Thursday 12 May 2016

पीएफ पर आगा-पीछा (आलोक पुराणिक)

वीडेंट फंड पर बहुत चक-चक मची है। हाल में बेंगलुरु में प्रोवीडेंट फंड के मसले पर बेहद हिंसक प्रदर्शन हुए। मसला यह था कि एक मई से एक नियम लागू होनेवाला था, जिसके मुताबिक कर्मचारी 58 साल की उम्र से पहले अपने प्रोवीडेंट फंड यानी भविष्य निधि का पूरा पैसा नहीं निकाल पाते। इस नियम के मुताबिक दो महीने बेरोजगार रहने के बाद कर्मचारी भविष्य निधि में से वही रकम निकाल सकते थे, जो उन्होंने खुद बतौर कर्मचारी भविष्य निधि में डाली है, उस पर हासिल ब्याज भी वह निकाल सकते थे। पर वह पूरी भविष्य निधि नहीं निकाल सकते थे, 58 साल की उम्र से पहले वह पूरी भविष्य निधि को नहीं ले सकते थे। संक्षेप में सरकार भविष्य निधि से रकम निकालने को मुश्किल बनानेवाली थी। पर बेंगलुरु के हिंसक प्रदर्शनों के बाद भविष्य निधि से जुड़े नियमों को मुश्किल बनाने की प्रक्रिया रोक दी गई है। हाल में 2016-17 के बजट में केंद्रीय वित्त-मंत्री अरुण जेटली ने भविष्य निधि को लेकर एक प्रस्ताव रखा था, जो भारी विरोध के बाद वापस ले लिया गया था। बजट में जेटली ने प्रस्ताव रखा था कि एक अप्रैल, 2016 के बाद भविष्य निधि में डाली गई रकम को वापस लेने पर कुल रकम के साठ प्रतिशत पर कर लगाया जाएगा। इस पर भी भीषण विरोध हुआ और सरकार को कदम वापस खींचने पड़े।भविष्य निधि का मसला इतना संवेदनशील क्यों हो गया है? और सरकार को बार-बार इस पर उठाए गए कदम वापस क्यों लेने पड़ रहे हैं? भविष्य-निधि को लेकर कर्मचारी इतने संवेदनशील क्यों हैं और सरकार इसे लेकर उठाए जानेवाले कदमों को बार-बार वापस क्यों ले रही है? भविष्य निधि का मूल कंसेप्ट इसके नाम में निहित है-भविष्य निधि यानी ऐसी निधि, जिसका इस्तेमाल भविष्य के लिए किया जाना है। यह मूलत सामाजिक सुरक्षा के लिए है। सामाजिक सुरक्षा यानी बंदे के पास जब कमाने का जरिया न हो, तब भी उसके भरण-पोषण का इंतजाम कुछ होना चाहिए। भारत जैसे विकासशील देश में सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्थाएं मजबूत नहीं हैं। बेरोजगारी भत्ता एक किस्म की सामाजिक सुरक्षा है। पेंशन एक किस्म की सामाजिक सुरक्षा है। प्रोवीडेंट फंड एक किस्म की सामाजिक सुरक्षा है। भविष्य निधि का इस्तेमाल परिभाषा के हिसाब से ही भविष्य में यानी रिटायरमेंट के बाद होना चाहिए। बीच में पहले कई तय उद्देश्यों के लिए भविष्य निधि से रकम निकालने की छूट है। पर यह समझ लेना चाहिए कि रिटायरमेंट से पहले जितनी रकम पीएफ से निकाल ली जायेगी, बुढ़ापे के बाद संसाधनहीनता उतनी ही ज्यादा होगी। भविष्य निधि के मसलें को कुछ और आंकड़ों से जोड़कर देखा जाना चाहिए। एक रिपोर्ट के मुताबिक साठ साल से ऊपर की आबादी की तादाद कुल जनसंख्या की 8.6 प्रतिशत है। यह आंकड़ा 2011 की स्थिति पर आधारित है। यानी भारत में इस समय करीब 10.3 करोड़ लोग साठ साल से ऊपर की आयु के हैं। 2001 के मुकाबले 2011 में साठ साल से ऊपर के लोगों की तादाद में 35.5 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। 2001 में साठ साल से ऊपर के लोगों की तादाद 7.6 करोड़ थी, यह 2011 में बढ़कर 10.3 करोड़ हो गयी। यानी कुल मिलाकर भविष्य में बुजुर्ग-भारत के लिए सरकार व नीति-निर्धारकों को ठोस चिंताएं करनी पड़ेंगी। भारत अमेरिका या इंग्लैंड नहीं है, जहां बुजुर्गों के लिए न्यूनतम सामाजिक सुरक्षा सरकार की तरफ से रहती है। इसका मतलब यही है कि कर्मचारियों को बताया जाये, समझाया जाये कि रिटायरमेंट के बाद अपनी जिंदगी को आप इस भविष्य निधि से ही काटेंगे, तो इसे 58 या 60 से पहले ना निकालिये। कर्मचारी साठ से पहले भविष्य निधि को ओर देखे भी नहीं, ऐसा उन्हें समझाकर, उनमें वित्तीय साक्षरता पैदा करके किया जा सकता है। इस संबंध में कोई नियम-कानून थोपने से परिणाम उल्टे आ जाते हैं। इस मुल्क में वित्तीय साक्षरता कम है। लोगों को समझाया जाना जरूरी है कि उनका बुढ़ापा पार कराने में भविष्य निधि की क्या भूमिका है। भारत में पढ़े-लिखे लोगों में भी वित्तीय साक्षरता का गहरा अभाव है। इन लोगों को भी नहीं अंदाज है कि भविष्य में जीने-खाने की लागतें क्या होने वाली हैं, जो मेडिकल टेस्ट अभी एक हजार रुपये के होते हैं, 20 साल बाद कितने रु पये के होते हैं; इसका कोई अता-पता अधिकांश लोगों को नहीं है। वर्तमान पर बुरी तरह फोकस करने का एक परिणाम यह होता है कि वर्तमान उपभोग के लिए भविष्य की निधि से रकम निकालने में भी लोग नहीं हिचकते। भविष्य वे देख ही नहीं पाते। विकसित देशों में इस संबंध में विस्तार से समझाया-बताया जाता है। रिटायरमेंट प्लानिंग जैसी योजनाएं लांच की जाती हैं पर भारत में वित्तीय साक्षरता पर ज्यादा जोर नहीं दिया जाता। सरकार उन कदमों को कानून के जरिये थोपना चाहती है, जो दरअसल कर्मचारियों के हित में ही हैं। पर थोपे गये किसी भी कानून का विरोध ही होता है। सो हो रहा है। और चूंकि इस संबंध में ज्ञान का स्तर ज्यादा नहीं है, तो मजदूर और कर्मचारी कुछ का कुछ समझ सकते हैं। यह बहुत बड़ा खतरा है। इस संबंध में व्यापक अभियान छेड़े जाने की जरूरत है। स्कूल-कॉलेजों में तो छात्रों-छात्राओं को वित्तीय साक्षरता, बचत, निवेश और भविष्य निधि आदि के बारे में बताया ही जाये। हर कंपनी, हर फैक्ट्री में मजदूरों, कर्मचारियों को इस संबंध में आसान तरीके से बताने-समझाने के इंतजाम किये जाने चाहिए।(RS)

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