Wednesday 10 August 2016

फलस्तीन पर गरम, तिब्बत पर नरम (रामचन्द्र गुहा, प्रसिद्ध इतिहासकार)

मिस्र के लेखक आदाफ सोइफ नेटाइम्स लिटररी सप्लीमेंट के अपने ताजा लेख में फलस्तीन के बारे में किताबों और निबंधों की अनवरत बाढ़ की चर्चा की है। खुद फलस्तीनियों के अलावा इजरायली, अमेरिकी, दक्षिण अफ्रीकी, अंग्रेज और भारतीय लेखकों ने फलस्तीन के मुद्दे पर बहुत लेखन किया है।
सोइफ ने लिखा है, ‘इसमें पांच दशक लग गए, लेकिन अब यह बाढ़ और तेज होगी। किताबों पर किताबें चली आ रही हैं और इससे फलस्तीन की कहानी पूरी दुनिया में फैल रही है। यह फलस्तीनियों की बड़ी उपलब्धि है। अपने घर से बेघर कर दिए गए और आधुनिकतम राजनीतिक, कानूनी और जनसंपर्क तंत्र वाले राज्य और उसके ताकतवर मित्रों के खिलाफ फलस्तीनियों ने एक समाज और संस्कृति की तरह खत्म न होने की ठान रखी है।’
ये बहुत प्रभावशाली शब्द हैं और काफी हद तक जायज भी हैं। फलस्तीनियों का दमन वे लोग कर रहे हैं, जो आधुनिक इतिहास के सबसे दुखद अध्याय में खुद भुगत चुके हैं। यहूदियों को शताब्दियों तक सताने के अपराध-बोध से मुक्त होने के लिए पश्चिमी ताकतों ने यहूदियों के लिए एक देश बना दिया। इसमें उन्होंने उन लोगों के इतिहास, संस्कृति और हितों की पूरी तरह अवहेलना की, जो फलस्तीन में पहले से रह रहे थे। इजरायल के बन जाने के बाद अमेरिका ने उसे और ज्यादा समर्थन दिया। इजरायल ने संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों का लगातार उल्लंघन किया। फलस्तीन राज्य बनाने के अपने वादों से वह मुकरता रहा और कब्जा की हुई जमीनों पर उसने बस्तियां बसाईं और इसे अमेरिका के सभी राष्ट्रपतियों का समर्थन मिला।
फलस्तीनियों का समर्थन भारत समेत पूरी दुनिया के वामपंथियों के लिए बहुत बड़ा मुद्दा है। भारत के वामपंथियों ने फलस्तीन पर बहुत कुछ लिखा है और कई आयोजन भी किए हैं। फलस्तीन के लिए माक्र्सवादी समर्थन कुछ वजहों से अमेरिका के प्रति उनकी नफरत से भी जुड़ा है। इसकी वजह यह है कि अमेरिका इजरायल का सबसे घनिष्ठ मित्र है और शीत युद्ध के जमाने से दुनिया भर के वामपंथियों के लिए खलनायक है।
इसमें कोई शक नहीं कि फलस्तीनियों के साथ बहुत बुरा व्यवहार हुआ है, पर इतना ही बुरा व्यवहार तिब्बतियों के साथ भी हुआ है, जो हमारे ज्यादा करीब हैं। सोइफ के शब्दों में, चीनियों के अत्याचार के बावजूद तिब्बती अपनी संस्कृति और समाज को बचाए रखने के लिए प्रतिबद्ध हैं। दुख इस बात का है कि उनकी त्रासदी को दुनिया भर के वामपंथियों ने उपेक्षित किया है, जो फलस्तीनियों के लिए हर वक्त खड़े रहते हैं।
जहां तक भारतीय माक्र्सवादियों का सवाल है, तो वे केवल चुप नहीं हैं, बल्कि वे तिब्बतियों के दमन से कहीं न कहीं सहमत भी हैं। भारतीय माक्र्सवादी, चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के इस विचार का उत्साह के साथ समर्थन करते हैं कि तिब्बत पर कब्जा करके चीन वहां प्रतिक्रियावाद के खिलाफ विकास को बढ़ावा दे रहा है। भारत के माक्र्सवादियों की ‘कम्युनिस्ट’ चीन के प्रति अंधश्रद्धा उतनी ही मजबूत है, जितनी ‘पूंजीवादी’ अमेरिका के प्रति उनकी अतार्किक नफरत। इस वजह से फलस्तीनियों के लिए उनकी जितनी सहानुभूति है, उतनी ही उपेक्षा उनके मन में तिब्बतियों की तकलीफों के प्रति है।
