Wednesday 10 August 2016

जीएसटी कानून: विवाद और निस्तारण (वी एस कृष्णन ) Business Standard

वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) कानून का जो मसौदा सार्वजनिक किया गया है वह केंद्र और राज्य सरकारों की सामूहिक सहमति का परिचायक है। इस कानून में इनपुट क्रेडिट आदि के क्षेत्र में जहां कई विशेषताएं मौजूद हैं, वहीं विवाद निस्तारण के मामले में यह भविष्योन्मुखी सोच नहीं रखता। देश में करदाताओं को जिस आम समस्या का सामना करना होता है, वह है विवाद निस्तारण व्यवस्था से जुड़ी देरी। यहां यह कहावत सही मालूम पड़ती है कि देरी से न्याय मिलना निरर्थक होता है। इस दलील के तीन पहलू हैं:
कर विभाग और करदाताओं के बीच की असहमति कब विधिक रूप से विवाद का रूप धारण कर लेती है?
एक बार विवाद उत्पन्न होने के बाद इसे अंतिम तौर पर और तेजी से कैसे निपटाया जाता है?
जब विवाद में आकलन सिद्घांत शामिल हों तो यह कैसे सुनिश्चित किया जाएगा कि ऐसे निर्णय पूरे देश पर एक रूप में लागू हों।
उपरोक्त बातों के आधार पर अपने यहां एक विश्वस्तरीय विवाद निस्तारण व्यवस्था की रूपरेखा तैयार की जा सकती है:
विवाद स्पष्टï उल्लिखित हो और अगंभीर किस्म के मसलों को विवाद के दायरे से बाहर रखा जाए।
आकलन में व्यवहार की एकरूपता सुनिश्चित हो। कानून बनाने वालों को इसकी व्याख्या करने दी जाए।
व्यवस्था को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि मामलों को तयशुदा अवधि में निपटाया जाए।
करदाताओं को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए कि वे बिना वाद दायर किए मामलों को निपटाएं।
करदाताओं और कर विभाग के बीच संवाद की प्रणाली विकसित की जानी चाहिए।
सार्वजनिक रूप से पेश मसौदा जीएसटी कानून ऐसी विश्वस्तरीय विवाद निस्तारण व्यवस्था कायम करने में अहम भूमिका निभा सकता है। इसके कुछ प्रावधान वास्तव में कानूनी सुधार की ओर इंगित करते हैं। उदाहरण के लिए इनपुट क्रेडिट की व्यापक परिभाषा के चलते आकलनकर्ताओं को यह सुविधा होगी कि कर पर चरणबद्घ कर का क्या प्रभाव होगा। इसी प्रकार पूंजीगत वस्तुओं पर चुकाए गए कर पर 100 प्रतिशत कर क्रेडिट का प्रावधान भी एक बड़ा बदलाव है। यह तो यूरोपीय संघ के कुछ देशों की परंपरा से भी ज्यादा है। विवाद निस्तारण व्यवस्था कारोबारी सुगमता के लिहाज से अहम है और ज्यादा विदेशी और घरेलू निवेश जुटाने के लिहाज से भी इसका महत्त्व है। कर की दरों को लेकर व्याप्त अनिश्चितता भी दिक्कत की बड़ी वजह है। अधिकारियों द्वारा आकलन निर्णयों में एकरूपता न रखने से ऐसा होता है।
इस क्रम में उल्लंघन के मामलों और आकलन संबंधी मामलों में फर्क करना होगा। उल्लंघन के मामले वे होते हैं, जिनमें समयबद्घता होती है और पुनरावृत्ति की आशंका नहीं होती। वहीं आकलन संबंधी मामले वर्गीकरण, मूल्यांकन आदि के सिद्घांतों से संबंधित होते हैं। उनका रिश्ता सेनवैट क्रेडिट की पात्रता से भी होता है और उनके निहितार्थों की पुनरावृत्ति हो सकती है। अधिकारियों को उपलब्ध तथ्यों के आधार पर मामलों का निर्धारण करने की इजाजत दी जा सकती है। दूसरी ओर निर्देशों की एक केंद्रीकृत व्यवस्था तय की जा सकती है जो आकलन के मामलों में अधिकारियों की मदद करे।
