Friday 12 August 2016

कश्मीर में सैन्य और सूचना अभियान चाहिए (लेफ्टि. जन. (रिटायर्ड) सैयद अता हसनैन)

नेटवर्क वालीदुनिया में लीडरशिप' विषय पर हाल ही में हुए सेमीनार में कश्मीर का मुद्‌दा बार-बार आया। मध्यप्रदेश के महू में हुए सेमीनार में स्पष्ट रूप से यह बात सामने आई कि जम्मू-कश्मीर के छद्‌म युद्ध में कई बार सेना ने जटिल स्थिति को काबू में किया, जबकि प्रत्येक स्थिति में अन्य किसी पहल की जरूरत थी। सच है कि जम्मू-कश्मीर को कई आर्थिक पैकेज दिए गए, लेकिन कश्मीरी को हमारी सोच के निकट लाने की पेशेवर कोशिश कभी शिद्‌दत से नहीं की गई। यह सिर्फ शासन का मामला नहीं है। वहां जीवन की गुणवत्ता में सुधार इस बात की गारंटी नहीं है कि कश्मीरियों की नई पीढ़ी खुद को भारतीय समझने लगेगी। जरूरी यह है कि घाटी के कुछ हिस्से अौर शायद पीर पंजाल के दक्षिण से लगे क्षेत्रों में जो उदासीन-सी कश्मीरी आबादी है वह यह महसूस करे कि भारतीय होना उसका हक है और वह भारतीय बने रहना चाहती है। इसे करने का कोई शॉर्ट कट नहीं है।
पिछले 26 वर्षो से जिन्हें यह छद्‌म युद्ध लड़ने का अनुभव है वे शायद यह बता सकें कि सैन्य अभियानों से आतंकियों की संख्या 14-180 तक सीमित कर देने से ओवरऑल मिशन में जीत नहीं हुई है। यह तो तभी हो सकता है, जब हम भारत का हिस्सा होने के विरोधी हर कश्मीरी को यह यकीन दिला दें कि आखिरकार उसका उसके बच्चों का भविष्य केवल भारतीय राष्ट्र में ही सुरक्षित है। यह तब होगा जब सैन्य अभियान के साथ 'सूचना अभियानों' के मिश्रण का हो।
क्या हमारे पास पूरी तरह सूचना संपन्न रणीतिक नेतृत्व है? यदि होता तो चिदंबरम जैसे लोग कभी 1947 की स्थिति में लौट जाने या अफ्स्पा हटाने (1990 का जम्मू-कश्मीर) जैसी बात नहीं करते। वह भी सरकार की ओर से सूचना अभियान और राजनीतिक पहल के बगैर। दुर्भाग्य से बहुत सारे विश्लेषक मानते हैं कि सैन्य बलों का प्रयोग ही जीत का रास्ता है। मैं इस मामले में उनसे कुछ हद तक सहमत होता कि पाकिस्तान वे सारे जो भारत के खिलाफ हैं उन्हें चोट पहुंचाने के लिए बल प्रयोग किया जाए। इसमें भी मुकम्मल जीत नहीं मिल सकती। ऐसी विजय अस्थायी होती है। इसलिए तो भारत को पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध के लिए तैयार रहना होगा और यह मानकर चलना होगा कि ऐसी जीत हमारे एक-दो शहरों के विनाश और पाकिस्तान के सारे प्रमुख शहरों के नष्ट होने की कीमत पर ही प्राप्त होगी। पूर्ण युद्ध के हिमायती शायद ही अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य पर निगाह डालते हैं, जहां स्थिति वैसी दो ध्रुवीय नहीं है, जैसी 1971 में थी।
कई लोग श्रीलंका का उदाहरण देते हैं कि जहां राजपक्षा ने लिट्‌टे को खत्म करने के लिए हर सैन्य साधन अपनाने की छूट देकर जीत हासिल की। यह समझने के लिए आपको सैन्य संघर्षों का विद्यार्थी होने की जरूरत नहीं है कि लिट्‌टे को किसी देश का समर्थन नहीं था। सच तो यह है कि भारत ने श्रीलंकाई सरकार को समर्थन देने के लिए अागे रहकर अपनी गतिविधियों पर अंकुश लगाया। श्रीलंका में कोई छद्‌म युद्ध नहीं चल रहा था, जिसमें परमाणु हथियारों वाले