Wednesday 10 August 2016

नेपाल : टिकाऊ हल नहीं दिखता (अवधेश कुमार)

नेपाल की राजनीति का रास्ता आसान हो ऐसा नहीं है। इस समय कांग्रेस एवं माओवादी भले एक दिख रहे हों, पर वे दो वैचारिक ध्रुव की पार्टयिां हैं। सुशील कोईराला के खिलाफ इन्हीं माओवादियों ने अभियान चलाया था तथा उन्हें सितम्बर में संविधान की स्वीकृति के बाद दोबारा प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया था। 11 अक्टूबर 2015 को मतदान में केपी शर्मा ओली को प्रधानमंत्री चुना गया था और उन्होंने 12 अक्टूबर को प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। ओली को 598 में से 338 वोट मिले थे, क्योंकि उनको 14 राजनीतिक दलों और एक निर्दलीय सांसद का समर्थन हासिल था। ओली ने सुशील कोइराला को 89 मतों से पराजित किया था। कोइराला को 249 मत ही मिल पाए थे। यह समीकरण पलट गया है। प्रचंड प्रधानमंत्री होने वाले हैं तो क्या कांग्रेस उनके पक्ष में उसी तरह खड़ी होगी जिस तरह की एकता उसने ओली को हटाने के लिए दिखाई है? यह आसान नहीं है। ओली के विरु द्ध खड़ा होने के लिए जो सबसे बड़ा कारण दिया गया है, वह है उनकी एकाधिकारवादी शैली। माओवादी नेताओं ने ओली सरकार पर पिछले समझौतों को लागू न करने का आरोप लगाया है। ओली के आलोचकों ने कहा कि वे वादे के अनुसार काम नहीं करते। माओवादी प्रमुख प्रचंड ने संसद ने कहा कि प्रधानमंत्री अहंकार केंद्रित और आत्म-केंद्रित हो गए हैं। ये आरोप निराधार नहीं हैं। ओली ने जिस तरह प्रधानमंत्री बनने के पूर्व ही आक्रामक होकर संविधान को जबरन स्वीकृत कराया और मधेसियों को छोड़कर सारी पार्टयिों ने उसे स्वीकार किया उससे हो सकता है वो थोड़ा अति आत्मविास के शिकार हो गए होंगे। अगर छह महीना पूरा होने के बाद मई में सरकार का मुखिया बदलने का उनका वायदा था तो या तो उसका पालन करना चाहिए था या फिर गठबंधन एवं समर्थक दलों की बैठक बुलाकर उसमें इसके प्रति सहमति बनानी चाहिए थी। यह उन्होंने नहीं किया। वे पूर्ण बहुमत वाली सरकार के मुखिया की तरह व्यवहार करने लगे थे। इसके खिलाफ विद्रोह होना ही था। नेपाली कांग्रेस तो वैसे भी उनसे खार खाए बैठी थी। मौका मिलते ही उसने माओवादियों के साथ मिलकर ओली को पटखनी दे दी। लेकिन इसके बाद क्या? क्या जो अगला प्रधानमंत्री होगा उसकी राहें निष्कंटक होंगी? सारी चुनौतियां वैसी ही हैं। फिर समर्थन और गठबंधन के लिए नए समझौते होंगे। जो भी प्रधानमंत्री बनेगा उसने यदि उनका पालन नहीं किया तो उसके खिलाफ भी विद्रोह होगा। नेपाली कांग्रेस इस समय माओवादी प्रचंड को समर्थन दे भी दे तो वह लंबे समय तक इसे जारी रख नहीं सकती। ऐसे में नेपाल का राजनीतिक अस्थिरता से उबरना अभी संभव नहीं लगता। 2006 से नए संविधान की रचना के लिए हुए चुनाव के बाद 10 वर्ष के अंदर यह आठवीं सरकार गई है। ऐसी अस्थिरता में नेपाल का होगा क्या?