Saturday 23 December 2017

बदलते दक्षिण अफ्रीका में नई उम्मीद (रामचंद्र गुहा, प्रसिद्ध इतिहासकार)


बिरादरी के तमाम अन्य लोगों के विपरीत मेरे मन में पश्चिम में जाकर बसने का ख्याल दूर-दूर तक कभी नहीं आया। इस देश ने मुझे बहुत कुछ दिया है। यहं रहने और काम करने के लिए इतना कुछ है कि जीवन पर्यंत यहीं रहने का इरादा है। एक बार भारत छोड़ने का खयाल आया था। तब भी यह आकर्षण यूरोप या उत्तरी अमेरिका के लिए नहीं, बल्कि अफ्रीका के लिए था। 1994-95 में मैं बर्लिन में अध्ययन कर रहा था। पत्नी और बच्चे भी साथ में ही थे। बर्लिन प्रवास के दौरान ही नाटाल विश्वविद्यालय के पीटरमारित्सबर्ग स्थित इतिहास विभाग के अध्यक्ष का पत्र मिला, जिसमें उन्होंने वहां काम करने के प्रति मेरी इच्छा के बारे में जानना चाहा था। वह पर्यावरणीय इतिहास पर मेरे लिखे से प्रभावित थीं।
बर्लिन हमारे लिए बेंगलुरु और दिल्ली के बीच एक अंतरिम ठिकाने जैसा था। दिल्ली में हम छह साल रहे थे और जर्मनी से वापसी के बाद गृहनगर बेंगलुरु में बसने की मंशा थी। नब्बे के दशक की शुरुआत में मैंने उत्तर भारत में सांप्रदायिक हिंसा के दौर देखे थे। तमाम करीबियों, पुराने दोस्तों को हिंदुत्व का झंडा उठाते देखा था। आजादी के बाद के सबसे भयावह 1989 के भागलपुर दंगों के बाद मैं वहां गया भी था। इसके तीन वर्ष बाद ही बाबरी ध्वंस की घटना हुई, जिस पर टाइम मैगजीन ने लिखा- ‘464 साल पुरानी बाबरी मस्जिद के तीन गुंबदों का भीड़ द्वारा ढहाया जाना भारतीय लोकतंत्र के तीन स्तंभों लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और कानून के शासन पर धार्मिक राष्ट्रवाद रूपी खतरे के तौर पर सामने आया है।’
मुझे अपने देश के भविष्य को लेकर चिंता हुई। एक तरफ भारत अपनी लोकतांत्रिक और बहुरंगी विरासत से विमुख होता दिख रहा था, तो दक्षिण अफ्रीका श्वेत शासन से लोकतंत्र की ओर जाते हुए अपने इतिहास में एक नया गौरवशाली पन्ना जोड़ने जा रहा था। नस्लभेदी शासन का यह खात्मा हालिया इतिहास में उत्थान की सबसे बड़ी गाथा है। कमोबेश इन्हीं मानसिक हालात में पीटरमारित्सबर्ग का निमंत्रण मिला। ऐसे में, दक्षिण अफ्रीका जाने का ख्याल, खासतौर से जब वह मुक्ति की सांसें ले रहा था, एक रोमांचक संभावना की तरह था। मेरी ग्राफिक डिजाइनर पत्नी को भी वहां अपने अनुकूल काम तलाशने में ज्यादा मुश्किल नहीं दिख रही थी। खैर, नाटाल यूनिवर्सिटी में नौकरी वाला अध्याय तो अंतत: पूरा नहीं हुआ, लेकिन 1997 में एक मित्र से मिलने मैं पहली बार दक्षिण अफ्रीका गया। इसके कुछ ही दिनों बाद महात्मा गांधी की आत्मकथा के सिलसिले में कई यात्राएं करनी पड़ीं, जिसने वहां की राजनीति को करीब से देखने-समझने का मौका दिया। 23 साल पहले, जब मन में दक्षिण अफ्रीका में बसने के विचार आ-जा रहे थे, तब नेल्सन मंडेला राष्ट्रपति थे। इतिहास उन्हें महात्मा गांधी की तरह ही पेश करता है। ऐसा महान इंसान, जो अपने शानदार आचरण और व्यवहार के साथ असीम नैतिक और शारीरिक साहस की प्रतिमूर्ति तो था ही, अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों और उत्पीड़कों के प्रति कोई दुराव भी नहीं रखता था। मंडेला की इस छवि में कुछ भी गलत नहीं है, लेकिन यह भी सही है कि मंडेला गांधी से कहीं ज्यादा नेहरू की प्रशंसा करते थे। उन्होंने जवाहरलाल नेहरू को ज्यादा बारीकी से समझा था। वह मानते थे कि नेहरू अत्यधिक लंबे समय तक सरकार के मुखिया रहे। शायद यही कारण रहा कि मंडेला ने राष्ट्रपति के रूप में पहला कार्यकाल पूरा होते ही राजनीति से संन्यास लेना उचित समझा।