पूर्ण युद्ध का खतरा मौजूद हो। फिर भी जब तक तमिलों का मुद्‌दा अंतिम रूप से तय नहीं होता, सैन्य विजय राष्ट्रीय रणनीतिक विजय नहीं मानी जा सकती। तमिलों को यह यकीन दिलाने के लिए पर्याप्त सूचना अभियान नहीं चलाया गया कि तमिल शत्रु नहीं हैं और उनके बिना श्रीलंका अधूरा है। यही तर्क जम्मू-कश्मीर में लागू होता है। श्रीलंकाई तमिल सड़कों पर उतरकर पत्थर फेंककर विरोध नहीं करने लगे, क्योंकि लिट्‌टे खत्म होने के बाद विरोध को प्रोत्साहन देने वाला कोई नहीं रहा। जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तान का हाथ हमेशा रहा है और फिर वहां अलगाववादी नेतृत्व भी है, जिसे भारत ने ही एक तरह से पोसा है, उस उम्मीद में कि इसका दृष्टिकोण पूरी तरह बदल देंगे।
निश्चित ही रणनीति में पूर्ण बदलाव की जरूरत है। इसके लिए रणनीतिक नेतृत्व को यकीन दिलाकर निर्णायक दिशा देनी होगी। सैन्य अभियानों को एक समान रफ्तार से जारी रखा जाए, जबकि पुलिस बल सड़कों पर स्थिति काबू में करें, क्योंकि ऐसे विरोध की सीमा है पुलिस बलों को यह संदेश पहुंचा देना चाहिए। कुछ बदलाव के साथ उत्तरी आयरलैंड का मॉडल अपनाया जा सकता है। वहां सेना ने परिधि पर मजबूती से नियंत्रण रखा,जबकि ब्रिटेन सरकार ने सूचना, अार्थिक और प्रशासकीयअभियान चलाए। इसके लिए बेहतर सलाहकारों और प्रतिबद्ध नौकरशाहों के जरिये राज्य सरकार में ऊर्जा का संचार करना होगा।
कश्मीर में इस्लामी कट्‌टरपंथ ने आतंकवाद चलाया है। उप-राष्ट्रवाद से मज़हब का संबंध जिया-उल-हक की 1977 की दुष्ट योजना का हिस्सा था। पाकिस्तान आज भी उसी रणनीति पर चल रहा है, जबकि इसी विचारधारा ने उसे भीतर बहुत चोट पहुंचाई है। आईएसआई और पाकिस्तानी कट्‌टरपंथी जानते हैं कि मौजूदा पुरानी पीढ़ी को अधिक कट्‌टर बनाना बेकार है; अगले पीढ़ी उनका लक्ष्य है और बुरहान उनमें से एक था। इसका मुकाबला सूचना अभियान से ही किया जा सकता है, जिसे पहले खुद सूचना संपन्न होना पड़ेगा। खेद है कि भारत और खासतौर पर जम्मू-कश्मीर में थोड़े ही लोग है जिनमें जिया उल हक की तरह समझ, रणनीतिक बोध और नफासत हो कि वे सच्चे अर्थों में पेशेवर सूचना अभियान को जन्म दे सके।
सोचने की बात है कि प्रशांत किशोर भाजपा के लिए 2014 में सफल सूचना अभियान चला सकें और उसे जद (यू) के लिए बिहार में दोहरा भी सके। क्या उनके जैसे और लोग खोजकर तैयार करके एेसा कोई सूचना अभियान जम्मू-कश्मीर में नहीं चलाया जा सकता? सेना के पास मूलभूत जानकारी है और विभिन्न शाखाओं में सलाह देने वाले पर्याप्त योग्य लोग हैं। इसके लिए जम्मू-कश्मीर के आर्थिक पैकेज के एक हिस्से का उपयोग किया जा सकता है। यह लंबा चलने वाला अभियान होगा अौर जैसा की मैंने बार-बार कहा है पहला कदम- राष्ट्रीय रणनीतिक संचार आयोग की स्थापना से उठाया जा सकता है। वक्त गया है कि दिल्ली के रणनीतिक वर्ग को जम्मू-कश्मीर की स्थिति से निपटने की पूरी रणनीति का पुनर्परीक्षण करना चाहिए। जब सैनिकों को उस रणनीति पर भरोसा है तो शेष सभी को इसे गंभीरता से लेना चाहिए। (येलेखक के अपने विचार हैं।) (DB)

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