Tuesday 31 May 2016

अब मध्य एशिया तक हमारी पहुंच (यशवंत सिन्हा पूर्ववित्त एवं विदेश मंत्री)

चाबहार बंदरगाहके विकास के लिए भारत और ईरान के बीच हाल ही में समझौते पर हस्ताक्षर हुए। इससे व्यक्तिगत रूप से मुझे सही कदम उठाने का संतोष मिला है। मैं जब 2002 और 2004 के बीच विदेश मंत्री था तो मैंने इस मामले को आगे बढ़ाने में छोटी-सी भूमिका निभाई थी। असाधारण इतिहास बोध रखने वाले तब के प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी के मन में यह बात स्पष्ट थी कि भारत को ईरान के साथ श्रेष्ठतम संबंध विकसित करने चाहिए। वे 2001 में ईरान यात्रा पर गए, जिसने हमारे द्विपक्षीय संबंधों को जबर्दस्त बढ़ावा दिया। उन्हीं की यात्रा के दौरान ईरान और भारत अपने संबंधों को रणनीतिक स्तर तक ऊंचा उठाने पर सहमत हुए और द्विपक्षीय सहयोग के लिए कई सेक्टर की प्राथमिक क्षेत्रों के रूप में पहचान की गई।
ईरान के राष्ट्रपति खतामी 2003 की शुरुआत में भारत यात्रा पर आए। इसी यात्रा के दौरान दोनों देश औपचारिक रूप से चाबहार बंदरगाह को मिलकर विकसित करने पर सहमत हुए। 1990 के दशक में भारत ने ईरान के इस बंदरगाह का आंशिक विकास किया था और जब मैं विदेश मंत्री बना तो मैंने अपने तरीके से इसके पूर्ण विकास पर जोर दिया। तर्क बहुत सरल-सा था। पाकिस्तान हमेशा से भारत को उसके भू-भाग से अफगानिस्तान में प्रवेश देने के प्रति उदासीन रहा है। हाल के वर्षों में तो उसने भारत का अफगानिस्तान से ऐसा संपर्क बिल्कुल ही बंद कर दिया है। इस तरह पाकिस्तान ने सिर्फ भारत के अफगानिस्तान जाने पर पाबंदी लगा दी, बल्कि इसने मध्य एशिया में भारत के प्रवेश को भी रोक दिया। भारत को नुकसान पहुंचाने के लिए पाकिस्तान ने अपनी भौगोलिक स्थिति का पूरी तरह इस्तेमाल किया है। हमें पाकिस्तान द्वारा खड़ी की गई इस बाधा का तत्काल कोई समाधान खोजना था। भारत के सामने सिर्फ ईरान का विकल्प था और चाबहार बंदरगाह का विकास एकमात्र संभावना।
चाबहार बंदरगाह ईरान के दक्षिण-पूर्वी हिस्से और ओमान की खाड़ी में स्थित है। यह ईरान का एकमात्र ऐसा बंदरगाह है, जिसकी समुद्र तक सीधी पहुंच है। ईरान की सीमा से अफगानिस्तान की हाईवे व्यवस्था तक भारत द्वारा जरांज-देलाराम हाईवे का निर्माण उल्लेखनीय उपलब्धि है, क्योंकि इसे बड़ी कीमत चुकाकर निर्मित किया गया है। आर्थिक रूप से तो भारत ने कीमत चुकाई ही, लेकिन आतंकी हमलों में भारतीय निर्माण दलों के लोगों की जानें भी गईं। पाकिस्तान ने इस हाईवे का निर्माण रोकने के लिए अपने सारे आतंकवादी गुटों का इस्तेमाल किया, लेकिन हम अविचलित रहकर निर्माण में लगे रहे।
जब ईरान ने चाबहार से जाहेदान को जोड़ने वाला रोड बनाया तो चाबहार और अफगानिस्तान और वहां से मध्य एशिया तक पूरा रोड नेटवर्क अस्तित्व में गया। वर्ष 2003 में भारत ने ईरान और अफगानिस्तान के साथ प्राथमिकता के आधार पर व्यापार के लिए त्रि-पक्षीय समझौता किया। प्रधानमंत्री की मौजूदा यात्रा के दौरान भारत, ईरान और अफगानिस्तान के बीच त्रिपक्षीय समझौते पर हस्ताक्षर को उचित ही गेमचेंजर की उपमा दी गई है। मध्य एशिया के लिए अंतरराष्ट्रीय उत्तर-दक्षिण परिवहन गलियारे के विकास से भारतीय सामान को बिना दिक्कत सिर्फ अफगानिस्तान पहुंचाना आसान होगा बल्कि माल