Thursday 12 May 2016

इजरायल और भारत (एस. शंकर)

ईरान ने इधर अपनी मिसाइल पर बड़े-बड़े शब्दों में लिखकर परीक्षण किया-‘इजरायल को दुनिया से मिटा देना है!’ सारी दुनिया ने यह संदेश देखा, सुना। पर इस पर क्या प्रतिक्रिया हुई? कुछ नहीं। यह पहली बार नहीं हुआ। ईरान के पिछले राष्ट्रपति अहमदीनेजाद ने ठीक इन्हीं शब्दों में इजरायल को ‘दुनिया के नक्शे से हटा देने’ की बार-बार घोषणाएं की थी। इसलिए नहीं कि इजरायल ने उनके साथ कुछ बुरा किया, बल्कि सिर्फ इसलिए कि इस्लाम यहूदियों से घृणा करता है। हमारे नेता और बुद्धिजीवी अंदरूनी राजनीति की ‘सेक्युलर’ झक को अंतरराष्ट्रीय संबधों तक ले जाते हैं। तभी वे इजरायल को मिटा देने जैसी भयंकर बयानबाजियों पर भी चुप रहते हैं, मगर फलस्तीन की फिक्र करते रहते हैं। उलटे इजरायल को ही दुष्ट दिखाने की कोशिश करते हैं। किंतु कृपया खोजें कि इजरायल ने आज तक कभी ईरान का क्या बिगाड़ा? यदि इसका उत्तर न मिले, तब सोचें कि किसी देश का समूल सफाया करने की खुली नीति के पीछे कैसा विश्वास है, कौन-सा सिद्धांत है? कई मामलों में भारत की स्थिति इजरायल-सी ही है। जैसे इजरायल को मिटाना ईरान और कई मुस्लिम देशों, शासकों का लक्ष्य है उसी तरह भारत को तोड़ना, मिटाना पाक और कई आतंकी संगठनों का लगभग उतना ही खुला लक्ष्य है। 1जिस तरह ईरान द्वारा इजरायल के विरुद्ध हिंसक बयानबाजी की अनदेखी की जाती रही है उसी तरह भारत के विरुद्ध पाकिस्तानी आइएसआइ तथा अनेक ताकतवर जिहादी संगठनों की वैसी ही योजनाओं को नजरअंदाज किया जाता रहा है। भारत पर पाकिस्तान ने आज तक कम से कम चार बार आक्रमण किया। क्या भारत ने उसका कुछ बिगाड़ा था? यदि नहीं, तो भारत को नष्ट करने, कब्जा करने की चाह के अलावा इसकी और कोई व्याख्या नहीं! इस सच का सामना करने की ताब हमारे ‘सेक्युलर’ नेताओं, बुद्धिजीवियों को नहीं, इसलिए वे हंसकर इस बात को टालने की कोशिश करते हैं। उलटे झूठी दलीलों से भारत सरकार या किन्हीं हंिदूू संगठनों को ही दोष देने लगते हैं। जैसे अभी कांग्रेस नेता ने इस्लामिक स्टेट और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को समान बताया। शुरू से ही इजरायल की जान पर उसी तरह आफत है, जैसे भारत की सुरक्षा पर सबसे जिद्दी और निरंतर आफत पाकिस्तान रहा है। जैसे पाकिस्तान ने भारत पर अकारण आक्रमण किए हैं, उसी तरह सन् 1948 में इजरायल के जन्म के तुरत बाद उस पर मिस्न, इराक, जार्डन, लेबनान, सीरिया ने समवेत हमला किया था। सच्चाई यह है कि हालात ने यहूदियों को योद्धा बनने को मजबूर किया। इजरायल न केवल हमारा मित्र देश है, बल्कि आत्मरक्षा और आत्मसम्मान के पाठ हमें उससे सीखना चाहिए। किसी देश की रक्षा कोई दूसरा नहीं करता। उसे स्वयं अपनी रक्षा करनी