Thursday 12 May 2016

कश्मीर : सैन्य कॉलोनियों पर सियासत (प्रो. हरि ओम)

कश्मीर में हालिया घटनाएं खासकर मार्च, 2017 के बाद की घटनाएं सेना, जो भारत की एकता एवं अखंडता को अक्षुण्ण बनाए रखने की खातिर अक्टूबर, 1947 के बाद से ही आक्रामक और विस्तारवादी रवैया अपनाए पाकिस्तान के नापाक मंसूबों का डटकर सामना करते हुए प्राणों की बाजी तक लगाती रही है, का मनोबल तोड़ने वाली हैं। इनसे अलगाववादियों के प्रति शासन-प्रशासन के नरम रुख का पता चलता है। अठारह मार्च को जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल एनएन वोहरा ने सेना के कमांडरों से श्रीनगर के टट्टू ग्राउंड, अनंतनाग के हाई ग्राउंड्स, करगिल और जम्मू शहर स्थित सामरिक महत्त्व के चार शिविरों को खाली करने को कहा। करीब-करीब उसी समय शासन ने एक उच्चाधिकार प्राप्त समिति का गठन किया जिसमें सैन्य अभियान के पूर्व महानिदेशक और सीमा सुरक्षा बल के पूर्व महानिदेशक को शामिल किया गया। समिति से जम्मू-कश्मीर में उन क्षेत्रों की पहचान करने को कहा गया जहां आम्र्ड फोर्सेज स्पेशल पावर्स एक्ट (अफ्सपा) को हटाया जा सकता है। सेना, जो जम्मू-कश्मीर में उग्र गतिविधियों के खिलाफअभियान छेड़े हुए है, को अफ्सपा के तहत कुछ वैधानिक सुरक्षा हासिल है। दोनों फैसले राजनीतिक हैं, और संभवत: पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) की अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती को भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के साथगठजोड़ के लिए प्रेरित करने की गरज से किए गए ताकि इस संवेदनशील सीमांत राज्य में भाजपा फिर से सत्ता में हिस्सेदार बन सके। महबूबा ने भाजपा के साथ गठबंधन सरकार बनाने से पहले कुछ पूर्व शत्रे रखी थीं। उनकी दो शतरे में चरणबद्ध तरीके से जम्मू-कश्मीर का असैन्यीकरण और अफ्सपा को हटाए जाने को लेकर थीं। उनका कहना था कि ये दोनों उपाय ‘‘विास-बहाली’के लिए आवश्यक थे। सैनिकों का मनोबल तोड़ने और सीमा पार गलत संकेत देने के लिए जैसे कि इतना ही काफी न था, जो जम्मू-कश्मीर में आने वाली सत्ता और नई दिल्ली ने उकसावे पर आमादा एक भीड़ की इन कुटिल मांगों के आगे भी घुटने टेक दिए कि हंदवाड़ा स्थित सामरिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण बंकरों को ध्वस्त कर दिया जाए। कि सेना के खिलाफ हत्या के आरोप में मामला दर्ज किया जाए। हत्या का मामला 18 अप्रैल को दर्ज किया गया। इस तय के बावजूद कि हंदवाड़ा में आत्म-रक्षा में गोली चलानी पड़ी थी। अगर सेना ने गोली नहीं चलाई होती तो बेकाबू भीड़ ने बंकर फूंक दिए होते। सैनिकों को मार दिया होता। और 19 अप्रैल को दिनदहाड़े उकसाने के काम में जुटी भीड़ के सामने बंकरों को नष्ट कर दिया गया। भीड़ ने इन बंकरों को नष्ट किए जाने पर हर्षोल्लास में नारेबाजी करते हुए इसे अपनी ‘‘ऐतिहासिक संघर्ष’की जीत करार दिया। बंकरों और पिकेटों को नष्ट करने तथा उनकी जगहों को ‘‘शांति पार्क’घोषित करने की नई सरकार की नीति ने