Wednesday 10 August 2016

तेजी से बदल रहा है तिब्बत (अनिल आजाद पांडेय)

चीन के दक्षिण पश्चिम में स्थित विश्व की छत और धरती का तीसरा ध्रुव कहे जाने वाले तिब्बत का नाम सुनकर ही रोमांच पैदा होता है। बौद्ध धर्म का प्रमुख स्थल होने के साथ-साथ आध्यात्म और बौद्ध मठों व लामाओं की धरती के रूप में भी इसे जाना जाता है। कैलाश मानसरोवर और विश्व की सबसे ऊंची चोटी माउंट एवरेस्ट भी तिब्बत में है। तिब्बत की औसत ऊंचाई 4 हजार मीटर से अधिक है। दुनिया भर के लिए रहस्यमयी और बाहरी लोगों की पहुंच से बहुत दूर तिब्बत की सुंदरता अपनी ओर आकर्षित कर लेती है। तिब्बत आखिर कैसा है, वहां के लोगों का जीवन कैसा है, वहां की संस्कृति कैसी है, इस तरह के सवाल अकसर मेरे मन में उठते थे।
दो साल पहले तिब्बत से सटे छिंगहाई प्रांत (तिब्बती बहुल) में 4780 मीटर की ऊंचाई तक जाने का मौका मिला था, पर तिब्बत जाने के लिए मन आतुर था, चीन में सात वर्षो से रहते हुए भी ऐसा नहीं हो पाया था। भारत में मेरे दोस्त और जानकार अकसर तिब्बत जाने की इछा प्रकट करते और मुझसे इस बारे में कहते थे। तिब्बत जाने के लिए विशेष अनुमति लेने की जरूरत होती है। चीनी लोगों को भी वहां जाने का कम ही मौका मिलता है, लेकिन विदेशियों के लिए तिब्बत जाना और भी मुश्किल होता है। और इस बार चार जुलाई को जीवन का अविस्मरणीय अवसर आया, जब बीजिंग से विदेशियों के एक दल के साथ तिब्बत के लिए रवाना हुआ। तिब्बत जाने का मकसद था, वहां आयोजित होने वाले, ‘तिब्बत विकास मंच’ में शिरकत करना।
बीजिंग से ल्हासा की दूरी (हवाई मार्ग) लगभग 2,200 किमी है, सोमवार चार जुलाई की सुबह 7.40 पर एयर चायना के एयरोप्लेन ने बीजिंग एयरपोर्ट से ल्हासा के लिए उड़ान भर दी। दोपहर के वक्त हमारा प्लेन ल्हासा हवाई अड्डे पर उतरा। ल्हासा एयरपोर्ट पर उतरते ही हमें तिब्बत में हो रहे विकास की झलक मिल गई। पठार पर होने के बावजूद एयरपोर्ट को सभी सुविधाओं से युक्त बनाया गया है। बस में बैठते ही हमें पता लगा कि एयरपोर्ट से हमारे होटल की दूरी लगभग 60 किमी है। पहली बार तिब्बत पहुंचे विदेशियों के लिए एयरपोर्ट से शहर जाने वाली शानदार सड़क को देखना किसी आश्चर्य से कम नहीं था। सड़क पर कहीं पर भी गढ्डे नहीं थे और हमारी बस सरपट दौड़ रही थी। एयरपोर्ट से होटल तक की दूरी तय करने में बस ने महज 45 मिनट का समय लिया।
तिब्बत पिछले कुछ वर्षो में कितना कुछ बदल गया है, यह मुङो हॉर्वर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर और तिब्बत मामलों के जानकर लियोनार्ड वान डर क्वेजिप से मिलकर पता चला। वह कहते हैं कि जब साल 1982 में पहली बार तिब्बत आए थे, तब हवाई अड्डे से ल्हासा शहर तक पहुंचने में करीब छह घंटे लगते थे। सड़क पूरी तरह कची, उबड़-खाबड़ और टूटी थी, एयरपोर्ट से शहर तक जाना किसी चुनौती से कम नहीं होता था। यह तिब्बत में हुए जबरदस्त बदलाव की तस्वीर पेश करने का एक सटीक उदाहरण है।
ल्हासा शहर को देखकर बिल्कुल भी नहीं लगता कि हम चीन के दक्षिण पश्चिम में सुदूर पठार पर आ गए हैं। यहां ऊंची-ऊंची इमारतें, मॉल, होटल, शॉपिंग सेंटर, पेट्रोल पंप के साथ-साथ अछी सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था है। बेहतरीन सड़कें और आधुनिक सुविधाओं से लैस स्कूल और विश्वविद्यालय देखकर बाहरी लोगों की तिब्बत के प्रति सोच बदलने लगी है। 1959 से पहले तिब्बत में एक भी आधुनिक स्कूल नहीं था। अब 1500 से अधिक स्कूल हैं। ऐसा नहीं है कि तिब्बत में सब आधुनिक हो चुका है, परंपरागत भवन, तिब्बती शैली के मंदिर, मठ और बाजार भी हैं। अब भी तमाम लोग तिब्बती वेश-भूषा में ही नजर आते हैं। जो इस बात का उदाहरण कहे जा सकते हैं कि सरकार ने आधुनिकता पर जोर देने के साथ-साथ स्थानीय संस्कृति को भी बराबर महत्व दिया है।