ऐसे में एक अहम सुझाव यह भी है कि एक तकनीकी सचिवालय गठित किया जाए जो कर शोध इकाई का हिस्सा हो। यह सचिवालय आकलन के मामले में अधिकारियों को वे निर्देश जारी कर सकता है जिनकी चर्चा हमने ऊपर की है। कहना न होगा कि कर शोध इकाई संबंधित कानून की व्याख्या करने के लिए बहुत बेहतर स्थिति में है क्योंकि उसका संबंध इसका मसौदा तैयार करने से भी रहा है। इसके अलावा यह व्यवस्था भी की जानी चाहिए कि आकलन से जुड़े ऐसे मामलों का निपटारा केवल आयुक्त स्तर के अधिकारी ही करें। इसमें किसी तरह की मौद्रिक सीमा निर्धारित नहीं की जानी चाहिए। आदेश के खिलाफ पहली अपील पंचाट के समक्ष होनी चाहिए क्योंकि इससे मामलों के तेज निस्तारण में मदद मिलेगी। केंद्रीय उत्पाद एवं सीमा शुल्क बोर्ड का मानना है कि ऐसे प्रस्तावों से एक जैसे मामलों की सुनवाई या जांच कर रहे राज्यों के अधिकारियों में असमानता का बोध पैदा हो सकता है। इस समस्या का प्रशासनिक रूप से निराकरण करने के लिए आकलन के मामलों की सुनवाई करने की आयुक्त की शक्ति को अतिरिक्त आयुक्तों को भी सौंपा जा सकता है।
तकनीकी सचिवालय की स्थापना से केंद्र और राज्यों के बीच समय-समय पर ऐसी चर्चा को भी मदद मिलेगी जो आकलन के विवादित मुद्दों को लेकर की जा सकती है। करदाताओं को आकलन के मामलों में निश्चितता का फायदा मिलेगा। इससे कारोबारी सुगमता की राह आसान होगी और कारोबार की लागत में भी काफी कमी आएगी। अन्य अहम बदलावों की बात करें तो उनमें मसौदा जीएसटी विधेयक में अवरोध और गैर अवरोध के मामलों के बीच भेद करना और मामलों के निर्णय के लिए तीन वर्ष की एक समान अवधि निर्धारित करना खासा अहम है। अवरोध के पहलू को तथ्यों के आधार पर निपटाया जा सकता है और भारी भरकम जुर्माना लगाया जा सकता है। ऐसे में जुर्माने का तरीका इस भेद से निपटने का समयावधि की तुलना में अधिक कारगर उपाय है। यह संशोधन कानूनी वादों में खासी कमी लाएगा क्योंकि कई करदाता इसके शिकार होते हैं। वे कर चुकाने के बजाय कानूनी राह अपनाना कहीं अधिक बेहतर समझते हैं।
आखिर में, विवादों के दायरे को सीमित किया जाना चाहिए और छोटी-मोटी प्रक्रियागत खामियों को इसके दायरे से बाहर किया जाना चाहिए। इनके लिए प्रशासनिक शुल्क की व्यवस्था की जानी चाहिए। आदर्श जीएसटी कानून की बात करें तो उसके उल्लंघन और जुर्माने से जुड़े हिस्से में ऐसे उल्लंघनों की एक सूची निर्धारित है जिन पर भारी भरकम जुर्माना लगाया जा सकता है। ऐसा करने से जमीनी स्तर पर काम करने वाले अधिकारियों की मनमानी को खत्म किया जा सकता है। यह एक स्वागतयोग्य प्रावधान है। इसमें छोटे मोटे जुर्माने लगाने के सिद्घांतों का भी उल्लेख है। सुझाव दिया गया है कि मामूली जुर्माने लगाए जाने के बजाय प्रक्रियागत खामियों की एक सूची बनाई जानी चाहिए और इन मामलों में प्रशासनिक शुल्क लगाया जाना चाहिए। इससे सुनिश्चित होगा कि ऐसे मामले कनिष्ठï अधिकारियों के स्तर पर ही निपटाए जा सकें और विवाद निस्तारण व्यवस्था निकाय पर इसका बोझ न पड़े।
जीएसटी कानून में इन तीन बदलावों की मदद से एक विश्वस्तरीय विवाद निस्तारण व्यवस्था कायम की जा सकती है और भारत को निवेश के लिहाज से आकर्षक जगह बनाया जा सकता है।
(लेखक केंद्रीय सीमा एवं उत्पाद शुल्क बोर्ड के सेवानिवृत्त सदस्य हैं। वह कर नीति समूह ईवाई इंडिया के सलाहकार भी हैं। लेख में प्रस्तुत विचार निजी हैं।)

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