Tuesday 17 May 2016

संतुलित विकास की जरूरत (सतीश सिंह)

संतुलित पर्यावरण को आने वाली पीढ़ी के लिए बचाकर रखने के लिए हम तैयार नहीं हैं। पर्यावरण के मुख्य तत्व हैं, जल, वायु एवं भूमि। लेकिन विकास के रास्ते पर आगे बढ़ते हुए हम इनसे जुड़े प्रदूषण के दुष्परिणामों को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं, जिसके कारण आये दिन हमें बाढ़, सूखा, भूकंप आदि का सामना करना पड़ रहा है। विश्व स्वास्थ संगठन (डब्लूएचओ) ने अपने ताजा रिपोर्ट में दिल्ली को विश्व का सबसे प्रदूषित शहर बताया है। इस रिपोर्ट के मुताबिक विश्व के शीर्ष 20 प्रदूषित शहरों में से 13 भारत से हैं। बिहार की राजधानी पटना का इसमें छठा स्थान है। दि न्यूयार्क टाइम्स इंटरनेशनल वीकली ने अपने 2 फरवरी, 2014 के अंक में प्रकाशित किया था कि बीजिंग में बहने वाली हवा दिल्ली में बहने वाली हवा से यादा स्वस्थ है।
वायुमंडल जटिल प्राकृतिक गैसों की एक संतुलित प्रणाली है, जो पृथ्वी पर जीवन को संभव बनाती है। एक लंबे अरसे से यह सुचारू रूप से कार्य कर रही थी, लेकिन हमारे लालच की वजह से आज यह प्रदूषित हो गई है। वायु प्रदूषण से आशय है जटिल गैसों की संरचना में बिखराव आना। वायु प्रदूषण का कारण सल्फर ऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड, कार्बन मोनो ऑक्साइड, वोलाटाइल आर्गेनिक कंपाउंड, पार्टीकुलेट्स, परसिस्टेंट फ्री रेडिकल्स, टॉक्सिक मेटल्स, ध्वनि आदि को माना जाता है। इस संबंध में सबसे बड़ा खतरा क्लोरोफ्लोरोकार्बन गैस के उत्सर्जन से है, जो मानव निर्मित उपकरणों जैसे एयर कंडीशन, फ्रिज, एयरोसेल स्प्रे आदि से उत्सर्जित होता है। ओजोन लेयर के परत के छीजने का कारण क्लोरोफ्लोरोकार्बन गैस है। ओजोन लेयर अल्ट्रा वायलेट किरणों को धरती पर आने से रोकता है। अल्ट्रा वायलेट किरण से त्वचा कैंसर,आंख से संबंधित बीमारियां आदि हो सकती हैं।
जीवित प्राणी को जीने के लिये एक निश्चित अंतराल पर ऑक्सीजन ग्रहण करना होता है, लेकिन वायु प्रदूषित होने से वायुमंडल से ऑक्सीजन की मात्र आहिस्ता-आहिस्ता कम हो रही है, जिससे जीव-जंतुओं को सांस लेने में कठिनाई का सामना करना पड़ रहा है। साथ ही लोग अस्थमा, फेफड़े से संबंधित बीमारियां, कैंसर, सिस्टिक फाइब्रोसिस, कार्डियोवस्कुलर आदि बीमारियों से ग्रसित हो रहे हैं।
डब्लूएचओ ने 25 मार्च, 2014 को जारी अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि वायु प्रदूषण के कारण विश्व में हर साल 7 मिलियन लोग मर रहे हैं। अकेले भारत में वायु प्रदूषण के कारण वर्ष 2010 में 6,20,000 लोग अपनी जान गवां चुके हैं।
नदी, झील, नहर, तालाब, भूगर्भीय जल, सागर आदि के प्रदूषण को जल प्रदूषण कहा जाता है। प्रदूषित पानी का अर्थ है-सहने की क्षमता से अधिक मात्र में रसायन का उसमें पाया जाना। प्रदूषित पानी इंसानों के साथ-साथ पेड़-पौधों पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालता है। डब्लूएचओ द्वारा 2010 में जारी रिपोर्ट के अनुसार प्रदूषित पानी पीने से विश्व में 3.6 मिलियन लोग हर साल मर रहे हैं, जिसमें से बचों की संख्या 1.5 मिलियन है। आज चीन का 90 प्रतिशत पानी पीने के योग्य नहीं है। 2007 में जारी अपनी एक रिपोर्ट में चीन के नेशनल डेवलेपमेंट एजेंसी ने कहा था कि चीन की सात प्रमुख नदियों का पानी पूरी तरह से जहरीला हो चुका है। भारत की बड़ी नदियों में यमुना मर चुकी है। सरस्वती कब विलुप्त हुई, इसका ठीक से हमें पता नहीं है। गंगा भी मरने के कगार पर है।
