Thursday 19 May 2016

पारदर्शी हो कौशल विकास (शिवानन्द द्विवेदी)

स्किल डेवलपमेंट अर्थात् कौशल विकास वर्तमान दौर में एक वैश्विक मुद्दा बन चुका है। इसमें कोई शक नही कि तकनीक के इस दौर में दुनिया को स्किल्ड लोगों की जरूरत है। दुनिया उन देशों की तरफ देख रही है जहां युवाओं की संख्या यादा है और वे युवा वर्तमान दौर के हिसाब से कौशलयुक्त हैं। इस लिहाज से सोचा जाय तो भारत एक संभावनाओं का देश है क्योंकि यहां की पैसंठ फीसद आबादी पैतीस साल से कम आयु की है। भारत के लिहाज से देखें तो स्किल डेवेलपमेंट अर्थात् कौशल विकास शब्द पिछले कुछ वर्षो से चर्चा में है। गत संप्रग सरकार द्वारा कौशल विकास का लक्ष्य रखते हुए नेशनल स्किल डेवलेपमेंट कॉरपोरेशन के तहत युवाओं के कौशल विकास का यह कार्यक्रम चलाया गया था। पहली बार 16 अगस्त 2013 तत्कालीन वित्तमंत्री पी. चिदम्बरम द्वारा जब इस योजना का शुभारंभ किया गया तब इसके तहत दस लाख युवाओं को प्रशिक्षित करने का लक्ष्य रखा गया था। इसमें कॉल सेंटर ट्रेनिंग, रिटेल मैनेजमेंट सहित कुल 11 अलग-अलग किस्म के शार्ट टर्म स्किल डेवलपमेंट कोर्सेस शुरू किए गए थे। इस योजना के तहत शुरुआत में दस लाख युवाओं को स्किल्ड बनाने का लक्ष्य रखा गया था जबकि इसके लिए कुल 1 हजार करोड़ रुपये का बजटीय प्रावधान था। इस स्कीम को स्टार यानी स्टैंडर्ड ट्रेनिंग एसेसमेंट एंड रिवार्ड का ब्रांड नाम दिया गया। इस कार्यक्रम के शुभारंभ के लगभग साढ़े चार महीने बाद 6 फरवरी 2014 को एनएसडीसी के तत्कालीन चेयरमैन रामादो राय ने बताया कि अभी तक 1 लाख 10 हजार लोग इस स्कीम के तहत इनरोल्ड हो चुके हैं और लगभग 1 करोड़ 40 लाख की अवार्ड राशि उनके खातों में भेजी जा चुकी है।
उपरोक्त तथ्यों को रखने के पीछे मकसद यह बताना था कि इस स्कीम को लाने और इसे लागू करने के बाद इसकी सफलता और असफलता का मूल्यांकन सिर्फ इस आधार पर कर लिया गया कि कितने लोग इनरोलमेंट कराये और कितने को इसका अवार्ड राशि एवं प्रमाण-पत्र मिला। जबकि इन आंकड़ों का किसी युवा के स्किल्ड होने और इन प्रशिक्षणों के आधार पर कितने स्किल्ड युवा रोजगार प्राप्त कर सके हैं, इसका सटीक मूल्यांकन नही हुआ। दरअसल प्रयोग के तौर तत्कालीन सरकार द्वारा जिस प्रणाली से लोगों के कौशल विकास का यह योजना बनाई गयी वो यथार्थ के धरातल पर कारगर होने की बजाय संस्थानों के भ्रष्टाचार और कागजी खानापूर्ती की भेंट चढ़ गयी। दरअसल स्किल होने की देर थी दिल्ली सहित तमाम शहरी क्षेत्रों में बड़ी संख्या में निजी ट्रेनिंग सेंटर्स इस काम में लग गये। सही ढंग से प्रशिक्षण देने की बजाय उन्होंने धड़ल्ले से आधार-कार्ड के आधार पर इनरोलमेंट कराना शुरू कर दिया। अवार्ड के लिए तय राशि जो संभवत: तब 9 या 12 हजार के आसपास थी, में से कुछ हजार अथवा दो हजार इनरोलमेंट कराने वाले के खाते में देकर बाकी में बन्दर बांट शुरू हो गया। ट्रेनिंग दी जा रही है कि नही इसका वास्तविक मूल्यांकन करने में सरकार पूरी तरह असफल रही और कागजों में भारी संख्या में स्किल्ड लोगों का नाम दर्ज हो गया।
भाजपा-नीत केंद्र सरकार के आने के बाद सरकार ने इस समस्या को समझा और इनरोलमेंट के नियामकों और मूल्यांकन आदि की प्रणाली को सख्त कर दिया। सरकार द्वारा उठाये गये इस कदम से स्किल बनाने के नाम पर जो भ्रष्टाचार फल-फूल रहा था वह तो समाप्त हो गया, लेकिन अधिक से अधिक कौशल युक्त युवाओं को तैयार करने एवं उन्हें उनकी रूचि के हिसाब से प्रशिक्षित करने के लिए कुछ कदम और उठाने होंगे। मसलन सरकार को अभ्यर्थी और स्कीम के बीच से बिचौलियों की भूमिका में खड़े तमाम संस्थानों को समाप्त करना होगा।
