Monday 11 February 2019

मिश्रित उपलब्धियों का गणतंत्र (मृदुला मुखर्जी प्रसिद्ध इतिहासकार) (साभार हिंदुस्तान )


आज हम संविधान लागू होने के 70वें वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं। इन सात दशकों में तमाम उपलब्धियां हमारे हिस्से आई हैं। यह कतई आसान नहीं था कि करीब 200 वर्षों तक पराधीन रहने और ब्रिटिश राज में तमाम तरह के दमन झेलने वाला यह देश इतनी जल्दी दुनिया की उभरती हुई ताकतों में शुमार हो जाए। आजादी के समय तो हमारी जीवन प्रत्याशा महज 32 वर्ष थी और साक्षरता दर नाममात्र, लेकिन आज हमारी औसत उम्र बढ़कर 65 हो गई है और देश की करीब 75 फीसदी आबादी साक्षर में गिनी जाने लगी है। इन तमाम सफलताओं का आधार निश्चय ही हमारा संविधान है।
दरअसल, हमारे संविधान में स्वतंत्रता संग्राम की मूल भावनाओं को ही समेटा गया है। आजादी की जंग इस सोच के साथ लड़ी गई थी कि हमें अपनी पसंद का भारत बनाना है। संविधान में इस सोच को बखूबी शामिल किया गया। जैसे कि कांग्रेस की संकल्पना। कांग्रेस शब्द असल में अमेरिकी कांग्रेस यानी संसद से लिया गया है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के गठन के समय लोगों को यही बताया गया था कि जिसकी स्थापना हो रही है, वह कोई राजनीतिक पार्टी नहीं, बल्कि हम जिस राष्ट्र की कल्पना कर रहे हैं, उसकी संसद है, इसीलिए उसमें लोकतांत्रिक भारत की सोच निहित थी।
धर्मनिरपेक्षता भी ऐसी ही एक अन्य भावना है। भले ही 42वें संविधान संशोधन द्वारा ‘सेक्युलर’ शब्द को बाद में प्रस्तावना का हिस्सा बनाया गया, लेकिन संविधान के तमाम अनुच्छेदों में यह शब्द बराबर से शामिल रहा है। मसलन, अल्पसंख्यकों को सुरक्षा का अधिकार देना, लोकतांत्रिक राष्ट्र की संकल्पना, मौलिक अधिकार आदि। इन सबका उद्भव भी हमारा स्वतंत्रता संग्राम है। हमारे स्वाधीनता सेनानी इस भावना को पूरी ईमानदारी से जीते रहे कि जंग-ए-आजादी में हिन्दुस्तान के सभी धर्मों- तबकों के लोग शामिल रहे हैं, इसीलिए आजाद मुल्क में सबके लिए समान अधिकार होंगे।
इसकी तस्दीक सन 1928 की मोतीलाल नेहरू कमेटी की रिपोर्ट भी करती है। जब अंग्रेजों ने भारतीयों को एकमत होने की चुनौती दी, तो देश में ऑल पार्टी कॉन्फ्रेंस आयोजित की गई और मोतीलाल नेहरू को यह जिम्मेदारी सौंपी गई कि कॉन्फ्रेंस के विचारों को समेटते हुए वह एक रिपोर्ट तैयार करें, जो यह बताए कि भारत का संविधान कैसा होना चाहिए? इस रिपोर्ट में कई मौलिक अधिकारों की चर्चा है, जो बाद में हम अपने संविधान में भी देखते हैं। ‘वी द पीपुल’ यानी हम भारत के लोग की संकल्पना भी आजादी के आंदोलन की ही देन है।
साफ है, हमारा संविधान महज एक असेंबली और चंद लोगों द्वारा तैयार नहीं किया गया है। यह पिछले पांच-छह दशकों से आकार ले रहा था। इसमें आम लोगों के संघर्षों को जगह दी गई है। किसी भी संविधान की जीवंतता तभी तक सुनिश्चित होती है, जब तक कि उसमें लोगों की जिंदगी से जुड़ने की ताकत रहती है। हमारा संविधान इस मामले में दुनिया भर में अलहदा है और लगातार मजबूत हो रहा है। यहां लोग लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में स्वयं हिस्सा लेते हैं। यह लोगों में विश्वास जगाता है कि सरकार उनकी है। वे जानते हैं कि सरकार उनके वोट से बनती-बिगड़ती है। वे संसद, विधानसभा और पंचायत का फर्क जानते हैं। यानी, विषमताओं से परिपूर्ण और इतना विशाल देश होने के बावजूद लोग लोकतंत्र को गहराई से समझते हैं और उन्हें इसकी आदत लग चुकी है, जिसे बदलना काफी मुश्किल है।