कानपुर से पहले नरौरा परमाणु संयंत्र का अवशेष तो कानपुर में 400-500 कल-कारखानों का घातक रासायनिक अवशेष गंगा में रोज प्रवाहित किया जाता है। गंदगी, दूषित और सूखती नदी के कारण गंगेटिक डाल्फिन लुप्त होने के कगार पर हैं। आमतौर पर सभी नदियों में पीएच, अल्केलिनिटी, डिजॉल्वड ऑक्सीजन (डीओ), टोटल डिजॉल्वड सॉलिड (टीडीएस), बीओडी, कैल्शियम, मैगनिशियम और क्लोरायड जैसे तत्वों की मात्र निर्धारित स्तर से यादा पाई गई है। जाहिर है इन तत्वों की उपस्थिति पानी में एक निश्चित स्तर पर होनी चाहिए। इनकी यादा मात्र स्वास्थ के लिए तो घातक है साथ ही साथ यह जलीय जीव-जंतुओं के जीवन को भी खतरे में डालता है। भूगर्भीय प्रदूषण का मूल कारण मिट्टी एवं सतह पर मौजूद जल का प्रदूषित होना है। मिट्टी में घातक रासायनिक तत्वों के लगातार पेवस्त होते रहने से उनकी पहुंच भूगर्भीय जल तक हो जाती है। इसी तरह मल-मूत्र और घातक रासायनिक तत्वों के नदी में प्रवाहित किये जाने से प्रदूषित नदी जल निकटवर्ती इलाकों के भूगर्भीय जल को भी प्रदूषित कर देता है। भूगर्भीय जल के प्रदूषित होने का एक बहुत बड़ा कारण कृषि कार्यो में उपयोग किया जाने वाला फर्टिलाइजर, हर्बीसाइड, इन्सेक्टीसाइड आदि भी है। कचड़ा के असफल प्रबंधन, कृषि कार्यो में पेस्टीसाइड, इन्सेक्टीसाइड, फर्टिलाइजर आदि के उपयोग, मल, फसल एवं निर्माण से संबंधित अवशेष, इंडस्टियल अवशेष, जैसे, रसायन, मेटल्स, प्लास्टिक आदि खनिज पदार्थो के लिए पहाड़ों का खनन, पेड़ों की कटाई, रसायनिक एवं न्यूक्लियर प्लांट से निकलने वाले अवशेष, तेल शोधन कारखानों में प्रयोग किये जाने वाले पेट्रो, गैस व डीजल से उत्सर्जित होने वाले जानलेवा गैसों आदि के कारण भूमि में प्रदूषण का स्तर लगातार बढ़ रहा है।
प्रदूषित हो रहे भूमि का सबसे बड़ा कारण जंगल और पहाड़ की दुर्दशा को माना जा सकता है। मौजूदा समय में भारत में जंगल 64 मिलियन हेक्टेयर एरिया में या कुल भूमि के 19.5 प्रतिशत हिस्से में फैला है। इस संदर्भ में यदि आंकड़ों की बात करें तो फूड एवं कृषि संगठन द्वारा वर्ष 2010 में जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत विश्व के उन 10 चुनिंदा देशों में शामिल है, जहां जंगल का फैलाव तुलनात्मक दृष्टिकोण से अभी भी संतोषजनक है। पिछले 20 वर्षो में भारत में जंगल की भूमि में इजाफा हुआ है। फिर भी, स्थिति को बहुत सकारात्मक नहीं कहा जा सकता है। चिपको आंदोलन का असर खत्म हो चुका है।
कहा जा सकता है कि प्रदूषण के कारण लोग अपनी स्वाभाविक जिंदीगी नहीं जी पा रहे हैं। प्रदूषित हो रहे पर्यावरण को बचाना हमारे लिए सबसे बड़ी चुनौती जरूर है, लेकिन इस पर विजय प्राप्त किया जा सकता है। इस आलोक में जन-जागरूकता अभियान चलाना मुफीद हो सकता है। यदि वस्त्र, बोतल, रैपर, कागज, शॉपिंग बैग आदि की बार-बार खरीददारी नहीं की जाये, नष्ट होने वाली वस्तुओं का उपयोग किया जाये, पेस्टीसाइड और इन्सेक्टीसाइड के उपयोग से तौबा की जाये, हरेक वस्तु के अधिकतम उपयोग करने की आदत को विकसित किया जाये, जल की महत्ता को समझा जाये, गाड़ियों का उपयोग कम किया जाये, सार्वजनिक वाहन से यात्र करने की आदत डाली जाये, छोटी दूरी तय करने के लिए साइकिल का इस्तेमाल किया जाये, कम कचड़ा पैदा किया जाये, कचड़ा को कम्पोस्ट में तब्दील करने की कोशिश की जाये तो निश्चित रूप से प्रदूषण की रफ्तार धीमी पड़ सकती है। हम छोटी-छोटी कोशिशों के द्वारा भी अपेक्षित परिणाम प्राप्त कर सकते हैं।
(लेखक स्वतंत्र टिप्णीकार हैं)(Dainik Jagran)

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