Tuesday 17 May 2016

भारत-नेपाल संबंधों में चीनी घुसपैठ (अरविंद जयतिलक)

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि पड़ोसी देश नेपाल में जो कुछ भी प्रतिकूल घटित हो रहा है वह उसके लिए सीधे तौर पर भारत को जिम्मेदार ठहरा रहा है। पिछले दिनों जब नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली का राज सिंहासन डोला तब भी भारत को संदेह की नजर से देखने की कोशिश हुई और दबी जुबान से कहा गया कि ओली सरकार को अस्थिर करने की साजिश नई दिल्ली में रची गयी। नेपाल इस धारणा को मजबूती देने के लिए भारत से अपने राजदूत को वापस बुलाया और नेपाली राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी का भारत दौरा रद्द किया। जबकि यह सर्वविदित है कि ओली सरकार की अस्थिरता के पीछे सरकार में शामिल सहयोगी दलों का हाथ था जिसका नेतृत्व पुष्प दहल कमल प्रचंड कर रहे थे। अगर यूनिफाइड कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल-माओवादी (यूपीसीएन-एम) जो कि मंत्रिमंडल में दूसरा सबसे बड़ा ताकतवर दल है, के मंत्रियों द्वारा इस्तीफा की आशंका उभरी नहीं होती तो नेपाल में राजनीतिक अस्थिरता का वातावरण निर्मित नहीं होता। हालांकि ऐन वक्त पर प्रचंड के यू-टर्न लेने से प्रधानमंत्री ओली का सत्ता-शीराजा बिखरने से बच गया।
गौरतलब है कि प्रचंड ने नेपाली कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनाने का रोडमैप तैयार कर लिया था और उसमें उनकी सफलता तय थी। इसलिए कि उन्होंने नेपाली कांग्रेस जो कि मुख्य विपक्षी दल है और जिसकी संसद में सदस्यों की संख्या 207 है, से मिलकर ओली को हटाने की रणनीति तय कर ली थी। अगर नेपाली कांग्रेस और प्रचंड की पार्टी के सदस्यों की संख्या (83) जोड़ दी जाए तो यह 290 के पास ठहरता है। उधर, प्रचंड को मधेशी फ्रंट से भी समर्थन मिलना तय था। लेकिन प्रचंड ने अपनी रणनीति को धार क्यों नहीं दी यह तो वही जानें, पर नेपाल का यह आरोप उचित नहीं कि ओली सरकार और चीन के बीच समझौते से नाराज भारत ने प्रचंड की मदद ली। यह आरोप इसलिए निराधार है कि प्रचंड को न तो भारत पंसद है और न ही भारत को प्रचंड की विचारधारा। ऐसे में भला प्रचंड भारत के इशारे पर ओली सरकार को अस्थिर करने का काम क्यों करेंगे।
सच तो यह है कि नेपाल में सियासी अस्थिरता के लिए नेपाल के राजनीतिक दलों की स्वार्थपूर्ण नीतियां जिम्मेदार है। जाहिर है कि प्रचंड नेपाल की ओली सरकार से नाराज हैं। उसका मुख्य कारण प्रधानमंत्री केपी ओली द्वारा आश्वासन के बावजूद भी मानवाधिकार हनन के आरोपी माओवादी नेताओं और कार्यकर्ताओं को राहत न दिया जाना है। कहा तो यह भी जा रहा है कि कुछ पूर्व मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के मामले चल रहे हैं और उन्हें बचाने के लिए प्रचंड ने ओली को अपदस्थ करने का दांव चला। बहरहाल सच जो भी हो पर नेपाल द्वारा इस मामले में भारत को घसीटना उचित नहीं। हां यह सही है कि भारत नवंबर 2015 में नेपाल में लागू संविधान से असहज है क्योंकि उसमें मधेशियों के अधिकारों की चिंता नहीं की गयी और भारत द्वारा कड़ा ऐतराज जताया गया।
यह भी सही है कि नेपाल और चीन की बढ़ती नजदीकियां और नेपाल में खुलकर चीन का हस्तक्षेप भारत को असहज करने वाला है और उससे भारत चिंतित भी है। बता दें कि पिछले दिनों नेपाल के प्रधानमंत्री ने चीन की सात दिवसीय यात्र की और उसके साथ ट्रांजिट व ट्रांसपोर्ट समझौता को आकार दिया जो कि कुटनीतिक व आर्थिक लिहाज से भारतीय हितों के विरुद्ध है। इस समझौते से चीन नेपाल को अपना बंदरगाह उपलब्ध कराएगा जिससे नेपाल की भारतीय बंदरगाहों पर निर्भरता कम होगी। गौरतलब है कि नेपाल अपना साठ फीसद से अधिक आयात भारत के मार्फत करता है। अगर दोनों देश इस समझौते को मूर्त देते हैं तो नि:संदेह भारत का आर्थिक नुकसान होगा। लेकिन नेपाल की यह दलील कि इससे बेचैन होकर भारत ने उसे अस्थिर करने की कोशिश की उसकी नासमझी को बयां करता है।