मध्य एशिया और उससे आगे यूरोप तक पहुंचाया जा सकेगा। तीनों ही देशों के लिए इस समझौते का अत्यधिक रणनीतिक महत्व है। कौन कहता है कि भूगोल बदला नहीं जा सकता और हमें इसमें हमेशा के लिए कैद रहना पड़ता है? यह गहरे खेद की बात है कि चाबहार पर अंतिम समझौते के लिए 13 साल का इंतजार करना पड़ा। इसका कारण अमेरिका से निपटने में यूपीए सरकार की भीरूता रही। अमेरिका ने ईरान पर इस बहाने प्रतिबंध लगा दिया कि वह परमाणु हथियार बनाने की टेक्नोलॉजी विकसित कर रहा है। इसके समर्थन में जो सबूत दिए गए थे, वे उतने ही बनावटी थे, जितने इराक द्वारा व्यापक विनाश के हथियार निर्मित करने के मामले में अमेरिका और ब्रिटेन द्वारा दिए गए सबूत, जिनका इस्तेमाल इराक पर हमला करने के लिए बहाने के लिए रूप में किया गया।
मुझे स्पष्ट रूप से याद है कि दिसंबर 2003 में मेरी ईरान यात्रा के दौरान राष्ट्रपति खतामी ने मुुझे बताया था कि वे परमाणु हथियारों को इस्लाम विरोधी मानते हैं औरउन्होंने आश्वस्त किया था कि परमाणु हथियार बनाने के लिए टेक्नोलॉजी विकसित करने में ईरान की कोई रुचि नहीं है। इसके बावजूद अमेरिका ने ईरान पर प्रतिबंध लगा दिए, जिसके तहत सभी देशों पर ईरान के साथ वाणिज्यिक सौदे करने पर रोक लगा दी गई। भारत ने सिर्फ चुपचाप इसे स्वीकार कर लिया, बल्कि अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा आयोग की बैठक में ईरान के खिलाफ वोटिंग करने की हद तक चला गया। इस घटनाक्रम से मैं इतना विचलित हो गया था कि मैंने यूपीए सरकार के इस फैसले की कटु आलोचना करते हुए बयान जारी किया और कहा कि ईरान के खिलाफ वोट देकर हमें सच्चे अर्थों में अमेरिका के पिछलग्गू देश हो गए हैं। जैसा कि कई अन्य देशों ने किया था, हम भी मतदान से अनुपस्थित रह सकते थे।
ईरान और पश्चिमी शक्तियों के बीच लंबी समझौता वार्ताओं के बाद आखिरकार दोनों के बीच समझौता हुआ और अमेरिका ईरान पर लगे प्रतिबंध उठाने के लिए राजी हुआ। इससे भारत के लिए ईरान और इसके परे अपनी रणनीतिक योजनाओं को अमल में लाने का रास्ता खुल गया। ईरानी नेतृत्व की परिपक्वता और महानता को श्रेय देना होगा कि इसने अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी में उसके खिलाफ भारत के मतदान को इस एेतिहासिक समझौते में बाधा नहीं बनने दिया। विदेश नीति का मूल उद्‌देश्य राष्ट्रीय हितों की रक्षा और उन्हें आगे बढ़ाना होता है। इस मूलभूत सिद्धांत का पालन दुनिया का हर देश करता है। इस मामले में भारत प्राय: गफलत करता रहा है। संदिग्ध कारणों से अपने राष्ट्रीय हितों की बलि चढ़ाने का हमारा लंबा इतिहास रहा है। दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आबादी के साथ भारत एक बड़ा देश है और यहां लोकतंत्र की गौरवान्वित करने वाली लंबी परंपरा है। हमें अमेरिका सहित किसी भी देश के खेमे का पिछलग्गू देश बनने की जरूरत नहीं है। किसी के नेतृत्व में आने की बजाय हमें नेतृत्व देना चाहिए। हमें अपनी विदेश नीति को आकार देने की स्वतंत्रता की बेशकीमती विरासत की पूरी तरह रक्षा करनी चाहिए। मौजूदा सरकार द्वारा उठाए गए कुछ कदमों ने भी इस स्वतंत्रता के साथ समझौता किया है। हमें इस बारे में सावधान रहना होगा।...(DB)

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