यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिन जवानों के कंधे पर देश की सुरक्षा की अहम जिम्मेदारी है वे तनावग्रस्त होकर अपने ही साथी जवानों का खून बहा रहे हैं। छत्तीसगढ़ राज्य के बीजापुर जिले में बासगुड़ा कैंप में तैनात केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल यानी सीआरपीएफ के एक जवान ने जिस तरह आपसी झगड़े के बाद अपना आपा खोते हुए अपने ही चार साथी जवानों को मौत की नींद सुला दिया वह आक्रोश और अवसाद के शिकार होते जवानों की बानगी भर है। गौर करें तो पिछले कुछ वर्षो के दरम्यान इस तरह की कई घटनाएं घटी हैं जिस पर ध्यान दिए जाने की जरूरत है। याद होगा गत वर्ष पहले औरंगाबाद में केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल यानी सीआइएसएफ के एक जवान ने अपने ही चार साथियों को गोलियों से उड़ा दिया था।
इन घटनाओं से साफ है कि जवान अवसादग्रस्त स्थिति में काम कर रहे हैं। उचित होगा कि सरकार और सेना दोनों ही जवानों की मन:स्थिति को समङों और ऐसा वातावरण निर्मित करें जिससे कि जवान अवसादग्रस्त न हों। यह इसलिए भी आवश्यक है, क्योंकि जवानों में आत्महत्या और साथी जवानों की हत्या की प्रवृति बढ़ती जा रही है। सरकारी आंकड़ों पर गौर करें तो हर वर्ष तकरीबन एक दर्जन से अधिक जवान आत्महत्या कर रहे हैं। अमूमन आत्महत्या की प्रवृत्ति उन जवानों में ज्यादा देखी जा रही है जो सीमा पर पहरा देते हैं या जोखिम भरे क्षेत्रों में काम करते हैं। कुछ साल पहले गृह मंत्रलय द्वारा जारी रिपोर्ट में जवानों की आत्महत्या और अवसाद के ढेर सारे कारण गिनाए गए थे, लेकिन उसके अलावा भी बहुतेरे ऐसे कारण और भी हैं जिस पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। शायद उसी का नतीजा है कि जवानों में अवसाद बढ़ रहा है और वे अप्रिय कदम उठाते दिख रहे हैं। यह संभव है कि छत्तीसगढ़ में घटी घटना के पीछे भी जवान की अवसादग्रस्तता ही हो, लेकिन अहम सवाल यह है कि उनको इससे बाहर कैसे निकाला जाए?
गौर करें तो पिछले कुछ वर्षो के दौरान विभिन्न अर्धसैनिक बलों के चार सौ से अधिक जवानों ने आत्महत्या की है और साथ ही अपने साढ़े तीन दर्जन से अधिक साथियों को निशाना बनाया है। एक आंकड़े के मुताबिक दुर्घटनाओं, आत्महत्याओं और बीमारियों से हर साल 16 हजार जवान मरते हैं। यही नहीं बड़ी संख्या में जवान नौकरी भी छोड़ रहे हैं। विगत वर्षो के दरम्यान दस हजार से अधिक अर्धसैनिक बलों के जवान नौकरी छोड़ चुके हैं। इसका सीधा तात्पर्य यह है कि जवान अपनी नौकरी की सेवा शर्तो सें संतुष्ट नहीं हैं। आमतौर पर अर्धसैनिक बलों के उच्च अधिकारी यह दलील देते हैं कि जवानों में आत्महत्या की बढ़ती प्रवृत्ति का मूल कारण उनका पारिवारिक तनाव है न कि नौकरी के दरम्यान उपजने वाला मानसिक दबाव। हो सकता है कि जवानों के आत्महत्या और नौकरी छोड़ने के पीछे पारिवारिक तनाव भी एक अहम कारण हो, लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं कि अन्य दूसरा कारण है ही नहीं।
केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल की ही अगर बात करें तो 80 प्रतिशत जवानों को पिछले दो दशक से एक जगह पर स्थाई रूप से नियुक्ति नहीं मिल पाई है और वे समय-समय पर मिलने वाली प्रोन्नति से भी वंचित हैं। उनका जीवन खानाबदोशों की तरह हो गया है। सरकार को समझना चाहिए कि वे भी समाज के हिस्सा हैं और मानवीय संवेदनाएं उन्हें भी प्रभावित करती हैं। यह ठीक है कि उनके कंधों पर देश व समाज की रक्षा की जिम्मेदारी है और उन्हें इस बाबत उपद्रवग्रस्त क्षेत्रों से लेकर दुर्गम क्षेत्रों में भेजा जाना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। जवानों का भी उत्तरदायित्व है कि वह विपरीत परिस्थितियों में भी अपना धैर्य न खोएं, लेकिन सरकार और सेना की भी जिम्मेदारी बनती है कि जवानों की भावनाओं का ख्याल रख उन्हें उचित पोषण के अलावा जरूरत पर छुट्टियां दे। आज की तारीख में जवान मैदान से लेकर जंगल-झाड़ तक नाना प्रकार की चुनौतियों का सामना कर रहे हैं, लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि वे आधुनिक संसाधनों से लैस नहीं हैं। लंबी दूरी तक पैदल चलना, प्रतिकूल जमीनी हालात से समझौता करना और उच्च आद्र्रता तथा गर्म जलवायु में सामंजस्य स्थापित करना कोई सामान्य बात नहीं है, लेकिन जवानों को इन्हीं सब जोखिम भरे हालातों से गुजरना होता है। इसके अलावा उन्हें विषम परिस्थितियों में भोजन और पानी के बिना भी कई दिनों तक जीवन गुजारना पड़ता है। घने जंगल और पथरीले रास्तों के बीच जानलेवा मच्छरों की मौजूदगी उनकी जान पर बन आती है।
अच्छी बात है कि सरकार जवानों की जरूरतों और सुरक्षा को लेकर गंभीर है और इस दिशा में पहल कर रही है, लेकिन सच यह भी है कि अभी भी जवान संसाधनों की भारी कमी से जूझ रहे हैं। यहां सवाल सिर्फ संसाधनों की कमी तक ही सीमित नहीं है। उपलब्ध सामग्रियों की कुशलता को लेकर भी सवाल उठते रहे हैं। यह स्थिति निराश व विचलित करने वाली है। जवानों की शहादत और बहादुरी की चर्चा तो संपूर्ण देश में होती है, लेकिन उनकी सुरक्षा और जरूरतों पर ध्यान न दिया जाना उनके साथ अन्याय तो है ही साथ ही देश की सुरक्षा के साथ भी खिलवाड़ है। अब वक्त आ गया है कि सरकार और सेना दोनों जवानों के प्रति संवेदनशीलता दिखाते हुए उनकी मानसिक और व्यावहारिक कठिनाइयों को समझने की कोशिश करें और तत्परता से उसका निदान खोजें।
एक सामान्य व्यक्ति की मनोदशा खराब होने पर उसका परिवार मनोचिकित्सक का सहारा लेता है, लेकिन ताज्जुब होता है कि जवानों द्वारा अपना दर्द दुनिया के सामने उजागर किए जाने पर भी उसके साथ संवेदनशीलता नहीं बरती जाती है? यह ठीक नहीं है। बेहतर होगा कि जिम्मेदार लोग उन कारणों को समझें कि आखिर जवान किन परिस्थितियों के कारण अपने ही साथियों को छलनी कर रहे हैं? क्या कारण है कि आज जवान मानसिक अवसाद से ग्रस्त हैं और उनका दर्द छलककर बार-बार सामने आ रहा है? उचित होगा कि जवानों की कार्यप्रणाली को मानवीय बनाया जाए और उन्हें आधुनिक सुरक्षा उपकरणों से लैस कर उनके आत्मबल को मजबूत किया जाए।(दैनिक जागरण )
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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