Monday 22 August 2016

मेडल से कहीं आगे है साक्षी की जीत (जगदीश कालीरमन, अंतरराष्ट्रीय पहलवान और कुश्ती कोच)

साक्षी मलिक की जीत कई मायने में उल्लेखनीय है। इसे सिर्फ इस रूप में नहीं देखा जा सकता कि उन्होंने रियो ओलंपिक में हमारे लिए पहला मेडल जीता और पहलवानी में यह उपलब्धि हासिल करने वाली वह देश की पहली महिला बनीं। उनकी यह जीत इससे कई ज्यादा महत्वपूर्ण है। याद कीजिए 2012 के लंदन ओलंपिक को। उसमें महज एक महिला पहलवान क्वालिफाई कर पाई थी, और हमारे हिस्से महिला पहलवानी से कोई पदक नहीं आया था। मगर इस बार तीन महिला पहलवान रियो पहुंचीं, जिनमें से एक ने तो हमें कांस्य दिला भी दिया है। यह स्थिति बताती है कि देश में महिला पहलवानी को लेकर किस कदर जागरूकता बढ़ रही है। साक्षी की जीत सुधार की इस प्रक्रिया को नई उड़ान देगी। यह एक शुरुआत है पदक जीतने की। अब यह उम्मीद की जा सकती है कि 2020 के टोक्यो ओलंपिक में महिला पहलवानी से हमारी झोली में कई और पदक आएंगे। एक बैरियर हमने पार कर लिया है। वही बैरियर, जिसे सुशील कुमार ने साल 2008 के बीजिंग ओलंपिक में तोड़ा और कांस्य जीता। नतीजतन, 2012 के लंदन ओलंपिक में हमारे हिस्से दो पदक आए- रजत पदक खुद सुशील कुमार ने जीता था, जबकि कांस्य योगेश्वर दत्त ने। साक्षी की यह जीत अब कई लड़कियों को इस खेल में आगे आने के लिए प्रोत्साहित करेगी।
साक्षी मलिक की जीत मौजूदा महिला पहलवानों के लिए भी प्रेरणादायी है। इससे उनका हौसला जरूर बढ़ा होगा। जिस तेवर से साक्षी ने जीत हासिल की, वह बताता है कि पहलवानी में महिलाएं पुरुषों से कतई कम नहीं। लगभग हर बाउट में वह पिछड़ रही थीं, मगर तब भी उन्होंने डटकर मुकाबला किया। यह उनकी हिम्मत को दर्शाता है। आप यदि बाउट हार भी रहे हैं, तो हिम्मत न हारें और डटकर सामना करें, सफलता निश्चय ही कदम चूमेगी। परसों दिन भर उन्होंने पांच बाउट लड़े, और वह भी सिर्फ छह से सात घंटे के भीतर। यह कितना मुश्किल होता है, इसे एक पहलवान ही समझ सकता है। हर एक-डेढ़ घंटे में एक बाउट लड़ना कोई आसान काम नहीं। हर बाउट के बाद मांसपेशियां काम करना बंद कर देती हैं, शारीर की क्षमता कम होने लगती है, मानसिक दबाव भी बढ़ता जाता है और दिमाग शून्य होने लगता है। रेपचेज में हर बाउट फाइनल जैसा होता है और सबमें जीत से ही आपके लिए पदक सुनिश्चित होता है, इसलिए खिलाड़ी काफी ज्यादा शारीरिक, मानसिक और मनोवैज्ञानिक दबाव में होता है। लिहाजा, यहां साक्षी की तैयारी की दाद देनी चाहिए कि ऐसी परिस्थिति में भी अपने आप को प्रोत्साहित करते हुए उन्होंने सभी बाउट में जीत हासिल की। पांच बाउट खेलने के लिए सक्षम बने रहना एक लड़की की हिम्मत और उसके जज्बे को बताता है कि अगर वह ठान ले कि कुछ कर गुजरना है, तो उसे कोई नहीं रोक सकता। फिर चाहे वह उपलब्धि ओलंपिक के मेडल से जुड़ी हो या फिर जीवन के किसी दूसरे क्षेत्र से।
