Wednesday 10 August 2016

फुर्ती पूर्णता से किया काम गर्व पैदा करता है (वाइस एडमिरल गिरीश लुथरा फ्लैगऑफिसर कमांडिंग इन चीफ, पश्चिमी नौसेना कमान )

हम सभीमें छिपी हुई प्रतिभा होती है। कुछ कुछ खासियत होती है पर हमें इसका पता नहीं होता। जरूरत है, तो सिर्फ उसे पहचानकर अमल में लाने की। जैसे जब मैं जूनियर ऑफिसर था और कोई मुझे लेख लिखने को कहता तो मेरा जवाब होता, 'लिखना-विखना मेरे बस की बात नहीं है।' किंतु जब मैंने रिसर्च करके लिखा, तो मैंने महसूस किया कि मैं लिख सकता हूं। उसे स्टॉफ कॉलेज में प्रथम पुरस्कार मिला। मेरा आत्म-विश्वास इतना बढ़ा कि मैंने अमेरिका में एक इंटरनेशनल कोर्स के दौरान दो शोध-पत्र लिखे। लगभग सभी देशों के लोग वहां थे और मेरे दोनों शोध-पत्र प्रथम पुरस्कार से नवाजे गए। मेरी यह खासियत कोशिश करने पर सामने आई। जब आप कोशिश करेंगे, तो प्रगति जरूर होगी। आपकी सफलता आपके मानसिक विचार पर निर्भर है। जब आप सोच लेते हैं कि यह मुझे करना है तो आप पूरी मेहनत, लगन और ईमानदारी से उसमें जुट जाते हैं। जो काम आपको शुरू में बहुत मुश्किल लग रहा था, उसी में आप आगे की कतार में होते हैं।
जब 1971 का युद्ध शुरू हुआ था तब मैं हरियाणा के करनाल स्थित टैगोर बाल निकेतन स्कूल में पढ़ रहा था। जब सेना की टुकड़ियां जंग के लिए बॉर्डर की ओर जातीं, तो स्कूल-कॉलेजों की ओर से जवानों के लिए लंच और डिनर के कैंप आयोजित किए जाते थे। मैं इनमें बहुत ही बढ़-चढ़कर हिस्सा लेता था। मैं जब भी सेना के जवानों को देखता तो उनके प्रति बहुत ही आदर का भाव मन में होता।
मैं स्कूल के बाद पढ़ाई पूरी करके डॉक्टर बनने की प्लानिंग कर रहा था। उस वक्त 11वीं कक्षा के बाद आप एमबीबीएस जैसे पेशेवर कोर्स में दाखिला ले सकते थे। किंतु बीच में ही एनडीए प्रवेश परीक्षा देने का विचार आया। जब मैंने क्वालिफाई कर लिया तो घर में चर्चा हुई। नेवी ज्वॉइन करने का निर्णय मेरे पैरेंट्स पूरे परिवार का संयुक्त निर्णय था। इस तरह मैंने 1975 में नेशनल डिफेंस एकेडमी (एनडीए) ज्वॉइन की। शुरू में मुझे ट्रेनिंग बहुत मुश्किल लगी। वहां सेमेस्टर सिस्टम था। हर सेमेस्टर को टर्म कहते हैं। पहले तीन टर्म बहुत मुश्किल रहे। मुझे अकादमिक पढ़ाई और बाहरी गतिविधियों खेल दोनों में तालमेल बैठाना काफी मुश्किल लग रहा था। फिर मैंने तीसरे सेमेस्टर में ठाना कि मुझे सब चीजों में तालमेल समन्वय बिठाना ही है। जैसे ही मेरे मन में यह सोच आई। अचानक मेरा प्रदर्शन सुधरने लगा। जब एनडीए से बाहर निकलने का वक्त आया, तो सभी क्षेत्रों में मेरा प्रदर्शन बहुत अच्छा था, जिन विषयों में मैं मुश्किल से पास हो रहा था। उनमें टॉप करने लगा। यह कैसे हुआ? क्योंकि मैंने सोच लिया कि मुझे यह करना ही है। इस तरह सफलता एक तरह से मेंटल थॉट, मानसिक विचार है। यदि आप सोच लें कि यह करना ही है, तो कुछ तो जरूर हो सकता है। शुरू में थोड़ा चैलैंजिंग लगता है।