सच्चाई यह है कि इजरायलियों का फलस्तीनियों के प्र्रति व्यवहार सभ्य नहीं कहा जा सकता, लेकिन तिब्बत में चीनियों का व्यवहार उससे कहीं बुरा है। इजरायलियों ने वेस्ट बैंक में बस्तियां बसाई हैं, लेकिन हान चीनियों ने तिब्बत का जिस तरह से अतिक्रमण किया हैै, वह ज्यादा भयावह है। पानी के स्रोतों के दोहन व खनन से तिब्बत में पर्यावरण का जो नुकसान हुआ है, वैसा फलस्तीन में नहीं हुआ। इजरायल ने फलस्तीनियों के धर्मस्थलों को कम से कम छोड़ दिया है, उसके मुकाबले चीनियों ने तमाम बौद्ध मठों को नष्ट कर दिया या लूट लिया है।
दूसरा फर्क यह है कि सन 1959 के विफल विद्रोह के बाद तिब्बतियों ने लगातार अहिंसा का रास्ता अपनाया है। जो हिंसा उन्होंने की है, वह अपने ही ऊपर है, जैसे आत्मदाह वगैरह। इसके बरक्स फलस्तीनियों ने हिंसा का रास्ता अपनाया और अक्सर उसके आत्मघाती हमलावरों ने निर्दोष इजरायली नागरिकों को मारा है। यह फर्क काफी हद तक नेतृत्व की वजह से है, क्योंकि यासिर अराफात, दलाई लामा नहीं हैं।
तीसरा फर्क ज्यादा महत्वपूर्ण है कि इजरायल में खुद शांति के पक्षधर समूह हैं, जो सरकार के रवैये का बहादुरी से विरोध करते रहते हैं। ऐसे लोगों में इजरायल के विख्यात विद्वान डेविड शुल्मन हैं, जिन्होंने भारत पर भी किताबें लिखी हैं और जो फलस्तीनी इलाकों पर इजरायली कब्जे का अहिंसक विरोध करते हैं। अपनी सीमाओं के अंदर इजरायल एक लोकतांत्रिक देश है, जहां आजाद प्रेस और स्वतंत्र न्यायपालिका है। इजरायली बुद्धिजीवी और कार्यकर्ता फलस्तीन के पक्ष में निर्भयता से खड़े होते हैं। इजरायली प्रेस की निष्पक्षता को अमेरिकी प्रेस के पक्षपात के बरक्स देखने पर इसका महत्व समझ में आएगा।
दूसरी ओर, चीन में ऐसी कोई आवाज नहीं है, जो तिब्बतियों के पक्ष में बोल सके। इसकी एक वजह यह है कि चीन अधिनायकवादी देश है, जहां अभिव्यक्ति की आजादी नहीं है। वहां नोबेल पुरस्कार विजेता लियू जियाबाओ को सरकारी नीतियों की आलोचना के लिए दस साल की कैद हो सकती है, लेकिन ज्यादा गंभीर वजह यह भी है कि चीन में एक हान वर्चस्ववादी दृष्टि सक्रिय है और कई बुद्धिजीवी भी इसके समर्थक हैं। वे यह मानते हैं कि चीन एक हान देश है और तिब्बतियों, उइगुर या अन्य समूहों को उनके हिसाब से ढल जाना चाहिए।
समाजवादी मानते हैं कि वे अंतरराष्ट्रीय नजरिये वाले और उपनिवेशवाद विरोधी लोग हैं, लेकिन वास्तविकता यह है कि भारत के माक्र्सवादी इन सिद्धांतों का पालन चुनिंदा रूप में करते हैं। किसी भी वस्तुनिष्ठ पैमाने पर अगर फलस्तीन के लिए इजरायली उपनिवेशवादी हैं, तो तिब्बतियों के लिए चीनी इससे ज्यादा दोषी हैं। दोनों ही मामलों में फौजी ताकत और सरकारी सत्ता का इस्तेमाल किसी कमजोर राष्ट्रीयता को कुचलने व शोषण के लिए किया गया है।
भारतीय कम्युनिस्टों को सन 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध करने के लिए काफी आलोचना सहनी पड़ती है। मेरे नजरिये से तिब्बत में चीनी अत्याचारों का समर्थन उनके इतिहास पर ज्यादा बड़ा कलंक है। सन 1942 में विश्व युद्ध चल रहा था और यह कुछ हद तक समझ में आने वाला तर्क है कि कोई भारत की आजादी की तुलना में हिटलर को हराना ज्यादा महत्वपूर्ण माने। तिब्बत और चीन के मामले में ऐसा कोई द्वंद्व नहीं है। चीन एक साम्राज्यवादी और हमलावर ताकत है, जिसके सामने तिब्बती ऐसे शिकार हैं, जो अपना बचाव तक नहीं कर पा रहे हैं। इसके बावजूद भारतीय माक्र्सवादी दलाई लामा को कोसते हुए नहीं थकते और उनके समाज व संस्कृति पर हो रहे आक्रमणों पर चुप्पी साध लेते हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)(हिन्दुस्तान )

No comments:

Post a Comment