अपने वोट की यह कीमत लोगों ने यूं ही नहीं समझी। संविधान में मौजूद वयस्क मताधिकार ने उन्हें यह ताकत दी है। शायद ही दुनिया के किसी देश में सभी लोगों को वोट देने का अधिकार एक साथ मिला हो। इंग्लैंड में तो प्रथम विश्व युद्ध के बाद महिलाओं को यह मौका मिला। अंग्रेजी हुकूमत के दौरान भारत में भी 1945-46 में हुए चुनाव में सिर्फ 13 फीसदी लोगों को ही यह अधिकार मिला था, लेकिन आजाद भारत ने सबको बराबर से वोट डालने का अधिकारी माना। यह संदेश देता है कि गरीब से गरीब इंसान भी कठिन से कठिन लड़ाई लड़ सकता है और उसकी समझ कहीं से भी कमतर नहीं मानी जाएगी। आपातकाल के समय इस भावना को जरूर धक्का लगा, लेकिन उसके बाद देश में लोकतांत्रिक परंपरा शायद कहीं ज्यादा मजबूत हुई है।
बहरहाल, हमारे गणतंत्र के सामने कई चुनौतियां भी हैं, जिन पर विजय पाना जरूरी है। सबसे पहले तो लोगों की इस सोच से पार पाना होगा कि ‘हर नेता एक जैसा (बेईमान) होता है’। यह भावना लोकतंत्र को नुकसान पहुंचा सकती है। मैं इसकी वजह देश में मौजूद असमानता को मानती हूं। संविधान में बेशक समानता की वकालत की गई है और पिछले सात दशकों में गरीबी काफी घटी भी है, लेकिन यह भी सच है कि अमीर और गरीब का फासला बढ़ता गया है। विशेषकर पिछले 15-20 वर्षों में पूंजी चंद लोगों के हाथों में सिमटती गई है। ऑक्सफैम की हालिया रिपोर्ट भी बता रही है कि देश के नौ पूंजीपतियों के पास अपार संपत्ति है। ऐसी असमानता के साथ कोई भी समाज ज्यादा दिनों तक स्वस्थ नहीं बना रह सकता।
ऐसी ही दूसरी समस्या लैंगिक विषमता से पार पाने की है। खासतौर से महिलाओं पर जिस तरह हमले बढ़े हैं, वे काफी चिंतनीय हैं। औरतों की सुरक्षा, गरिमा के साथ उनके जीने जैसे महिला-अधिकारों पर खास ध्यान देने की जरूरत है। समानता और सामाजिक बदलाव हमारे संविधान में निहित हैं, लेकिन इसे बढ़ावा देने के लिए जैसे प्रयास होने चाहिए, वे नहीं हुए। इसे लेकर विशेष अभियान चलाने, कानून बनाने और उसे संजीदगी से लागू करने की जरूरत है।
बीते वर्षों में वैश्विक मंचों पर भले ही हमने काफी नाम कमाया है, लेकिन कुछ ऐसे क्षेत्र भी हैं, जहां हम बेहतर कर सकते थे, लेकिन कर नहीं पाए, और इसके लिए हमारे सत्ता-प्रतिष्ठान कहीं ज्यादा दोषी हैं। कुछ बुराइयों को तो उसने खासतौर से पैदा किया है। उसका ध्यान हालात सुधारने की बजाय उन्हें बिगाड़ने पर ज्यादा रहा। लोगों को धर्म के आधार पर बांटना और शिक्षण संस्थानों पर चोट कुछ ऐसी ही कुचेष्टाएं हैं, जिनसे हरसंभव बचने की जरूरत है।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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