Wednesday 10 August 2016

भारत चला एक देश एक टैक्स की राह (प्रेम प्रकाश)

तकरीबन दो साल के अड़ंगे के बाद राज्यसभा का अनुमोदन जीएसटी पर हासिल करना मौजूदा सरकार के लिए एक बड़ी उपलब्धि तो जरूर है। पर जीएसटी पर राज्यसभा की सहमति के बाद भी कानून बनने के लिए इसे लंबा रास्ता तय करना है। चूंकि जो बिल लोकसभा में पास हुआ था उसमें कई संशोधन किए गए हैं, लिहाजा इसे एक बार फिर मंजूरी के लिए लोकसभा में लाना होगा। इसके बाद कम से कम 15 राज्यों की सहमति इसके लिए जरूरी होगी। हालांकि जीएसटी को लेकर जिस तरह का ललक और इछा शक्ति अब तमाम सियासी जमातों के बीच दिख रही है, उससे बाकी का रास्ता न ज्यादा लंबा होगा और न अवरोध भरा, ऐसी उम्मीद है।
यह सरकार अपने दो साल से ज्यादा के कार्यकाल में आर्थिक सुधार के लिहाज से दो अहम विधेयक संसद के सामने लेकर आई- भूमि अधिग्रहण और जीएसटी। लाख कोशिश के बावजूद भूमि अधिग्रहण बिल को लेकर सरकार देश को यह समझाने में असफल रही कि यह गरीब और किसान विरोधी नहीं है। फिर राजनीतिक रूप से भी मोदी सरकार को इस बिल को पास करने की कवायद बहुत फायदेमंद नहीं दिखी और अंतत: उसने इसे ठंडे बस्ते में डालने का फैसला कर लिया। पर जीएसटी को लेकर यह कवायद कमजोर पड़ने के बजाय और जोर पकड़ती गई। राज्यसभा में संख्याबल में कमजोर पड़ने के कारण भूमि अधिग्रहण बिल को लेकर जो मुश्किल सरकार के आगे पहले थी, वह पिछले दिनों राज्यसभा के संपन्न द्विवार्षिक चुनाव के बाद थोड़ा उसके अनुकूल हुआ है। इससे स्वभाविक तौर पर सरकार का आत्मबल भी बढ़ा। इस बढ़े भरोसे का ही नतीजा था कि संसद का मानूसन संत्र शुरू होने से पहले सर्वदलीय बैठक में जब प्रधानमंत्री बोले तो उनका जोर सत्र को सुचारू रूप से चलाने से ज्यादा इस बात पर था कि जीएसटी हर हाल में पास होना चाहिए। यही नहीं, राजनीतिक गलियारों में यह बात भी चलने लगी कि सरकार अब कांग्रेस के न मानने की स्थिति में बगैर उसके समर्थन के भी राज्यसभा से इसे पास कराने का इरादा रखती है।
जीएसटी को देश में कर सुधार के लिहाज से अगर सबसे बड़ा कदम माना जा रहा है तो उसकी कुछ वाजिब वजहें हैं। देश में कर ढांचे की जटिलता को लेकर पिछले लंबे समय से बहस होती रही हैं। याद करें तो उदारीकरण के बाद हर सरकार ने टैक्स स्लैब से लेकर टैक्स कैप तक कई प्रयोग किए। पर इन सबसे कर ढांचे में कोई बुनियादी तब्दीली नहीं आई। प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों के नाम पर एक जटिल और बहुस्तरीय कर व्यवस्था देश के आर्थिक इंजन को अपेक्षित रफ्तार नहीं दे पा रहा था। इसलिए आज जब हर तरफ इस बात को लेकर मगजमारी चल रही है कि आर्थिक सुधारों का दूसरा दौर अग्रगामी हो कि प्रतिगामी, भारत ने इसका एक नया ब्लूप्रिंट दुनिया के समाने रखा है। आर्थिक सुधारों के इस नए ब्लूप्रिंट में टैक्स और बैंकिंग सुधार प्राइम एजेंडे में शामिल हैं। यही कारण है कि वित्तमंत्री इन दिनों जीएसटी के बाद सबसे ज्यादा किसी मुद्दे पर जोर देते दिख रहे हैं तो वह है बैंको के एनपीए को दहाई अंक से तीन-चार फीसद तक लाना। जीएसटी के अमल में आने के साथ जो कर-प्रणाली वजूद में आएगी उससे अप्रत्यक्ष करों की दरों में एकरूपता आने, व्यापार की सहूलियतें बढ़ने और फलस्वरूप अर्थव्यवस्था को और गति मिलने की उम्मीद है। प्रस्तावित व्यवस्था में केंद्रीय बिक्री कर, उत्पाद शुल्क, सीमा शुल्क, राज्यों का वैट और अन्य अप्रत्यक्ष करों को हटा कर सिर्फ एक टैक्स लागू किया जाएगा, जो कि वस्तु एवं सेवा कर होगा। उम्मीद है कि सभी राज्यों में कर की दर समान होने से कारोबार में आसानी होगी।