नेपाल को समझना होगा कि उसे अस्थिर करने की चाल चीन भी चल सकता है। इसलिए और भी कि प्रचंड और चीन की निकटता किसी से छिपा नहीं है। याद होगा गत वर्ष पहले सीपीएन माओवादी के अंतरराट्रीय व्यूरो प्रमुख कृष्ण बहादूर माहरा और एक अज्ञात चीनी के बीच बातचीत का जारी टेप की खबर दुनिया के सामने उजागर हुआ जिसमें माहरा द्वारा प्रचंड के नेतृत्व में नई सरकार के गठन के वास्ते 50 सांसदों की खरीद-फरोख्त के लिए 50 करोड़ रुपये की मांग की गयी। फिर क्यों न विश्वास किया जाए कि प्रधानमंत्री ओली को अर्दब में रखने के लिए चीन ने ही प्रचंड को आगे किया। नेपाल को समझना होगा कि चीन एक अरसे से उसे भारत से दूर करने में लगा है। इसके पीछे उसका मकसद नेपाल में निर्वासित जीवन बीता रहे तिब्बतियों के आंदोलन को कुचलना और दूसरा दक्षिण एशिया में भारत के प्रभुत्व को कम करना है। यही कारण है कि वह नेपाल के विकास पर अरबों डॉलर खर्च कर रहा है। चंद रोज पहले उसने नेपाल में तेल, गैस एवं अन्य खनिजों की खोज भी शुरू कर दी है तथा नेपाल की मदद के नाम पर सड़क और रेल नेटवर्क को खोल दिया है। उसने अपने गांसू राय से कई रेल डिब्बों में सामान भरकर नेपाल को भेजा है। इसके अलावा वह अन्य क्षेत्रों मसलन शिक्षा, बिजली में भी भरपूर धन खर्च कर रहा है। वह नेपाल के लोगों को प्रभावित करने के उद्देश्य से वहां पुस्तकालय, विज्ञान प्रयोगशाला के अतिरिक्त हजारों की संख्या में स्कूल खोल रहा है। महत्वपूर्ण बात यह कि चीन को माओवादियों का खुला समर्थन मिल रहा है। नेपाल में माओवादियों की एक विशाल आबादी वैचारिक रूप से स्वयं को चीन के निकट पाता है। चीन इस वस्तुस्थिति से सुपरिचित है इसलिए वह उसका भरपूर फायदा भी उठा रहा है। साथ ही वह वैचारिक निकटता का हवाला देकर भारत विरोधी माओवादियों को भड़काने की साजिश रच रहा है। दूसरी ओर नेपाल के माओवादी नेता स्वयं को भारत विरोधी प्रचारित करने से बाज नहीं आ रहे हैं। वे चीन की शह पर 1950 की भारत-नेपाल मैत्री संधि का विरोध कर रहे हैं। जबकि वह अछी तरह अवगत हैं कि यह संधि भारत के लिए सामरिक लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण है। चीन नेपाली माओवादियों को आर्थिक मदद देकर और राजनीतिक समर्थन व्यक्त कर भारत के साथ चली आ रही जल बंटवारे और सिंचाई से संबंधित व्यवस्था में खलल डाल रहा है। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि नेपाल चीन की इस खतरनका नीति से बेखबर है। जबकि उम्मीद थी कि नेपाल में केपी शर्मा ओली के प्रधानमंत्री बनने से भारत से उसके संबंध सुधरेंगे। लेकिन विडंबना है कि ओली भारत से संबंध सुधारने के बजाए चीन से अपने रिश्ते प्रगाढ़ कर रहे हैं। दरअसल ओली की मंशा तभी झलक गयी थी जब नेपाल में संविधान लागू होने के बाद मधेशियों द्वारा विरोध किया गया तो वे कहते सुने गए कि अगर भारत नेपाल को सामान नहीं देगा तो वह चीन से उसे हासिल कर लेगा। जबकि यह सचाई है कि नेपाल को आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति में बाधा डालने का काम कभी भारत ने किया ही नहीं। लेकिन देखा गया कि इसके बावजूद भी नेपाल ने इस मामले को न सिर्फ संयुक्त राष्ट्र संघ में उठाया बल्कि भारत को असहज करने की कोशिश करते हुए धमकी भी दी कि अगर वह हमें पीछे ढकेलना जारी रखा तो उसे मजबूरन चीन की ओर हाथ बढ़ाना पड़ेगा। जबकि यह सचाई है कि भारत ने कभी भी नेपाल को मदद करने से इंकार नहीं किया। वह आज भी नेपाल के विकास पर हर वर्ष 6 करोड़ डॉलर खर्च कर रहा है। इसके अलावा वह हजारों नेपाली विद्यार्थियों को छात्रवृत्ति और नेपाल की दर्जनों छोटी-बड़ी परियोजनाओं में मदद करता है। उचित होगा कि भारत नेपाल के बदलते रुख और उसकी चीन से बढ़ती प्रगाढ़ता से सतर्क हो।
अगर चीन नेपाल को अपने पाले में खींचने में सफल रहा तो इससे भारत की संप्रभुता तो प्रभावित होगी ही साथ ही नेपाल की दुर्गति भी तिब्बत जैसी होनी तय है। यह भारत के हित में नहीं होगा। बेहतर होगा कि नेपाल भी वास्तविक स्थिति को समङो और भारत के साथ मधुरता बनाए रखे।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)(Dainik jagran)

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