Wednesday 18 May 2016

अंतरिक्ष में भारत का बढ़ता दबदबा (अभिषेक कुमार)

अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा अपने स्पेस शटलों का इस्तेमाल वर्ष 2011 में बंद कर चुकी है। चैलेंजर और कोलंबिया स्पेस शटलों की दुर्घटनाओं के अलावा इसके पीछे मुख्य कारण इन अभियानों का महंगे होते जाना था, पर भारत की स्पेस एजेंसी भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) इसी महीने से ‘कलायमान’ नाम से आरएलवी-टीडी स्पेस शटल का परीक्षण शुरू करने जा रही है। इस स्वदेशी स्पेस शटल का उद्देश्य दोबारा इस्तेमाल होने वाली (रियूजेबल) टेक्नोलॉजी के प्रयोग से अंतरिक्षीय प्रक्षेपण की लागत को 10 गुना कम करके 1.32 लाख/किलो तक लाना है। फिलहाल नासा प्रति एक किलोग्राम वजन को अंतरिक्ष में भेजने के बदले करीब 15 लाख रुपये वसूलता है। साफ है कि स्वदेशी स्पेस शटल का मकसद प्रक्षेपण बाजार में भारत का दबदबा स्थापित करना है। असल में दुनिया के स्पेस मार्केट में इसरो की बदौलत भारत एक कड़ी प्रतिस्पर्धा देने वाला मुल्क बन गया है। चंद्रयान और मंगलयान की सफलताओं के बल पर अंतरिक्ष में जो धाक जमी है, उससे पूरी दुनिया में भारत के व्यावसायिक स्पेस मिशन भरोसेमंद माने जाने लगे हैं। भारत के लिए यह एक उपल}िध है, पर इसने अब रूस और अमेरिका जैसे जमे-जमाए खिलाड़ियों के मन में खलबली मचा दी है।
असल में आइटी और बीपीओ इंडस्ट्री के बाद अंतरिक्ष परिवहन ऐसे तीसरे क्षेत्र के रूप में उभरा है, जिसमें भारत को पश्चिमी देशों की आउटसोर्सिग से अछी-खासी कमाई हो रही है। भारत अपने रॉकेटों के बल पर साबित कर चुका है कि वह दुनिया का लांच सर्विस प्रोवाइडर बनने की संभावना रखता है। आज कई यूरोपीय देश भारतीय रॉकेट से अपने उपग्रह स्पेस में भेजना पसंद करते हैं। इसकी वजह भारतीय रॉकेटों के जरिए उपग्रह भेजना सस्ता पड़ना है। पिछले बरस पीएसएलवी सी-23 के सफल प्रक्षेपण के साथ जब पांच विदेशी उपग्रहों को उनकी कक्षा में स्थापित किया गया था तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसकी कामयाब लांचिंग पर इसरो की तारीफ करते हुए कहा कि देश के स्पेस मिशन हॉलीवुड की फिल्मों के निर्माण से सस्ते हैं। उल्लेखनीय है कि प्रसिद्ध हॉलीवुड फिल्म-ग्रैविटी 100 करोड़ डॉलर में बनी थी, जबकि भारतीय मंगल मिशन की लागत 72 करोड़ डॉलर आई।
आज आलम यह है कि पहले जो विकसित पश्चिमी देश भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम का मजाक उड़ाते थे, आज अपने उपग्रहों को अंतरिक्ष में भेजने के लिए भारतीय रॉकेटों का सहारा ले रहे हैं। इसरो के लिए इस मुकाम तक पहुंचना आसान नहीं रहा है। तमाम पाबंदियों और बाधाओं के बावजूद भारत का राष्ट्रीय अंतरिक्षीय कार्यक्रम जोरशोर से चलता रहा है और इसी की बदौलत इसरो अपने सौ से यादा मिशन पूरे कर चुका है। वर्ष 1975 में रुसी रॉकेट के जरिए आर्यभट्ट उपग्रह के प्रक्षेपण के अपने अंतरिक्ष अभियान शुरू करने वाले भारत के लिए यह एक बड़ी उपल}िध है। भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रमों के विरोध की एक बड़ी वजह यह थी कि अमेरिका जैसे विकसित देशों को हमेशा इस बात का डर सताता रहा कि यदि भारत अंतरिक्ष क्षेत्र में माहिर हो गया तो न केवल उनका अंतरिक्ष में एकाधिकार छिन जाएगा, बल्कि भारत इतनी मजबूत स्थिति में पहुंच सकता है कि बड़ी ताकतों को चुनौती देने लगेगा। इस डर की वजह से ही भारत को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अलग-थलग करने की कोशिशें की गईं। जैसे एक उदाहरण वर्ष 1974 का है। उस साल भारत ने पोखरण में अपना पहला परमाणु विस्फोट (न्यूक्लियर टेस्ट) किया था। पोखरण विस्फोट के बाद भारत पर इतनी अधिक अंतरराष्ट्रीय बंदिशें लगा दी गईं कि वह न तो अपना परमाणु कार्यक्रम ठीक ढंग से चला सकता था और न ही आधुनिक तकनीक आधारित वैज्ञानिक विकास का कोई काम कर सकता था। इसी दौर में अमेरिका ने भारत को सुपर कंप्यूटर तक देने से इन्कार कर दिया था। अमेरिका को लगता था कि भारत सुपर कंप्यूटर का इस्तेमाल मौसम की जानकारियां लेने के बजाय