उसके बाद आई नेवी की बेसिक ट्रेनिंग जो जहाज पर होती है। हमारी ट्रेनिंग सिर्फ शिक्षा तक ही सीमित नहीं है। सर्वांगीण विकास पर फोकस रहता है। मैंने इस प्रशिक्षण का महत्व समझा और उस पर अमल करना शुरू किया। पहले जहां में मुश्किल से ट्रेनिंग में निकल रहा था। वहीं बेस्ट आॅल राउंड कैडेट बना। नेवी में हम लोगों के लिए सबसे बड़ा रोल मॉडल 'नेवी का वैल्यू सिस्टम' है। वह हमारी हर तरह की अप्रोच बदलता है। इसके अलावा हमारे बड़े अधिकारी, सहकर्मी, जूनियर और टीम मेंबर सभी में कुछ कुछ खूबी होती है। इन खुबियों को जब हम जानने लगते हैं और सभी में से कुछ कुछ सीखते हैं, तो सफलता हासिल होती है। जब लंदन के लिए मेरा चयन हुआ, तो मैं लेफ्टिनेंट कमांडर था। मैं 1991 में लंदन गया। मेरी पोस्टिंग भारतीय उच्चायोग में हुई। मैं पहली बार डिप्लोमैटिक पोस्टिंग पर था। कुछ समय पहले ही 'विराट,' सी किंग हेलिकॉप्टर्स, सी-हैरियर एयरक्राफ्ट भारत में आए थे। इनके कल-पूर्जे और लॉिजस्टिक सपोर्ट ब्रिटेन से होती थी। हमें इसे सुनिश्चित करने का अतिरिक्त दायित्व सौंपा गया। डिप्लोमेटिक रोल का ज्यादा अनुभव नहीं था, लेकिन मैंने एनडीए वाला नुस्खा अपनाया और बहुत जल्द सभी काम करने लगा। मेरे पास स्टॉफ में इंडियन आर्मी का एक सूबेदार ही था। बहुत कम समय में बहुत बड़े पैमाने पर खरीदी करनी की। इस काम में हमने राष्ट्रीय छवि तो अच्छे ढंग से प्रस्तुत की ही साथ में 10 ला डॉलर की बचत भी की, क्योंकि तब 1991 में देश में विदेशी मुद्रा भंडार का संकट पैदा हो गया था।
कारगिल युद्ध के वक्त मैं आईएनएस कुकरी का कमांडिंग आॅफिसर था। ईस्टर्न नेवल कमांड में विशाखापट्‌टनम में तैनात किया गया था। तब नेवी ने भी दबाव बनाया था। जैसे जमीन पर युद्ध के वक्त बॉर्डर की ओर कूच किया जाता है, ठीक उसी तरह हम भी समुद्र में तैनात होकर आगे बढ़ रहे थे। यह भी एक बड़ा अनुभव रहा। एक बार मैं नेविगेटिंग आॅफिसर था विराट पर। तब हम शार्ट नोटिस पर मेजर ऑपरेशन की तैयारी कर रहे थे। मुझे मेरी टीम की लगन, प्रतिभा, देश के प्रति समर्पण, अनुशासन और कड़ी मेहनत पर हमेशा फ़ख्र रहा है। जब हम स्पीड (फुर्ती, रफ्तार) और थारोनेस (पूर्णता) दोनों से काम करते हैं, इसे अपनी दिनचर्या में लाते हैं, तो हम हर दिन फ़ख्र महसूस करते हैं। विराट पर मुझे बहुत काम करने का सौभाग्य मिला। जब विराट देश में आया, तो दो साल 1998-90 में नेविगेटिंग ऑफिसर रहा। 1995-94 में फ्लिट नेविगेटिंग ऑफिसर रहा। फिर मैं 2006 में विराट पर कैप्टन रहा। चौथी बार 2011-2012 में मैं विराट पर चीफ कमांडर के रूप में रहा और अब तो विराट हमारी ही कमांड में है।
विराट से मेरी बहुत ही खास यादें जुड़ी हुई हैं। एक बार ऐसा हुआ कि मैं चीफ नेवीगेटिंग ऑफिसर था। विराट के ब्रिज पर सुबह 6 बजे गया था। अपने काम में हम इतना लीन हो गए कि शाम हो गई, सारी रात निकल गई, अगले दिन की सुबह हो गई और हम वहीं थे। सिर्फ कैप्टन बैठता है ब्रिज पर। तब हम करीब 28-30 घंटे खड़े विराट पर अपने काम में लगे रहे। इतना इन्वॉल्वमेंट हो जाता था कि वक्त का पता ही नहीं चलता था। समुद्र बहुत ही चैलेंजिंग और जमीन हवा से भी ज्यादा डिमांडिंग एनवायरमेंट है। नेचर के खिलाफ लड़ना आसान नहीं होता। जब रफ सी होता है तो बहुत ही चुनौतीपूर्ण होता है साथ ही वह बहुत ही सूदिंग और कामिंग भी होता है। (DB)

No comments:

Post a Comment