Sunday 22 May 2016

मौद्रिक नीति पर राजन-स्वामी में रार (प्रमोद भार्गव)

राज्य सभा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी का बयान थोड़ा चौंकाने व थोड़ा असमंजस पैदा करने वाला है। उन्होंने कहा है कि ‘भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन की नीतियां भारतीय अर्थव्यवस्था के अनुकूल नहीं हैं, इसलिए उन्हें शिकागो वापस भेज देना चाहिए। उन्होंने मुद्राफीति नियंत्रण की आड़ में ब्याज दरों में बढ़ोतरी की, जिससे देश को नुकसान हुआ। गवर्नर के हस्तक्षेप से औद्योगिक गतिविधियां कम हुईं, नतीजतन अर्थव्यवस्था बेरोजगारी का सबब बन गई। ऐसी नीतियों के चलते 67 प्रतिशत नौकरियों में कमी आई है।’ राजन के संदर्भ में वाणिज्य मंत्री निर्मला सीतारमण, वित्त मंत्री अरुण जेटली और वित्त राज्य मंत्री जयंत सिन्हा भी मौद्रिक नीतियों पर अप्रसन्नता जाहिर कर चुके हैं। नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया भी राजन के विचारों से असहमत हैं। भारतीय उद्योग संघ ने भी मांग की है कि रुपये का अवमूल्यन किया जाए, जिससे निर्यात की संभावनाएं बढ़ें। इन नाराजगियों से बेफिक्र राजन ने भारत में ही नहीं विश्व में जारी मंदी के लिए, कर्ज में डूबी कंपनियों को दोषी ठहराया है। लंदन स्कूल ऑफ इकानॉमिक्स संस्थान में राजन ने बोलते हुए कहा कि ‘दुनिया उत्पादकता में कमी का सामना कर रही है, इसकी वजह है कि सरकारें संकट में फंसी कंपनियों को उबारने में नाकाम रही हैं।’ साफ है, सकल घरेलू उत्पाद दर बढ़ाने के लिए उत्सुक भारत सरकार भी है और राजन भी हैं,लेकिन एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप थोपने की बजाय, समन्वय बिठाकर ही अर्थव्यस्था पटरी पर लाई जा सकती है।
रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन को लेकर सरकार और उसके समर्थकों में पैदा हो रहे असंतोष का मामला अलग है। दरअसल एक तो रिजर्व बैंक और उसके गवर्नर की अपनी सीमाएं हैं, दूसरे उन्हें बैंकों के हित सरंक्षण का भी ख्याल रखना होता है। इसलिए एकाएक ऐसा कहना तर्कसम्मत नहीं है कि राजन की नीतियों के चलते ही अर्थव्यवस्था में गतिरोध उत्पन्न हो रहा है। वैसे भी बैंकों की ब्याज दर घटाने बढ़ाने में ही गवर्नर की अहम् भूमिका है। रुपये की मूल्य वृद्धि या उसके अवमूल्यन में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा नीतियों की भी भूमिका अंतर्निहित रहती है।
हालांकि अब केंद्र सरकार ने नए नियम बनाकर बैंकों की ब्याज दर बढ़ाने व घटाने के उपाय भी तलाश लिए हैं। रिजर्व बैंक के लिए वार्षिक मंहगाई का लक्ष्य और बैंकों के लिए ब्याज दर तय करने के नजरिए से एमपीसी में सरकारी प्रतिनिधियों की सदस्यता सुनिश्चित कर दी है। अब भारत सरकार की ओर से इस मुद्रा नीति समिति में तीन सदस्य मनोनीत होंगे। इसके बाद मौद्रिक नीति के तहत ब्याज दरों के निर्णय का वर्तमान तरीका बदल जाएगा। मसलन इसमें हस्तक्षेप की अब सरकार की प्रत्यक्ष भूमिका होगी। किंतु जब समिति के सदस्यों के किसी नीति को लागू करने के बाबत, बराबर-बराबर मत होंगे, तो रिजर्व बैंक के गवर्नर को एक अतिरिक्त वोट का अधिकार होगा। मसलन गर्वनर अपनी मंशा के अनुसार नीति के पक्ष या विपक्ष में वोट डालने को स्वतंत्र होंगे। इससे लगता है, आखिर में निर्णायक हस्तक्षेप गवर्नर का ही रहेगा। बावजूद किसी न किसी स्तर पर सरकारी हस्तक्षेप तो दिखाई तो देगा ही। सरकार और राजन के बीच बेवाक बोलों को लेकर तनातनी अर्से से चली आ रही है। पिछले महीने अमेरिका में वैश्विक संस्थाओं ने भारतीय अर्थव्यवस्था को चमकती व उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं में से एक कहा था। विश्व बैंक व अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोश की इस सालाना बैठक में जी-20 देशों के वित्त मंत्री एवं बैंकों के गवर्नर मौजूद थे। तब राजन ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा था कि हमारे देश की आर्थिक हालत ‘अंधों में काने राजा जैसी है।’ मसलन राजन का आशय था कि जब दुनिया की अर्थव्यवस्थाएं डांवाडोल हो रही हैं, तब भारत की अर्थव्यवस्था थोड़ी बहुत ठीक है भी तो वह सरकार की नहीं, भगवान की मेहरबानी से है। हालांकि इस बैठक में राजन ने देश की अर्थव्यस्था की उपलब्धियों का गुणगान करते हुए यह भी कहा था कि,चालू खाता घटा है और राजकोषीय घाटे भी कम हुए हैं। मुद्रास्फीति की दर 11 प्रतिशत से घटकर 5 प्रतिशत पर आ गई है, इस कारण व्याज दर कटौती के अवसर पैदा हुए हैं। इसके आलावा हमारी सरकार दिवालिएपन से उबरने का और जीएसटी कानून भी बनाने जा रही है। ये कानून बन जाते हैं तो देश की आर्थिक वृद्धि दर तेजी से बढ़ती दिखाई देगी।
