Monday 11 February 2019

चीन-नेपाल धुरी : चिंता का सबब (रहीस सिंह)


जनवरी के तीसरे सप्ताह में नेपाल के केंद्रीय बैंक नेपाल राष्ट्र बैंक (एनआरबी) ने एक सकरुलर जारी कर 100 रुपये के नोट के ऊपर के भारतीय नोटों पर पाबंदी लगा दी। नेपाल राष्ट्र बैंक ने यह सकरुलर 13 दिसम्बर 2018 के नेपाल की कैबिनेट द्वारा लिये गए निर्णय के आधार पर जारी किया है। महत्त्वपूर्ण तय यह है कि नेपाल की कैबिनेट ने 100 से ऊपर के भारतीय करेंसी नोटों को प्रतिबंधित करने का निर्णय उस समय लिया था जब एनआरबी ने भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) से आग्रह किया था कि नेपाल को सभी करेंसी नोटों को इस्तेमाल करने की अनुमति दे। नेपाल राष्ट्र बैंक ने अपने सकरुलर में कहा है कि 200, 500 और 2000 रुपये के नोट न ही कोई अपने साथ ले जा सकेगा और न ही उनका किसी प्रकार के कारोबार में प्रयोग कर सकेगा।
सवाल यह उठता है कि नेपाल की सरकार और नेपाल राष्ट्र बैंक ने यह कदम क्यों उठाया? क्या यह भारत सरकार द्वारा किए गए विमुद्रीकरण के पश्चात एनआरबी में रखी भारतीय करेंसी नोट को न बदलने का परिणाम है अथवा कारण कुछ और हैं? एक बात और नेपाल में बड़े पैमाने पर कारोबारी भारतीय मुद्रा का प्रयोग करते हैं, इसलिए 100 से ऊपर के भारतीय करेंसी नोटों पर प्रतिबंध लगाने से उसका कारोबार भी प्रभावित होगा, फिर भी नेपाल सरकार यदि ऐसा कदम उठा रही है तो कोई ठोस वजह अवश्य होनी चाहिए? क्या यह भारत की कूटनीतिक असफलता का परिणाम है या फिर नेपाल के चीनी प्रेम का? दरअसल, आरबीआई ने फरवरी 2015 में फॉरेन एक्सचेंज मैनेजमेंट (एक्सपोर्ट एण्ड इम्पोर्ट ऑफ करेंसी) रेग्युलेशंस के अंतर्गत नेपाली और भूटानी नागरिकों को यह अनुमति दी थी कि वे भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा जारी 500 और 1000 के करेंसी नोटों को 25000 रुपये की सीमा तक अपने साथ लेकर चल सकते हैं और उसका कारोबारी इस्तेमाल कर सकते हैं। इस कारण से नेपाल में 500 और 1000 के भारतीय करेंसी नोटों का सर्कुलेशन तेजी से बढ़ा और 8 नवम्बर 2016 के भारत के विमुद्रीकरण के निर्णय के पश्चात करेंसी एक्सचेंज के कारण नेपाल राष्ट्र बैंक के पास अरबों की मात्रा में रुपया जमा हो गया।
भारतीय रुपयों का यह स्टॉक अभी भी एनआरबी के पास पड़ा है। संभवत: नेपाल की यही खीझ अब भारत के नोटों पर प्रतिबंध लगाने के रूप में दिख रही है। लेकिन असल बात यह नहीं है। जिन 950 करोड़ रुपये की वापसी को लेकर नेपाल सरकार, नेपाल राष्ट्र बैंक और भारतीय वित्त मंत्रालय व आरबीआई के बीच एक तनाव की स्थिति है, वह इतनी साधारण नहीं जितनी कि नेपाल दिखाना चाहता है। यहां पर दो बातें ध्यान देने योग्य हैं। पहली यह कि नेपाल राष्ट्र बैंक अब इन पुराने नोटों का भुगतान डॉलर में चाहता है, नये भारतीय करेंसी नोटों में नहीं। उसकी तरफ से कहा गया था कि बदल चुके नोटों का यह स्टॉक भारत वापस ले और बदले में उसे 14 करोड़, 60 लाख डॉलर भुगतान करे। चूंकि पिछले कुछ समय से रुपया डॉलर के मुकाबले अवमूल्यित हो रहा है, जाहिर है यदि भारत उसे डॉलर में चुकता करता है तो उसे मूल मात्रा से अधिक रुपये व्यय करने होंगे। सवाल यह उठता है कि भारत नेपाल की इस मांग को क्यों स्वीकार करे? दूसरी बात यह है कि एनआरबी के पास पुराने भारतीय नोटों (500 एवं 1000) में कुछ फेक करेंसी (जाली मुद्रा) भी है। सो, भारतीय रिजर्व बैंक एनआरबी में रखे जाली नोट क्यों स्वीकार करे? हम सभी जानते हैं कि भारत में फेक करेंसी भेजने का काम पाकिस्तान करता है और इसके लिए रास्ते हैं-बांग्लादेश और नेपाल।