सही मायने में सेना की एक प्रतिष्ठान के तौर पर विश्वसनीयता को लुंज-पुंज कर दिया है। इस नीति ने विश्व समुदाय में यह समझ पैदा की है कि भारतीय सुरक्षा बल खासकर सेना ही थी, जो शांति और सुरक्षा सुनिश्चित करने के बजाय शांति को भंग करने में जुटी थी। बेकाबू भीड़ ने ही सेना के बंकरों पर यह आरोप लगाते हुए धावा बोल दिया था कि एक नाबालिग लड़की के साथ सेना के एक जवान ने छेड़छाड़ की थी। हालांकि सेना और उस लड़की ने इस आरोप से इनकार किया था। लेकिन राजनीतिक प्रतिष्ठान ने पुलिस और राष्ट्रीय मीडिया के सामने लड़की के बयान कि उसके साथ ‘‘एक स्थानीय युवक ने छेड़छाड़ की थी’ पर गौर नहीं किया। सात मई के बाद से जम्मू-कश्मीर में ‘‘राष्ट्रवादी’ भाजपा, स्वायत्तता की हिमायती नेशनल कांफ्रेंस (एनसी), स्वशासन की हामी पीडीपी, 1975 में हुए इंदिरा गांधी-शेख अब्दुल्ला समझौते की हिमायती कांग्रेस समेत तमाम राजनीतिक दलों के साथ (सीपीआई-एम), घाटी में अलगाववादी संगठनों के साथही तमाम नागरिक समूह, जो एक तरह से पृथकतावादी समूह ही हैं, पूर्व सैनिकों के खिलाफलामबंद हो गए। ये तमाम पार्टियां और पक्ष कश्मीर में दो सैनिक बस्तियां बसाए जाने के प्रस्ताव के खिलाफ हैं। ये बस्तियां श्रीनगर और बडगाम में बसाई जानी हैं। कश्मीर प्रांत के आयुक्त को कहा गया था कि वह 173 कैनाल भूमि की पहचान करें ताकि पूर्व सैनिकों के लिए दो बस्तियां बसाई जा सकें। पृथकतावादी इस प्रस्ताव को ‘‘साजिश करार दे रहे हैं, जो नई दिल्ली ने कश्मीर के मुस्लिम-बहुल चरित्र को को ही बदल डालने के लिएनई दिल्ली ने रची है ताकि घाटी में जारी पृथकतावादी आंदोलन को कमजोर किया जा सके।’ उन्होंने यह भी घोषणा की है कि ‘‘ये बस्तियां उनकी लाशों पर ही बन सकती हैं।’ दूसरी तरफ कश्मीर-केंद्रित ‘‘मुख्यधारा’ की पार्टियां इस प्रस्ताव को ‘‘आरएसएस-भाजपा और नई दिल्ली का ऐसा प्रयास करार दे रही हैं जो कश्मीर के विशेष दरजे और कश्मीरियत को खत्म कर देगा।’ उनका कहना है कि ये बस्तियां ‘‘बाहरी लोगों’के लिए बसाई जानी हैं। बाहरी लोगों से कश्मीरी नेताओं का मतलब उन लोगों से होता है, जो जम्मू-कश्मीर के स्थायी निवासी नहीं हैं, लेकिन उन्होंने बाहरियों में जम्मू प्रांत के पूर्व सैनिकों को भी शामिल कर लिया है। जहां तक पीडीपी-भाजपा गठबंधन सरकार का प्रश्न है तो दोनों पार्टियों ने अपना रुख सार्वजनिक कर दिया है। मुख्यमंत्री महबूबा ने कहा कि 9 मई को श्रीनगर में कश्मीर घाटी में सैनिक बस्तियां बनाए जाने की मांग उन तक पहुंची है। उनकी सरकार इसे कतई मंजूरी नहीं देगी। उसी दिन उसी जगह भाजपा नेता और उपमुख्यमंत्री निर्मल सिंह ने ऐसे किसी प्रस्ताव से अनभिज्ञता जतला दी। सरकार घाटी में नरम रुख अपना रही है। अच्छा रहेगा कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जो कुछ भी घाटी में हो रहा है, उस पर नए सिरे से विचार करें। (लेखक जम्मू विवि के सोशल साइंस विभाग पूर्व डीन हैं)(RS)

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