पूरा चुनाव पूर्व प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली को पीएम पद के लिए घोषित करके लड़ा गया। अब केवल ओली के नाम की विधिवत घोषणा 110 सीटों पर 15 दिसंबर तक पूर्ण होने वाले चुनावों के परिणामों की घोषणा के बाद होना शेष है। नेपाल की चौथी प्रतिनिधि सभा के लिए हुए चुनाव में नेकपा-एमाले और माओवादी सेंटर के गठबंधन को नेपाल जनता ने प्रचंड बहुतमत प्रदान किया।
नेपाल संविधान एवं निवर्तमान संसद का 2015 का निश्चय था कि 21 जनवरी 2018 तक नए सदन और सरकार का गठन हो जाना चाहिए। चुनाव सफ लतापूर्वक संपन्न होने से संविधान के इस मंतव्य को जनस्वीकृति प्राप्त हुई है। नेपाल के छह महानगरों, 11 उपनगरों, 276 नगर पालिकाओं और 460 ग्रामीण सभाओं (म्युनिसिपैलिटी) के चुनावों के गत मई में संपन्न होने के बाद नेपाल चुनाव आयोग ने नेपाल के नवजात लोकतंत्र में केंद्रीय प्रतिनिधि सभा एवं सरकार हेतु चुनाव शांतिपूर्वक संपन्न कराकर इतिहास रचा है। हर पांच साल पर चुनाव के प्रावधानों के अंतर्गत 335 सदस्यों के चुनाव के साथ ही प्रधानमंत्री द्वारा भी 26 सदस्यों की नियुक्तिका प्रावधान है। दो तिहाई से अधिक सीटों पर जीत के जनादेश के बाद अगले चुनाव तक नेपाल में केंद्र में कम्युनिस्ट गठबंधन, नेकपा-एमाले और नेकपा माओवादी दलों की संयुक्त सरकार होगी। सात राज्यों में से छह राज्य भी जनता ने इसी गठबंधन को सौप दिए हैं। एक राज्य में नेपाली कांग्रेस की सरकार बनेगी। निचले सदन प्रतिनिधि सभा की 165 में से एमाले को 80 और नेकपा माओवादी (प्रचंड) को 36 सीटें मिलने के साथ ही नेपाली कांग्रेस 23 सीटों पर ही सिमट गई। सात प्रदेशों की कुल 330 सीटों में 168 एमाले को मिली हैं। नेकपा-माओवादी को 73 और कांग्रेस को 41 सीटंे मिलने से जहां राज्यों में सरकारों के निर्विवाद गठन का रास्ता साफ हो गया है वहीं सभी प्रदेशों की राजधानी कहां बने, इस प्रश्न पर चल रही बहस का आसान राजनीतिक हल मिलने की स्पष्ट संभावना भी बन गई है। ध्यान रहे कि अभी तक राज्यों के नाम भी नहीं तय हो पाए हैं।
प्रतिनिधि सभा के साथ ही 59 सदस्यीय उच्च सदन (नेशनल असेंबली) के लिए प्रत्येक राज्य से आठ -आठ प्रतिनिधियों के चुनाव और राष्ट्रपति द्वारा तीन प्रतिनिधियों के नामांकन की प्रक्रिया अभी शेष है। वैसे उच्च सदन के गठन से संबंधित एक विधेयक पर भी अभी निर्णय होना है। चौथी प्रतिनिधि सभा के लिए हुए प्रथम आम चुनाव में जहां वाम गठबंधन के केवल दो बड़े नेता, एमाले उपाध्यक्ष बामदेव गौतम और नेकपा-माओवादी पार्टी के नारायण काजी श्रेष्ठ पराजित हुए, वहीं नेपाली कांग्रेस के अनेक बड़े नेताओं की हार उसके लिए बड़ा झटका है। पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष रामचंद्र पौडेल, शशांक कोइराला, डा. रामशरण महत, अजरुन सिंह केसी, डा. प्रकाशशरण महत के साथ ही निवर्तमान प्रतिनिधि सभा के अध्यक्ष शेरबहादुर देउबा की पत्नी डा. आरजू देउबा की हार भी पार्टी की बड़ी क्षति है। मधेशियों की पार्टी राष्ट्रीय जनता पार्टी और उपेंद्र यादव के नेतृत्व वाले फोरम को तराई क्षेत्र में 10-10 सीटें मिलने से मधेशियों के खंडित वर्चस्व के बावजूद राजनीतिक संतुलन में उनकी आवाज महत्वपूर्ण बनी रहेगी। सत्तारूढ़ नेपाली कांग्रेस की हार के कारणों में परिवारवाद और वृद्ध नेताओं के वर्चस्व के साथ ही युवाओं के भारी मतदान, कुछ बड़े कारण हैं। नेपाल चुनाव आयोग के अनुसार एक करोड़ पांच लाख 87 हजार पांच सौ 21 मतदाताओं ने मताधिकार का प्रयोग किया, जो कुल पंजीकृत मतदाता संख्या का 70 प्रतिशत है।
नेपाल की राणाशाही और राजशाही से मुक्ति और लोकतंत्र के रूप में स्थापित होने का 1950 से राजा महेंद्र और राजा वीरेंद्र वीर विक्रम शाहदेव की सीमित सहमति से जारी प्रयास प्राय: 67 साल बाद पूरा हुआ। प्रथम प्रधानमंत्री बीपी कोइराला, बाद में जीपी कोइराला और निवर्तमान प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा प्राय: चीन के सापेक्ष भारत के पक्षधर रहे हैं। 1999 में चुनी हुई सरकार को 2002 में राजा ज्ञानेंद्र ने भंग कर दिया था। 2007 में अंतरिम संसद बनी। 601 सदस्यीय भारी-भरकम संविधान सभा ने भी संविधान का मसौदा तैयार किया। राजतंत्र से आगे बढ़कर लोकतंत्र बने नेपाल में राजनीतिक अस्थिरता आर्थिक-सामाजिक बदहाली का एक बड़ा कारण रही है। पिछले 10 सालों में नौ प्रधानमंत्री रहे। संभवत: नीतियों में भटकाव और विकास की बाधाएं दूर करने की दृष्टि से ही नेपाली जनता ने इस बार पूर्णत: स्पष्ट जनादेश दिया है। चीन के प्रति स्वाभाविक लगाव और झुकाव रखने वाले चुने गए दोनों प्रमुख दलों के नेताओं प्रचंड और ओली के समक्ष भारत से संतुलित मैत्री-सहयोग बनाए रखने की बड़ी चुनौती है। ध्यान रहे कि दोबारा प्रधानमंत्री बनने जा रहे केपी शर्मा ओली ने 24 जुलाई 2016 को पद से इस्तीफा देते समय भारत पर यह सीधा आरोप लगाया गया था कि उसने माओवादियों, राजावादियों और तराई पार्टियों का इस्तेमाल कर उन्हें अपदस्थ कराया है। राजनीति और चुनाव से कहीं अलग नेपाल का जनमानस सदियों से भारत के साथ एकात्म है। यह चीनपरस्त नेपाली दलों को समझना होगा। भौगोलिक और सांस्कृतिक दृष्टि से आत्मीय भारत-नेपाल की खुली सीमा जैसा सहयोग चीन के साथ शायद ही संभव हो सके। तथापि नेपाल के चुनाव परिणामों ने भारत के सामने संबंधों को लेकर एक नई कूटनीतिक चुनौती खड़ी कर दी है।(DJ)
(काशी विद्यापीठ के निदेशक रहे लेखक सार्क मीडिया अध्ययन से संबद्ध हैं)

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