Wednesday 10 August 2016

बाल अधिकार : किशोरों के अच्छे दिन काफूर (फैजान मुस्तफा)

यूपीए सरकार ने शिक्षा का अधिकार और खाद्य सुरक्षा का अधिकार प्रदान किया था, लेकिन अब केंद्र में जो सरकार है, उसकी नजर में संभवत: इनका कोई महत्त्व नहीं है। लगता है कि अधिकार या आजादी जैसी बातों में उसका विास नहीं है। एक तरफ सरकार द्वारा बनाए गए कानूनों और नीतियों में बच्चों के प्रति उपेक्षा झलकती है, तो दूसरी तरफ इनका किशोरों पर विध्वंसकारी प्रभाव स्पष्ट दिखलाई पड़ रहा है। चिंता में डाल देने वालीइन बातों में न केवल प्रतिगामी सोच दिख रही है, बल्कि ये बाल विज्ञान को लेकर किए गए नवीनतम शोधों की कसौटी पर भी खरी नहीं उतरतीं। बाल अपराधियों के लिए दिसम्बर, 2015 में पारित कानून, जिसके तहत बाल आरोपितों की वयस्कों की अदालत में सुनवाईकी अनुमति प्रदान की गई है, के उपरांत अब हम एक ऐसे विधेयक के रूबरू हैं जिससे बाल श्रम को जारी रखने को कानूनी अवलंबन मिल सकता है। दशकों से बच्चों के कल्याण के क्षेत्रमें सक्रिय कार्यकर्ता मांग करते रहे हैं कि जो बच्चा स्कूल में नहीं पढ़ता है, उसे बाल श्रमिक करार दिया जाना चाहिए। भारत के इंटरनेशनल कन्वेंशन ऑन द राइट्स ऑफ द चाइल्ड पर हस्ताक्षर कर चुकने के बावजूद हमारे यहां लगातार इस कन्वेंशन के प्रावधानों का उल्लंघन किया जाता रहा है। हमारा कानून चौदह वर्ष से कम आयु के बच्चों के ‘‘खतरनाक उद्योगों’ में रोजगार को ही प्रतिबंधित करता है। आज की तारीखमें 83 रोजगार खतरनाक की श्रेणी में हैं, लेकिन नए कानून से खतरनाक उद्योगों की श्रेणी से करीबन 80 को बाहर कर दिया जाएगा। मात्रतीन उद्योगों को ही खतरनाक करार दिया जाएगा। इस प्रकार ने सरकार ने 80 खतरनाक उद्योगों में भी किशोरों के लिए रोजगार के हालात बना दिए हैं। नए विधेयक के तहत केवल तीन उद्योग ही खतरनाक होंगे-वयस्कों के लिए और किशारों के लिए भी। इस प्रकार नए कानून में वयस्कों और किशोरों के बीच के बारीक अंतर की पूरी तरह से अनदेखी की जा रही है। इस अंतर की अनदेखी न केवल अतार्किक है, बल्कि मनमानी और समानता के कानून का स्पष्ट उल्लंघन है। यह असमानता को समानता की तरह माने जाने का मामला है, जिसकी संविधान अनुमति नहीं देता। जो नया श्रेणीकरण किया जा रहा है, वह यकीनन मनमाना और बेतुका है। इतना ही नहीं विधेयक में किशोरों के प्रति तो उपेक्षा दिख ही रही है, यह चौदह वर्ष से कम आयु के बच्चों के प्रति भी कठोर है क्योंकि इसके तहत ‘‘गैर-खतरनाक पारिवारिक उद्यमों’ में चौदह साल के कम बच्चों को रोजगार देने की अनुमति होगी। राहत की बात इतनी भर है कि इन बच्चों को स्कूली समय के पश्चात या स्कूली के अवकाश दिवसों में ही काम करने की अनुमति होगी। परिवार शब्द को काफी व्यापक रूप से परिभाषित किया गया है। चाचाओं, मामाओं, भतीजों-भतीजियों के साथ ही किसी उद्यम से परिवार का कोईसदस्य जुड़ा है तो उसे भी परिवार में शुमार किया गया है। और इस ‘‘पारिवारिक उद्यम’ में बेखटके चौदह साल के कम आयु के बच्चे को रोजगार पर लगाया जा सकेगा। विधेयक से हमारी स्कूली पण्राली के बारे में नासमझी का भी पता चलता है, जहां बच्चों को भारी बस्ते ढोने पड़ते हैं, और बेहद तनाव के साथ पाठय़क्रम की कभी पूरी न होती दिखती समय-सीमा की चिंता से दो-चार होना पड़ता है। भारतीय बच्चे स्कूल से थके-मांदे घर लौटते हैं। फिर घर के काम भी उन्हें बेहद थका देते हैं। इन बच्चों से कथित पारिवारिक उद्यमों में कार्य करने की उम्मीद करना अमानवीयता है। क्या बाल श्रम को प्रतिबंधित करने के बजाय उसे विधिसम्मत बनाए जाने के प्रयास नहीं हो रहे क्योंकि हकीकतन अधिकांश बच्चे कथित पारिवारिक उद्यमों में पहले से ही काम करते आ रहे हैं। देश के प्रति चार बच्चों में से तीन खेतीबाड़ी या घरेलू उद्योगों में हाथ बंटाते हैं। हमारे लिए शर्म की बात है कि पिछली जनगणना के मुताबिक, पांच से चौदह साल तक के करीब 43 लाख बच्चों को रोजगारों में खटने को विवश होना पड़ता है। अगर हम चाहते हैं कि पारिवारिक हुनर या पेशों, जो पीढ़ी दर पीढ़ी सीखे जाते रहे हैं, में बच्चे भी पारंपगत हो जाएं तो क्यों न इन दक्षताओं को व्यावसायिक शिक्षा में शामिल कर लिया जाए। बच्चे विधिवत पाठय़क्रम के जरिए इन्हें सीख सकेंगे और दशकों से जारी जाति-आधारित पेशों का पुराना पड़ चुका सिलसिला भी समाप्त हो सकेगा। हालिया घटनाओं के बाद दलितों ने मृत जानवरों की खाल उतारने के अपने पुश्तैनी माने जाने वाले काम को छोड़ने का मन बना लिया है। इसी प्रकार मोदी सरकार ने बीते वर्ष बाल न्याय कानून पारित किया था, जिसके तहत अवयस्क आरोपितों को वयस्कों की भांति दंडित करने और जेले भेजे जाने का प्रावधान किया गया। हाल में एक वाहन हादसे में भी जुवेनाइल बोर्ड ने एक किशोर की सुनवाईवयस्कों की अदालत में करने की सिफारिश की थी। किसी ने भी इस तय पर ध्यान नहीं दिया कि वाहन हादसा उसका घृणित अपराध नहीं था। कांग्रेस भी उतनी ही दोषी है जितनी कि भाजपा। संसदीय र्चचाओं में केवल माकपा और द्रमुक के सदस्यों ने बाल अपराधों के प्रति थोड़ी समझदारी दिखाई है। विधेयक के नाम और इसकी व्याख्या में भी विरोधाभास है। इस कानून को जुवेनाइल जस्टिस (केयर एंड प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रन) अमेंडमेंट बिल, 2015 नाम दिया गया, जबकि यह बच्चों से संविधान तथा यूनाइटेड नेशंस कन्वेंशन ऑन द राइट्स ऑफ चाइल्ड, 1992, जिस पर विश्व के 190 से ज्यादा देशों ने हस्ताक्षर किए हैं, द्वारा प्रदत्त अधिकारों का ही हरण कर लेता है। बाल श्रम विधेयक भी इसी प्रकार की नासमझी दर्शा रहा है। लगता है सरकार ने वही रणनीति भी अपनाईहै। बाल श्रम के उन्मूलन के नाम पर यह उसे विधि-सम्मत बनाता दिख रहा है। लेकिन हमें बच्चों के प्रति संजीदगी तो दिखानी ही चाहिए। (लेखक नलसार लॉ यूनिवर्सिटी, हैदराबाद के वाइस चांसलर हैं)(RS)

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