भारत और बौद्ध धर्म को तिब्बत में बड़ा सम्मान हासिल है। लोग भारतीय बौद्ध भिक्षुओं के तिब्बत पहुंचने और उनके ज्ञान की चर्चा करते हैं। तिब्बत के मठों में जाकर एहसास होता है कि भारत से किस तरह बौद्ध धर्म का पड़ोसी मुल्कों में प्रसार हुआ। यहां के मठों में अवलोकितेश्वर, शाक्य मुनि आदि की बड़ी-बड़ी मूर्तियां सैंकड़ों वर्षो से सुरक्षित हैं। ल्हासा से सौ किमी से अधिक दूर लोका प्रिफेक्चर में सातवीं से नवीं शताब्दी के बीच निर्मित साम्ये मठ है, जो तिब्बत में बौद्ध धर्म के आगमन की कहानी पेश करता है। यह तिब्बत का पहला मठ माना जाता है। मठ में प्राचीन मंदिरों और अवशेषों के संरक्षण पर विशेष ध्यान दिया गया है।
ल्हासा के केंद्र में स्थित प्राचीन जोखांग मठ है, जो तिब्बती, भारतीय और नेपाली पुरातात्विक डिजाइन में निर्मित है। वहां दूर-दूर से आए श्रद्धालु पूजा-अर्चना करते हैं। मठ में बौद्ध भिक्षुओं के अलावा आम लोगों की बहुत भीड़ रहती है। जोखांग मठ से सटी हुई है बार्खोर स्ट्रीट, वहां कई तरह के स्थानीय उत्पाद मिलते हैं, साथ ही भारतीय और नेपाली वस्तुएं भी, जिनमें वस्त्र के अलावा, धूप, अगरबत्ती आदि शामिल हैं।
इसके साथ ही ल्हासा में स्थित और विश्व प्रसिद्ध पोताला महल के आसपास 11 बजे भी चहल-पहल रहती है, यह तिब्बत के आधुनिक होने का एक और नमूना है। लाल पहाड़ी पर स्थित उक्त महल का विशाल ढांचा स्तब्ध कर देने वाला है, जो विशेष तिब्बती स्टाइल में बना है, अब तक पूरी तरह सुरक्षित है। 1994 में इसे वर्ल्ड कल्चरल हैरिटेज साइट घोषित किया गया। पूर्व से पश्चिम में 400 मीटर और उत्तर से दक्षिण में 350 मीटर तक फैले महल में एक हजार कमरे हैं।
ल्हासा से दक्षिण में स्थित 170 किमी दूर शान नान कस्बा है। रास्ते में ल्हासा नदी और विशाल यारलोंग जांगपो नदी (तिब्बत की सबसे बड़ी नदी) भी पड़ती है। नदी की विशालता के अलावा जिस चीज ने हमारा सबसे अधिक ध्यान खींचा, वह था नदी के किनारों पर किया गया वृक्षारोपण, जहां नजर दौड़ाई जाय, वहां पानी के साथ-साथ पौधे लगाए गए थे। पूछने पर पता चला कि पठारीय इलाके में नदी में पानी कम हो जाने पर तेज हवा रेत को उड़ा ले जाती है, जिससे आसपास के गांवों में धूल का गुबार उठता रहता है। इससे निजात पाने के लिए यह तरीका अपनाया गया है। यह वही नदी है जो, भारत के असम में पहुंचकर ब्रह्मपुत्र और बांग्लादेश में जमुना नदी कहलाती है। रास्ते में छोटे-छोटे गांव भी दिखे, लोगों द्वारा पाले गए याक, भेड़ व अन्य जानवर भी। इससे पता लगता है कि अभी तिब्बत में विकास की व्यापक संभावना है।
सरकार द्वारा किए गए उपायों के बावजूद गरीबी उन्मूलन का काम पूरा नहीं हो सका है। इसके अलावा हम तिब्बत के पहले डेमोक्रेटिक रिफार्म विलेज गए। वहां पर मौजूद चीजें 1959 के पहले की तिब्बत की याद दिला रही थी। बताते हैं कि भूदास व्यवस्था के दौरान जमींदार आम लोगों को दास बनाकर जंजीरों में बांध कर रखते थे। वह जगह अब भी छोटे से म्यूजियम के तौर पर संरक्षित है। स्थानीय अधिकारी 28 मार्च, 1959 को तिब्बत के इतिहास की एक नई शुरुआत मानते हैं। जिसके बाद लाखों लोग सामंती दास व्यवस्था की जकड़नों से बाहर निकले। और आज विकास की राह पर ति}बत निकल पड़ा है।
(लेखक चायना रेडियो से जुड़े हुए हैं) (DJ)
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