आईएसआई का नेटवर्क इसे ऑपरेट करता है। यह फेक करेंसी भारतीय अर्थव्यवस्था के आयतन को बढ़ाने का काम करती है, जिससे स्फीति व साख और कानून-व्यवस्था जैसी चुनौतियां उत्पन्न होती हैं। ऐसे में नेपाल के वित्त मंत्रालय या नेपाल राष्ट्र बैंक को यह स्पष्ट करना चाहिए था कि उसके पास बचे 950 करोड़ के भारतीय करेंसी नोटों में से कितनी फेक करेंसी है। गौर करने लायक बात यह है कि नेपाल के वित्त मंत्रालय ने अब तक इसे स्पष्ट नहीं किया है। हालांकि अप्रैल 2018 में जब नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली भारत की यात्रा पर आए थे, तब उन्होंने यात्रा शुरू करने से ठीक पहले नेपाल के नागरिकों को आास्त किया था कि वह इस मुद्दे का समाधान करके आएंगे, लेकिन इस दिशा में कोई प्रगति हुई नहीं। यहां एक तय और ध्यान देने योग्य है कि क्या भारत सरकार और नेपाल सरकार के बीच करेंसी वापसी के लिए कोई लिखित संविदा या समझौता था? नेपाल सरकार इस विषय पर भी कोई उत्तर नहीं दे पाई है। हालांकि कुछ समय पहले नेपाल राष्ट्र बैंक के डिप्टी गवर्नर चिंतामणि शिवकोटी ने साक्षात्कार में कहा था कि विमुद्रीकरण के समय उन्हें नई दिल्ली से मौखिक आदेश मिला था कि नेपाल प्रति व्यक्ति 4,500 रुपये तक के पुराने करेंसी नोट बदल सकता है। इस पूरे मामले में एक बात और है, जो कूटनीति के लिहाज से महत्त्वपूर्ण हो सकती है।
नेपाल को ऐसा लगता है कि इस मामले में भारत ने उसके मुकाबले भूटान को प्राथमिकता दी। ध्यान रहे कि भारत ने मई 2017 में भूटान के रॉयल मॉनेटरी अथॉरिटी (आरएमए) के पास रखे पुराने भारतीय करेंसी नोट वापस ले लिये थे। मगर नेपाल अब तक नोट वापस करने में सफल नहीं हो पाया। इस सिक्के का एक दूसरा पहलू नेपाल या विशेषकर प्रधानमंत्री ओली का चीनी प्रेम है। दरअसल, नेपाल नई दिल्ली के साथ इकोनॉमिक मैनेजमेंट स्थापित करने एवं उसमें अनुकूलन स्थापित करने की बजाय बीजिंग के साथ पींगे बढ़ा रहा है, लेकिन वह अपने चीनी प्रेम को छुपाने के लिए नई दिल्ली को निशाना बनाता है। ओली ने 8 सितम्बर 2018 को ट्वीट में कहा था कि उन्होंने भारत द्वारा 2015 में की गई आर्थिक नाकेबंदी का जवाब ढूंढ़ लिया है।
यह जवाब था नेपाल-चीन ट्रांजिट-ट्रांसपोर्ट एग्रीमेंट, जिसके फलस्वरूप चीन ने उसके लिए अपने चार समुद्री बंदरगाह और तीन शुष्क बंदरगाह खोल दिए थे। चूंकि चीन ने नेपाल को युआन में व्यापार करने की सुविधा दे रखी है इसलिए नेपाल को रुपया और भारत (कलकत्ता पोर्ट) दोनों का ही विकल्प मिल गया। यही नहीं नेपाल में अपना प्रभाव स्थापित करने और इन्फ्रा प्रोजेक्ट को विस्तार देने के लिए चीन नेपाल को हुंडी के जरिए भुगतान की सुविधाएं दे रहा है। यानी कि नेपाल ‘‘ग्रे फेस’ डिप्लोमेसी कर रहा है, जिसे भारत को न केवल समझना चाहिए बल्कि उसे काउंटर करने के तरीकों की खोज करनी चाहिए।

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