Monday 11 February 2019

सिर्फ अधिकारों से नहीं खत्म होगी लैंगिक असमानता (ऋतु सारस्वत) (समाजशास्त्री) (साभार हिंदुस्तान)


ब्रिटेन की ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में फाइन आर्ट्स, म्यूजिक और साहित्य में पिछले सौ साल से सिर्फ लड़कियों को स्कॉलरशिप दी जा रही थी, परंतु बीते कुछ समय से इस भेदभाव पर विरोध के बाद इसे पुरुषों के लिए भी खोल दिया गया। लैंगिक समानता की पहली शर्त ही लिंग भेद के हर स्वरूप को समाप्त करना है, परंतु महिला अधिकारों की लड़ाई में पुरुषों के समानता के अधिकारों की चर्चा गायब हो जाती है। हम उन्हें सर्वाधिकार संपन्न मान बैठे हैं, जबकि यह अधूरा सच है। खेलों से लेकर शिक्षा तक, तमाम उदाहरण हैं, जो एक सिरे से इस मिथक को नकारते हैं।
1984 के लॉस एंजेलिस ओलंपिक में सिंक्रोनाइज्ड ड्राइविंग की शुरुआत तो हुई, पर आज तक यह सिर्फ महिलाओं के लिए है। खेलों में लैंगिक समानता पर काम कर रही बिली जीन किंग ने पुरुष खिलाड़ियों की समानता के लिए पहल करते हुए टेनिस में पुरुष खिलाड़ी के पांच सेट का विरोध किया है। वह कहती हैं, ‘महिला खिलाड़ी की तरह पुरुष खिलाड़ियों का मैच भी बेस्ट ऑफ थ्री सेट होना चाहिए।’ उन्होंने साल 2012 में जोकोविच और नडाल के बीच के ऑस्टे्रलियन ओपन मैच का उदाहरण दिया, जो करीब छह घंटे तक चला था। मैच के बाद ये दोनों खिलाड़ी ढंग से चल भी नहीं पा रहे थे। बिली ने तो महज वह आवरण हटाने का प्रयास किया है, जो दुनिया भर के पुरुषों पर खुद को बलशाली सिद्ध करने का दवाब बनाता है।
बीते दशक से लैंगिक समानता का सवाल दुनिया भर में उठ रहा है। ‘लैंगिक समानता’ का अर्थ सीधे-सीधे ्त्रिरयों की दोयम स्थिति से लिया जाता है, लेकिन क्या यह वाकई ‘लैंगिक समानता’ की सही परिभाषा है? लैंगिक समानता का वास्तविक अर्थ महिलाओं की कमतर स्थिति या उनके अधिकारों का संघर्ष नहीं, बल्कि पुरुष-स्त्री में बिना किसी भेदभाव के हर क्षेत्र में समानता है। ऐसी समानता, जहां दोनों की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिस्थितियां समान हों। सच है कि विश्व भर में महिलाओं की सामाजिक-आर्थिक स्थिति गंभीर है और वे अपने अधिकारों को लेकर संघर्ष भी कर रही हैं, परंतु बड़ा सवाल यह है कि लंबे संघर्ष के बाद भी समानता का अपेक्षित स्वरूप स्थापित क्यों नहीं हो पा रहा? इसका बड़ा कारण, स्त्री-पुरुष को दो धड़ों में बांटने के साथ पुरुष को असंवेदनशील और हिंसक स्थापित करने की कुचेष्टा है। इसी से महिलाओं को समानता नहीं मिल पा रही। मगर समानता स्थापित करने के लिए इस अधूरे सत्य का प्रसार असमानता की जड़ों को और गहरा करेगा। महिलाओं की तरह, पुरुषों में भी संवेदना, पीड़ा, ईष्र्या,त्याग और स्नेह के भाव होते हैं। अंतर यह है कि पुरुषों को अपनी भावनाएं दबाने की सीख दी जाती और हम इस सच से अनभिज्ञ हैं कि पुरुष भी दबाव में हैं।
अभिनेता जस्टिन बाल्डोनी ने अनायास नहीं कहा कि- ‘मुझे भिन्न चरित्र निभाने को मिले, अधिकतर ऐसे पुरुषों की भूमिका निभाई, जिनमें मर्दानगी, प्रतिभा और शक्ति कूट-कूटकर भरी है... मैं ताकतवर बनने का नाटक करता रहा, जबकि मैं कमजोर महसूस करता था, हर समय सबके लिए साहसी बने रहना अत्यंत थकाऊ होता है।... लड़कियां कमजोर होती हैं और लड़के मजबूत। संसार भर में लाखों लड़कों और लड़कियों को अवचेतन ढंग से यही बताया जा रहा है। परंतु यह गलत है।’ जस्टिन का वक्तव्य समाज की उन परतों को उघाड़ता है, जो लैंगिक असमानता की जड़ है। पुरुष और स्त्री बनाए जाते हैं। पुरुष को दंभी, प्रभुत्वशाली होना सिखाया जाता है। वह ऐसा नहीं करता, तो उसे अपने ही वर्ग से अलग कर दिया जाता है। हमारी संपूर्ण व्यवस्था ने स्त्री पुरुष को विरोधी बनाकर खड़ा कर दिया है, जिसके चलते लैंगिक समानता का संघर्ष अनवरत जारी है। इस व्यवस्था का मकड़जाल इतना गहरा है कि खुद को आधुनिक कहने वाले भी स्वाभाविक रूप से लड़के-लड़कियों में अंतर करते हैं, उन्हें यह परंपरागत और सही लगता है। लैंगिक समानता स्थापित करने का आरंभ उस सोच में बदलाव से करना होगा, जो दो जैविक शरीर को सामाजिक रूप से स्त्री और पुरुष में परिवर्तित करती हो।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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