जीएसटी को लेकर एक पेंच इसके लागू होने से राज्यों को होने वाले नुकसान को लेकर भी फंसा रहा। विधेयक के जिस संशोधित मसविदे को राज्यसभा की हरी झंडी मिली है, उसके मुताबिक राज्यों को पांच साल तक पूर्ण क्षतिपूर्ति की गारंटी दी गई है। इससे पहले नुकसान की भरपाई की व्यवस्था तीन साल तक सौ, चौथे साल पचहत्तर और पांचवें साल पचास फीसद करने का प्रावधान था। जीएसटी की अधिकतम दर विधेयक में क्या हो, इसको लेकर भी पक्ष-विपक्ष में सहमित बनने में समय लगा। चूंकि यह संविधान संशोधन विधेयक है, इसलिए सरकार इस मामले में हिचकती रही। क्योंकि फिर दरों की अधिकतम सीमा में बदलाव की जरूरत महसूस होने पर आगे संसद के दोनों सदनों में दो तिहाई बहुमत जुटाने की जहमत उठानी होगी। इस तकनीकी परेशानी से आखिरकार विपक्ष भी सहमत हुआ। अंतिम तौर पर कहना होगा तो जीएसटी जरूर एक कर सुधार कानून भर है पर इसके जरिए भारत ने निश्चित तौर पर एक ऐसे दौर में कदम रखा है, जहां पर न सिर्फ बड़े सवालों पर राजनीतिक आम सहमित संभव है बल्कि लोकतंत्र का संघीय ढांचा ऐसी किसी दरकारों से चटकने के बजाय और मजबूत हुआ है। दुनिया के लिए इस मजबूती को समझना मौजूदा सूरत में दिलचस्प तो है ही, जरूरी भी है।
यहां एक बात का उल्लेख खासतौर पर जरूरी है कि बताया जाता है कि व्यापक कर सुधार के लिए जीएसटी को लेकर तकरीबन एक दशक से कोशिश चल रही थी। सबसे पहले यूपीए सरकार के तत्कालीन वित्तमंत्री पी. चिदंबरम ने 2006 में इसे लागू करने की दरकार संसद के सामने रखी थी। पर जीएसटी का इतिहास इससे भी पुराना है। दरअसल, 2000 में पहली बार सरकारी स्तर पर राज्यों और केंद्र के अलग-अलग कर ढांचे को एक करने का विचार आया। उन दिनों अटल बिहारी वाजपेयी केंद्र में एनडीए की सरकार चला रहे थे। वाजपेयी ने तब इस संभावना पर विचार करने के लिए एक कमेटी बनाई। 2004 में जीएसटी तो केलकर टास्क फोर्स का सुझाव आया। इस बीच केंद्र में सत्ता परिवतर्न हुआ और एनडीए की जगह यूपीए सत्ता में आ गई। पर अपने दस साल के शासन के दौरान सरकार की लाख कोशिश के बावजूद यह बिल कानून की शक्ल नहीं ले सका। आज सत्ता में बैठी भाजपा जीएसटी को लेकर तकरीबन उसी तरह रोड़े अटकाती रही, जैसे बीते दो सालों में कांग्रेस।
बहरहाल बात करें मौजूदा सूरतेहाल की तो जीएसटी विधेयक को आखिरकार राज्यसभा की हरी झंडी मिलने को अगर आप महज नरेंद्र मोदी सरकार की बड़ी कामयाबी के तौर पर देख रहे हैं, तो आप इस विधेयक के देशकाल को सही तरीके से नहीं पढ़ पा रहे हैं। एक ऐसे समय में जब ब्रेक्जिट जैसा प्रकरण आर्थिक अनुशासन की किसी बड़ी छतरी के विरोध को ग्लोबल फिनोमेना बनने की आशंका को बढ़ा रहा है, भारत में जीएसटी को लेकर बनी सहमित को अर्थ पंडित रिवर्स ब्रेक्जिट मान रहे हैं। यानी आर्थिक सुधार का एक ऐसा मॉडल जो लोकतांत्रिक संघीय ढांचे को और मजबूत करता है। यही वजह है कि जब रायसभा में वित्तमंत्री अरुण जेटली ने इस बिल को पेश किया तो इसके तकनीकी पक्षों के साथ भारत के संघीय ढांचे की इस खूबी को भी रेखांकित किया। (DJ)

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