वास्तव में पिछले वर्ष सितम्बर में नया संविधान लागू होने के बाद से ही नेपाल संकट से जूझ रहा है। मधेसियों ने इस संविधान को स्वीकार नहीं किया। उन्हें और थारु जैसी जनजातियों को लगा इससे उनकी पहचान खतरे में पड़ जाएगी। एक मधेस एक प्रदेश की उनकी मांगें नहीं मानी गई। उनका आंदोलन कई महीनों तक चला तथा वह उग्र एवं हिंसक भी था। उस आंदोलन में 50 लोग मारे गए। मधेसियों ने भारत से जुड़ने वाले रास्तों की नाकेबंदी कर दी जिससे नेपाल में आवश्यक वस्तुओं की किल्लत पैदा हो गई। ओली, उनके मंत्री, नेता अपनी आंतरिक समस्या सुलझाने के बजाय भारत पर आरोप लगाने लगे कि उसने दबाव में लाने के लिए सामानों की आपूत्तर्ि रोक दी है। सच यह था कि उस समय की हिंसा में कोई व्यापारी सामान ले जाने का जोखिम उठा ही नहीं सकता था। ओली ने स्वयं भारत के खिलाफ ऐसे तीखे बयान दिए जिससे रिश्ते में भारी खटास पैदा हुई। ओली ने चीन से भारत का स्थानापन्न करने की कोशिश की और इसमें उनको माओवादी सहित कई पार्टयिों का समर्थन था। प्राकृतिक स्थिति में यह पूरी तरह संभव नहीं कि भारत का स्थान मालों की स्वाभाविक आपूत्तर्ि के मामले में चीन ले ले। खैर, भारत के प्रयास से ही मधेसी आंदोलन शांत हुआ, सरकार ने उनकी मांगों पर विचार करने का आश्वासन दिया एवं सामग्री की आपूत्तर्ि अब सामान्य गति से हो रही है। जो भी नई सरकार आएगी उसके सामने समस्या रहेगी, क्योंकि मधेसियों एवं थारुओं की मांगे पूरी नहीं हुई हैं। ये इनके लिए जीने-मरने का प्रश्न है। भारत की कोई भी सरकार मधेसियों एवं थारुओं को नजरअंदाज कर नेपाल की सरकार के साथ अच्छे रिश्ते नहीं रख सकती। अगर प्रचंड प्रधानमंत्री बनते हैं तो उनके पास मधेसियों की मांगों का संवैधानिक समाधान का इरादा है या नहीं, यह देखना होगा। जहां तक भारत से संबंधों की बात है तो ओली ने यद्यपि चीन की ओर गहरा झुकाव दिखाया और भारत के खिलाफ तीखे बयान देते रहे, लेकिन उन्होंने पहली विदेश यात्रा के रूप में भारत को ही चुना। हालांकि उसके बाद 20 मई 2016 को जब उन्होंने चीन का दौर किया तो उनके सुर बदले हुए थे। वे 50 सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल के साथ वहां गए थे। ओली की सरकार ने चीन से ईधन आयात की भी घोषणा कर दी। यह बात अलग है कि वह भारत का स्थानापन्न करने में सक्षम में नहीं हुआ। उस दौरान तेल खोज, ट्रेडमार्क और पोखरा में अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा निर्माण को लेकर समझौता हुआ। साथ ही तिब्बत के साथ संपर्क जोड़ने वाले सिमिकोट-हिलसा रोड पर ओवर ब्रिज निर्माण के लिए समझौते पर हस्ताक्षर हुआ जिसके पक्ष में भारत न था, न हो सकता है। प्रचंड नेपाल के पहले प्रधानमंत्री थे, जिन्होंने परंपरा तोड़कर पहले चीन का दौरा किया था और उसके बाद भारत आए थे। उसके पूर्व तक यह परंपरा थी कि कोई भी नेपाली प्रधानमंत्री पहले भारत का दौरा करता था। यह आपस के विशिष्ट अंतरंग संबंधों का द्योतक था। प्रचंड का झुकाव भी चीन की ही तरफ है, ओली की तरह। (RS)

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