होती है। फिर, लंबे समय से इजरायल पर पड़ोसी हमलों की प्रकृति कुछ वही है, जो हम कश्मीर में विगत पच्चीस साल से ङोल रहे हैं। यानी किसी देश द्वारा आतंकी संगठनों द्वारा जब-तब हमले। फिर भी यहां अनेक बुद्धिजीवी इजरायल के ही विरुद्ध हवा बनाते हैं। जैसे वे कश्मीर पर भी भारत सरकार और न्यायपालिका के बदले अफजल और याकूब मेमन के पक्ष में दिखते हैं। पिछले छह दशकों का इतिहास उलटें तो हमेशा विविध इस्लामी शक्तियों ने इजरायल पर हमला किया। इजरायल ने एक बार भी लड़ाई स्वयं नहीं छेड़ी। 1948 के बाद भी 1956, 1967 और 1973 में तीन बार पुन: उस पर आक्रमण हुए। किंतु युद्धों में इजरायल की जीत उसका अस्तित्व सुरक्षित नहीं करती। ईरान की कटिबद्धता पुन: यही दिखाती है। इस विकट स्थिति को यदि भारतीय लोग न समङों तो यह दुर्भाग्य की बात है। 1कई इस्लामी देशों, सत्ताओं को मन ही मन विश्वास है कि अपनी अति-सीमित, स्थिर जनसंख्या, छोटे क्षेत्रफल और नगण्य अंतरराष्ट्रीय समर्थन के कारण इजरायल को अंतत: हारना होगा। इजरायल के पास कोई स्थायी सेना तक नहीं है। उसकी नागरिक आबादी ही आवधिक रूप से सैनिक सेवा करती है। इसलिए उस देश के लिए एक-एक सैनिक कीमती है, जिसे यहां अपने सैनिकों की उपेक्षा करने वाले जेएनयू-ब्रांड बुद्धिजीवी नहीं समझ सकते। अमेरिका, फ्रांस, चीन, रूस आदि कई देशों ने हाल में ईरान पर प्रतिबंध हटाने के लिए समझौते किए। क्या वे शर्तबंदी नहीं कर सकते थे कि ईरान इजरायल के विरुद्ध अपनी विध्वंसकारी योजनाएं बंद करे? यह हो सकता था, क्योंकि ईरान को प्रतिबंधों से काफी नुकसान हो रहा था और इजराइल को नष्ट करना उसकी जरूरत नहीं, बल्कि वैचारिक सनक है। पर पश्चिमी देशों ने इजराइल की उपेक्षा की। 1स्टालिन और हिटलर द्वारा यूरोप में यहूदियों के संहार पर यूरोप ने कोई गंभीर कदम नहीं उठाया। श्रीअरविंद ने 1939 में ही कहा था कि इंग्लैंड, फ्रांस जैसे देश एक सीमा तक ही यहूदियों का साथ देंगे। आज भी ठीक वही स्थिति देखी जा सकती है। ऐसी स्थिति में इजरायल क्या करे? हमें समझना चाहिए कि इजरायल अपने अस्तित्व की लड़ाई अकेले लड़ रहा है। उसे अमेरिका का समर्थन मिलता रहा है। किंतु लड़ना-मरना तो इजरायल को ही है। नीति-निर्णय भी उन्हीं को लेने हैं। एक भी लड़ाई में निर्णायक हार इजरायल का अस्तित्व समाप्त कर सकती है। अत: इजरायल के पास जीतने के सिवा कोई विकल्प नहीं है। हमें चारों तरफ से शत्रुओं से घिरे हुए इस नन्हें से देश की विडंबना समझने का कष्ट करना चाहिए, क्योंकि हमारी अपनी स्थिति बहुत भिन्न नहीं है। 1(लेखक बड़ौदा के महाराजा सायाजीराव विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं)(dainik jagran)

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