साक्षी की जीत ने एक बार फिर हरियाणा को सुर्खियों में ला दिया है। पुरुष पहलवान तो यहां से आते ही हैं, अभी जो तीन महिला पहलवान रियो में हैं, वे सभी हरियाणा से ही हैं। हरियाणा में कुश्ती के खाद-पानी की वजह साफ है। वहां अव्वल तो यह खेल पहले से लोकप्रिय रहा है और फिर, वहां खिलाड़ियों को दूसरे राज्यों की तुलना में ज्यादा सुविधाएं मिलती हैं। हरियाणा में खिलाड़ियों के लिए नकद पुरस्कार ज्यादा है। राज्य सरकार खिलाड़ियों को लगातार प्रोत्साहित करती है। उनको नौकरी दी जाती है। और ऐसा सिर्फ आज की सरकार के समय में नहीं हो रहा है, बल्कि पूर्व की सरकारों ने भी ऐसा ही किया है। उन्होंने खिलाड़ियों को बराबर प्रोत्साहित किया है। राज्य में बुनियादी ढांचे को लेकर भी सरकारों ने काफी काम किया है। गांव-गांव में गद्दे उपलब्ध कराए गए हैं। तमाम ऐसे उपाय किए गए हैं कि खिलाड़ियों को पहचान मिले। ऐसे में, वहां लोग करियर के रूप में पहलवानी अपनाने लगे हैं। कुश्ती वहां कोई खेल नहीं रहा, बल्कि बच्चों को उसमें अपना सुनहरा भविष्य दिखता है। युवा सोचते हैं कि खेलना है, पदक जीतना है, देश व परिवार का नाम रोशन करना और अपना करियर बनाना है। यही सोच हरियाणा को दूसरे तमाम राज्यों से बेहतर बनाती है। राज्य सरकार किस कदर खिलाड़ियों को प्रोत्साहित करती है, इसका एक नमूना भर है कि हरियाणा के खेल मंत्री अनिल विज रियो पहुंचकर खिलाड़ियों का हौसला अफजाई कर रहे थे।
कोई भी खिलाड़ी यूं ही पैदा नहीं हो जाता। पहलवानी में ही बुनियादी ढांचे की बात करें, तो एक रेसलिंग मैट की कीमत चार से पांच लाख रुपये आती है। फिर खिलाड़ियों को एक ऐसा हॉल चाहिए, जहां वे सर्दी, गरमी या बरसात में अभ्यास कर सकें। उनके रहने और व्यायाम करने की पर्याप्त व्यवस्था होनी चाहिए। हॉस्टल व जिम जैसी सुविधाओं की उन्हें दरकार होती है। स्वाभाविक है, अगर राज्य सरकारें ये सुविधाएं मुहैया कराएंगी, तो खिलाड़ी कहीं ज्यादा मन लगाकर मेहनत करेंगे। हरियाणा में सरकार ने गद्दे उपलब्ध कराए, कोच मुहैया कराए, कई स्टेडियम बनाए। इससे जाहिर तौर पर बुनियादी ढांचे में सुधार हुआ और अब नतीजा सुखद आने लगा। हरियाणा में तो शुरू में महिला खिलाड़ियों को प्रतिद्वंद्वी तक नहीं मिल पाता था। मगर अब यह तस्वीर बदल रही है। निवेश बढ़ाए गए हैं, जिससे सुविधाएं बढ़ी हैं। इसलिए यह उम्मीद बेमानी नहीं कि कई और महिला खिलाड़ी सामने आएगी। दूसरे तमाम राज्य भी अगर ठोस पहल करें, तो वहां से भी अच्छी खबर आ सकती है।
देश में महिला पहलवानी को बढ़ावा मिले, इसके लिए एक और चीज की जरूरत है, और वह है लोगों की सोच में बदलाव की। उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश जैसी तमाम जगहों पर आज भी यही मानसिकता है कि पहलवानी मर्दों का खेल है। महिलाओं को अखाड़े में उतारने से माता-पिता हिचकते हैं। इस सोच को हमें बदलना होगा। साक्षी मलिक की जीत इस मायने में भी मील का पत्थर है, क्योंकि इससे लोगों का नजरिया बदलेगा। वे भी अपनी बेटी और बहनों को आगे बढ़ाएंगे। कोई खिलाड़ी जब जीतता है, तो वह सिर्फ तमगा ही नहीं जीतता, बल्कि वह सामाजिक व धार्मिक रूढ़ियों को तोड़ने का वाहक भी बनता है। चूंकि आज चीजें आर्थिक नजरिये से भी देखी जाती हैं और लोग देख रहे हैं कि विजेता खिलाड़ी को कई तरह की सुविधाएं मिलती हैं, लिहाजा हम उम्मीद करते हैं कि साक्षी की यह ऐतिहासिक जीत ज्यादा से ज्यादा लोगों को प्रोत्साहित करेगी और आने वाले दिनों में कई महिला पहलवान हमारे देश का नाम रोशन करेंगी।(Hindustaan )

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