यहां सुब्रमण्यम स्वामी के राजन को शिकागो भेज देने के परिप्रेक्ष्य में गौरतलब है कि राजन जब सितंबर 2013 में भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर बनाए गए थे, उसके पहले वे शिकागो विवि के यूथ स्कूल ऑफ बिजनेस में प्रोफेसर थे। इस स्कूल को अमेरिकी सरकार का वित्त विभाग चलाता है। राजन को मध्यमार्गी अर्थशास्त्री माना जाता है। इस समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में राजग सरकार केंद्र में स्थापित हो गई थी और मोदी के इच्छा से ही राजन को भारत लाया गया था। राजन ने गवर्नर बनते ही फौरी नकदी के लिए रिजर्व बैंक की ब्याज दर 7.25 फीसदी से बढ़ाकर 8 फीसदी कर दी थी, जो 2014 तक चली। मुद्रास्फीति रोकने का यही पारंपरिक तरीका होता है। इससे तब संप्रग सरकार में वित्त मंत्री रहे पी. चिदंबरम भी सहमत नहीं थे। वे भी उद्योगों को शह देने की दलील दे रहे थे, ताकि विदेशी निवेश और मांग बढ़े। लेकिन राजन ने ब्याज दरों को शिथिल नहीं किया। राजन ने वित्त मंत्रलय और उद्योग में वृद्धि को प्रोत्साहन करने के लिए ब्याज दर में कमी के अधिक दबाव के बावजूद मुद्रास्फीतिक चिंताओं का हवाला देते हुए नीतिगत दर को उच्च स्तर पर बरकरार रखा। जनवरी 2015 से नीतिगत दर में कमी का सिलसिला शुरू किया, तब से रेपो दर कुल मिलाकर 1.50 प्रतिशत घटकर 6.50 प्रतिशत पर आ गई है। ब्याज दरें घटाने के बाद भी औद्योगिक उत्पादन नहीं बढ़ा। शायद इसकी एक प्रमुख वजह सरकारी बैंकों के डूबते कर्ज, मसलन गैर निष्पादित संपत्ति हो सकती है। आंकड़े भी उत्पादन घटने की तस्दीक कर चुके हैं। नतीजतन बेरोजगारी तो चरम पर है ही, लगे रोजगार भी कम हो रहे हैं। इसलिए इस बद्तर स्थिति के लिए केवल मौद्रिक नीतियों को दोषी नहीं ठहराया जा सकता है। साफ है, इस लिहाज से अर्थव्यवस्था में यदि कहीं गतिरोध है तो उसके इतर कारण हैं।
जिस राह पर भारत की अर्थव्यवस्था चल रही है, वह रास्ता हमने 1991 में उदारवादी आर्थिक नीतियों के चलते चुना था। तब से अब तक बाजारवाद को बढ़ावा देने के लिए उदारीकरण व निजीकरण की राह पर इतना आगे बढ़ गए हैं की डाकघर व बैंकों में जमा की जाने वाली अल्प बचत योजनाएं भी सरकार की आंखों में खटक रही हैं। इस प्रवृत्ति को हतोत्साहित करने की दृष्टि से भी न केवल ब्याज दरें घटाई गई हैं,बल्कि जिन आवर्ती जमाकर्ताओं के पास पैन कार्ड नहीं है, उनकी बचत राशि से भी 20 प्रतिशत राशि काटने के उपाय पिछले महीने से कर दिए गए हैं। ऐसी नीतियां लघु बचतकर्ताओं की हकमारी हैं। इन उपायों के लिए सरकार या गवर्नर जो भी दोषी हैं, उन्हें समझना चाहिए कि इससे न तो देश की अर्थव्यवस्था मजबूत होने वाली है और न ही सरकार को कोई लाभ मिलने वाला है।
ठहरी अर्थव्यवस्था का एक कारण खेती और लघु उद्योगों को प्रोत्साहित नहीं करना भी हो सकता है। देश में रोजगार व आजीविका का सबसे बड़ा साधन खेती-किसानी है। बावजूद न तो कृषि को लाभदायी बनाने के उपाय सामने आ रहे हैं और न ही फसल उत्पादक किसान को सम्मान का दर्जा मिल पा रहा हैं। इसलिए अर्थव्यवस्था को गति देने की दृष्टि से नीतियों में आमूलचूल परिवर्तन लाने की जरूरत है। यदि वाकई सरकार अर्थव्यवस्था का गतिरोध तोड़ना चाहती है तो हमें बाजारवादी नीतियों की जकड़बंदी से बाहर निकलना होगा। इसके लिए अमेरिका या ब्रिटेन से पूंजीवादी हितों के सरंक्षक गवर्नर आयात करने की बजाय, देश से ही रिजर्व बैंक के लिए ऐसा गवर्नर तलाशने की जरूरत है, जो देशी अर्थव्यवस्था को विकसित करने के देशज उपाय अमल में लाए।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)(दैनिक जागरण )

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