मंडेला के उत्तराधिकारी थाबो मबेकी योग्य तो थे, लेकिन उनके अंदर वैसी करिश्माई शख्सियत नहीं थी। वह कई अंतर्विरोधों का शिकार भी रहे। उनके दोहरे शासनकाल के बाद कुछ समय के लिए गलेमा मोटलांथे और फिर जैकब जुमा राष्ट्रपति बने। जुमा करिश्माई तो थे, लेकिन चारित्रिक पतन का शिकार हुए और कई महाभियोग झेले, हालांकि हर बार वह खुद को बचा ले गए। जुमा अगले साल कार्यकाल पूरा कर रहे हैं। सत्तारूढ़ अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस (एएनसी) सिरिल रामाफोसा को उनका उत्तराधिकारी घोषित कर चुकी है। वही रामाफोसा, जो नस्लभेद विरोधी आंदोलन में खासे चर्चित रहे थे। उन्हें 1998 में ही मंडेला का उत्तराधिकारी बन जाना चाहिए था। एएनसी अध्यक्ष पद के लिए जैकब जुमा की पूर्व पत्नी नकोसाजाना जुमा को हराकर वह आगे आ चुके हैं और कोई संदेह नहीं है कि रामाफोसा ही देश के पांचवें राष्ट्रपति होंगे।एएनसी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में कुछ महत्वपूर्ण समानताएं हैं। कांग्रेस की तरह ही एएनसी ने वहां आजादी की लंबी लड़ाई लड़ी और लंबे समय तक सत्ता सुख लेने का स्वाभाविक अधिकार भी हासिल कर लिया। कांग्रेस की तरह ही लंबे समय तक सत्ता में रहते तमाम ऐब और अहंकार भी उसमें आ गया। हालांकि केप टाउन में लोकतांत्रिक गठबंधन के कड़े प्रतिरोध को छोड़कर बाकी देश में इसकी मजबूत पकड़ बनी हुई है।
नब्बे के दशक में जब थोड़ी ही देर के लिए सही, नेल्सन मंडेला की धरती पर बसने का ख्याल आया था, तब मुझे अपना देश अपनी स्थापना के आदर्शों से विमुख होता दिख रहा था। लेकिन 23 साल बाद दक्षिण अफ्रीका के बारे में मैं क्या कहूं? यह आज भ्रष्टाचार, अपराध, प्रतिभा पलायन और नए तरह के नस्लभेद जैसी हर तरह की मुश्किलों से जूझ रहा है। हालांकि अब भी वहां बहुत कुछ अच्छा है, जो बचा हुआ है।
जैकब जुमा राष्ट्रपति के रूप में दक्षिण अफ्रीका के लिए किसी आपदा से कम नहीं साबित हुए। विकल्प के रूप में दो नाम सामने आए, लेकिन दोनों दो छोर पर। रामाफोसा अगर खुद को व्यावहारिक सुधारक के रूप में पेश करते हैं, तो दलमिनी जुआना एक लोकप्रियतावादी क्रांतिकारी हैं। रामाफोसा जीत चुके हैं, लेकिन जीत का अंतर इतना कम है कि आगे चलकर पार्टी के अंदर से ही विरोध भी तय है। नए राष्ट्रपति को पार्टी के बाहर भी सामाजिक दरार के साथ जातीय व नस्लीय असमानताओं की उन बुराइयों से टकराना होगा, जो बीते ढाई दशक में धीरे-धीरे अपनी जड़ें जमा चुकी हैं। सच है कि 1994 में मन में घर करने वाली उस झिझक के बाद फिर कभी अपना देश छोड़ने का ख्याल नहीं आया। मैं अंतिम सांस तक भारत में ही रहना चाहूंगा। लेकिन तमाम भावनात्मक और ऐतिहासिक कारणों से, भारत के बाद दक्षिण अफ्रीका वह दूसरा देश है, जिसके भविष्य को लेकर मुझे चिंता होती है। सच है कि मैं उनके या उनकी पार्टी के लिए वोट तो नहीं कर सकता, लेकिन जब भी एएनसी के मुखिया बनेंगे, सिरिल रामाफोसा इस भारतीय को अपने लिए खुश होता पाएंगे।(Hindustan)
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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