परमाणु और मिसाइल कार्यक्रम में कर सकता है। इसके अलावा अमेरिका ने भारत में बने उपग्रहों को भी अपने रॉकेट से छोड़ने तक से इन्कार कर दिया था, लेकिन इन प्रतिबंधों का एक सकारात्मक परिणाम निकला। भारत ने न सिर्फ कंप्यूटर और परमाणु तकनीक के क्षेत्र में महारत हासिल कर ली, बल्कि सोवियत संघ और यूरोपीय स्पेस एजेंसी की मदद से अंतरिक्ष कार्यक्रमों में आत्मनिर्भर हो गया। भारत अपने मिसाइल और स्पेस कार्यक्रम में ना पिछड़ जाए इसे ध्यान में रखते हुए 1983 में इंदिरा गांधी ने एकीकृत मिसाइल विकास कार्यक्रम का जिम्मा तब अंतरिक्ष विभाग में काम कर रहे डॉ. एपीजे अ}दुल कलाम (पूर्व राष्ट्रपति) को सौंपा था। डॉ. कलाम के नेतृत्व में भारत ने पृथ्वी और अग्नि जैसी मिसाइलों का विकास किया। यह देखकर एक बार फिर 1987 में अमेरिकी अगुआई में मिसाइल तकनीक पर रोक व्यवस्था (एमटीसीआर) लागू की गई थी। एमटीसीआर के जरिए कोशिश की गई कि भारत अंतरिक्ष के क्षेत्र में अपनी क्षमताएं नहीं बढ़ा सके। इस पाबंदी के फलस्वरूप रॉकेट टेक्नोलॉजी के लिए भारत को दूसरे देशों का मोहताज बनना पड़ा था, लेकिन बाद में इसरो ने पृथ्वी की निकट कक्षा में तीन सौ किलोमीटर तक जाने वाले सैटेलाइट लांच व्हीकल (एसएलवी) का विकास किया और इसी रॉकेट की तकनीक के आधार पर पृथ्वी मिसाइल छोड़ी गई। इसके बाद संवर्धित उपग्रह प्रक्षेपण यान (एएसएलवी) और पृथ्वी की कक्षा में 900 किलोमीटर ऊपर स्थापित करने वाले ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान (पीएसएलवी) का निर्माण किया।
अब इसरो का खास ध्यान अंतरिक्ष से देश के लिए पूंजी जुटाने पर है। स्पेस मिशनों में तकरीबन आत्मनिर्भर हो चुके इसरो को इसके लिए निजी सेक्टर से सहयोग लेने में भी कोई गुरेज नहीं है। अब उसकी कोशिश है कि प्राइवेट सेक्टर की मदद से वह उपग्रहों और रॉकेटों के निर्माण में तेजी लाए और उन रॉकेटों के जरिये विभिन्न देशों के सैटेलाइट बेहद प्रतिस्पर्धी कीमतों पर अंतरिक्ष में छोड़े और इससे राजस्व कमाए। इसकी एक मिसाल तो पीएसएलवी के लगातार सफल प्रक्षेपण हैं। पीएसएलवी की शुरुआत सितंबर 1993 में हुई थी। हालांकि उसका पहला ही प्रक्षेपण नाकाम रहा था, लेकिन उसके बाद 33 सफल प्रक्षेपणों के बलबूते उसने अपनी कामयाबी और उपयोगिता साबित कर दी है। प्रक्षेपण की अचूकता ही पीएसएलवी की एकमात्र सफलता नहीं है, बल्कि जिस कीमत में पीएसएलवी से दुनिया भर के उपग्रह छोड़े जाते हैं उससे भी दुनिया का भरोसा इस रॉकेट में और इसरो में जगा है। इसरो से उपग्रहों का प्रक्षेपण करवाने की लागत अन्य देशों के मुकाबले 30-35 प्रतिशत कम है। माना जाता है कि इसरो एक उपग्रह को लांच करने के लिए अमूमन 25-30 हजार डॉलर प्रति किलोग्राम के हिसाब से शुल्क लेता है और इसके पास 500 से 5000 किलोग्राम वजन तक के सैटेलाइट छोड़ने लायक रॉकेट हैं। एक पत्रिका एशियन साइंटिस्ट मैगजीन के अनुसार पिछले तीन-चार वर्षो में ही 15 विदेशी उपग्रहों को पीएसएलवी से प्रक्षेपित करके इसरो ने 54 लाख डॉलर की कमाई की है। सिर्फ यही नहीं एंटिक्स कॉरपोरेशन अपने संचार उपग्रहों के ट्रांसपोंडर की सेवाएं विदेशी उपभोक्ताओं को बेचकर कमाई कर रहा है।
यह भी ध्यान रखने योग्य बात है कि अब पूरी दुनिया में मौसम की भविष्यवाणी, दूरसंचार और टेलीविजन प्रसारण का क्षेत्र तेजी से बढ़ रहा है और चूंकि ये सारी सुविधाएं उपग्रहों के माध्यम से संचालित होती हैं, लिहाजा ऐसे संचार उपग्रहों को अंतरिक्ष में स्थापित करने की मांग में तेज बढ़ोतरी हो रही है। हालांकि इस क्षेत्र में चीन, रूस, जापान आदि मुल्क प्रतिस्पर्धा में हैं, लेकिन यह बाजार इतनी तेजी से बढ़ रहा है कि यह मांग उनके सहारे पूरी नहीं की जा सकती। उम्मीद करें कि इसरो ने जैसी कामयाबी उपग्रहों के सफल प्रक्षेपण में हासिल कर अमेरिका की निजी कंपनियों की नींद उड़ाई है, उसी तरह वह आगे अंतरिक्ष अनुसंधान के क्षेत्र में सफलता प्राप्त करेगा।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)(दैनिक जागरण )

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