लम्बी बहस और रिसर्च इस बात पर चल रही है कि मिल्टन फ्रीडमैन के वाउचर प्रणाली के आधार पर कौशल विकास कार्यक्रम को लागू किया जाय तो क्या इसकी खामियों को दूर किया जा सकता है, इस विषय पर विचार किया जाना चाहिए! इस कैश वाउचर के तहत ये प्रावधान हो कि इसे सिर्फ और सिर्फ प्रशिक्षण संस्थान ही इसे कैश करा सकें। अगर ऐसा होता है तो इसका सबसे बड़ा फायदा तो यह है कि जिस अभ्यर्थी को प्रशिक्षण लेना है वह अपने इछा के अनुरूप कोर्स चयन एवं संस्थान चयन कर सकता है। दूसरा फायदा होगा कि तमाम संस्थान छात्रों को आकर्षित करने के लिए गुणवत्ता को प्राथमिकता देंगे। तीसरा बड़ा फायदा यह होगा कि इसमें भ्रष्टाचार बिल्कुल संभव नही होगा। ऐसा नही है कि भारत में इस प्रणाली पर प्रयोग नही हुए हैं। सीसीएस संस्था ने महाराष्ट्र सरकार के सहयोग से कुल 2000 छात्रों को इसके तहत प्रशिक्षित करने का लक्ष्य बनाया। इसके तहत मुंबई व पुणो के 1800 एससी/एसटी व 200 सामान्य वर्ग के जरुरतमंद युवाओं का चयन किया गया। चयन के लिए 55 रोजगार मेलों का आयोजन किया गया और इछुक युवाओं की शैक्षणिक योग्यता और रूचि के आधार पर काउंसलिंग की गई और उन्हें मनपसंद प्रशिक्षण संस्थानों में दाखिला दिलाया गया। प्रशिक्षण शुल्क की धनराशि सीधे लाभार्थियों को वाउचर के माध्यम से प्रदान की गई जिसे सिर्फ प्रशिक्षण संस्थान ही कैश करा सकते थे। संस्था के मुताबिक वाउचर के इस्तेमाल के कारण पैसे के दुरुपयोग को रोकने में सफलता मिली। उन्होंने बताया कि प्रशिक्षण के लिए चुने गए 2000 छात्रों में से पाठ्यक्रम को बीच में छोड़ने वाले युवाओं की तादात सिर्फ 9.5 फीसद रही। जबकि 60 फीसद युवाओं ने प्रशिक्षण हासिल करने के बाद आइटी, बैंकिंग, ट्रैवेल एंड टूरिम, ऑटो मोबाइल, रिटेल व निर्माण के क्षेत्र में नौकरी हासिल करने में सफलता प्राप्त की।
संस्था के यह आंकड़े इस बात की पुष्टि करते हैं कि इस पूरी योजना से सीधा कैश हटाकर और युवाओं को जब उनके मनपसंद क्षेत्रों का विकल्प दिया गया तो भ्रष्टाचार पर खुद ब खुद अंकुश लग गया वहीं दूसरी तरफ गुणवत्ता और लक्ष्यों को अत्यधिक हासिल किया गया। हमें समझना होगा कि स्किल किसी डिग्री की मोहताज नही होती, यह जरूर है कि संस्थानों में मानकीकरण की अहर्ता के लिए एक प्रमाण-पत्र का होना जरूरी है। दरअसल वहीं स्किल सबसे अछी और सृजनात्मक होती है जो नैसर्गिक हो। मसलन तलाब और नदी के किनारे रहने वाला मछुआरा समुदाय तैराकी का कोई प्रशिक्षण नहीं लेता, फिर भी वह एक व्यवहारिक तैराक होता है। अगर तैराकी में निपुण वहां के समुदाय के लोगों को तैराकी में दाखिले की सीट नहीं मिलने की वजह से तीरंदाजी का प्रशिक्षण देंगे तो वह प्रशिक्षित होगा, इसकी संभावना बेहद कम है। यहां इस उदाहरण का जिक्र करने का आशय यह है कि हम ऐसे अवसर उपलब्ध कराएं कि लोग अपनी नैसर्गिक रूचि के कोर्सेज चुनने को स्वतंत्र हों और उनके पास बहुत सारे विकल्प भी हों। हमें इस बात को समझना होगा कि हजारों करोड़ के बजट का सदुपयोग अगर सही नीतियों के साथ किया जाय तो यह योजना सफल हो सकती है।
(लेखक डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन में रिसर्च फेलो हैं)(दैनिक जागरण )

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