Sunday 29 May 2016

विकल्प के तीन मॉडल (स्वप्न दासगुप्ता)

ममता बनर्जी को पिछले शुक्रवार को कोलकाता में एक भव्य शपथ ग्रहण समारोह के जरिये पश्चिम बंगाल में अपनी धमाकेदार दूसरी जीत का जश्न मनाने का पूरा अधिकार था। आखिर यह हर लिहाज से उनके लिए एक कठिन चुनावी अभियान था, जब उनके खिलाफ तमाम शक्तियां हमलावर हुईं। ममता बनर्जी ने चुनाव पूर्व के तमाम अंकगणित को भी झुठलाया और अपने खिलाफ न केवल कांग्रेस-माकपा गठबंधन, बल्कि बुद्धिजीवियों के एक समूह और राज्य के सबसे बड़े मीडिया हाउस के जहरीले प्रचार अभियान का भी सफलतापूर्वक सामना किया। बावजूद इसके पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री चिर प्रतिद्वंद्वियों के खिलाफ अपनी निर्णायक जीत के महत्व का कुछ ज्यादा ही मतलब निकालने की दोषी भी रहीं। 19 मई को चुनाव नतीजे आने के बीच जैसे ही यह साफ हो गया कि वह सफाया कर रही हैं उसके कुछ ही मिनट के भीतर तृणमूल कांग्रेस के प्रवक्ता डेरेक ओ ब्रायन ने कहा कि कोलकाता से दिल्ली की हवाई दूरी बस दो घंटे की है। उनके वित्तमंत्री अमित मित्र ने भी ऐसा ही विचार व्यक्त किया। अमित मित्र ने ही फेडरल फ्रंट का विचार दिया था। खुद ममता बनर्जी ने तो कोई स्पष्ट बात नहीं की, लेकिन यह साफ है कि उन्होंने इस तथ्य पर ध्यान दिया कि उनके शपथ ग्रहण समारोह में जो लोग शामिल हुए उनमें नीतीश कुमार और लालू यादव, अखिलेश यादव, अरविंद केजरीवाल और फारुक अब्दुल्ला शामिल हैं। इनके अलावा अरुण जेटली, बाबुल सुप्रियो और अशोक गणपति राजू केंद्र सरकार की तरफ से समारोह में शामिल हुए। 1यह सही है कि इस समारोह में कई लोग अनुपस्थित भी रहे। कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी ने तो समारोह से दूरी बनाई ही, पड़ोसी राज्यों-उड़ीसा और सिक्किम के मुख्यमंत्री भी शामिल नहीं हुए। तमिलनाडु की कद्दावर मुख्यमंत्री जे. जयललिता शायद खुद अपने मंत्रिमंडल के गठन में कुछ ज्यादा ही व्यस्त थीं। चाहे जो भी न आया हो और इसके लिए चाहे जैसे तर्क दिए जाएं, लेकिन कोलकाता में राज्यों के नेताओं का जैसा जमावड़ा हुआ उसने नि:संदेह इन अटकलों को गर्मा दिया है कि दिल्ली, बिहार और पश्चिम बंगाल के चुनावों के बाद राष्ट्रीय स्तर की राजनीति में कुछ न कुछ घटित हो रहा है, जो भाजपा का एक व्यावहारिक राष्ट्रीय विकल्प दे सकता है। 1किसी भी नतीजे पर पहुंचने के पहले यह नोट करना महत्वपूर्ण है कि कम से कम तीन मॉडल हैं जिनका लगभग एक साथ इस्तेमाल किया गया है। पहला मॉडल पूर्ववर्ती संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन का है। यह मॉडल कांग्रेस की प्राथमिकता है। इसमें कांग्रेस प्रभावशाली भूमिका में होती है और तमाम क्षेत्रीय दल उसके साथ गठबंधन में शामिल होते हैं। इनमें द्रमुक से लेकर वामदल और राजद सरीखे दल सहयोगी की भूमिका में होते हैं। इस मॉडल में कांग्रेस का घटता रुतबा झलकता है, लेकिन इसके बावजूद वह राष्ट्रीय राजनीति की एक प्रमुख खिलाड़ी के रूप में अपनी भूमिका को कायम रखती है। दूसरा मॉडल वह है जिस पर नीतीश कुमार जोर दे रहे हैं। इसके तहत गठबंधन क्षेत्रीय स्तर पर किया जाता है और परिस्थितियों के अनुसार प्रभावशाली दल अथवा सहयोगी की भूमिका बदलती रहती है। इसी के तहत हालिया बिहार चुनाव में राजद और उसका सहयोगी दल जदयू सीनियर पार्टनर की भूमिका में थे और कांग्रेस स्पष्ट रूप से उनके छोटे सहयोगी के तौर पर थी। नीतीश कुमार को उम्मीद है कि इस प्रयोग को उत्तर प्रदेश में भी सफलतापूर्वक आजमाया जा सकता है, जहां सपा सीनियर पार्टनर की भूमिका में होगी। पंजाब में भी यह काम हो सकता है, जहां कांग्रेस और आम आदमी पार्टी का गठबंधन हो सकता है। नीतीश कुमार के लिए महत्वपूर्ण बात यह है कि भाजपा और उसके नेतृत्व वाले राजग को राज्यों के चुनाव में पराजित किया जाए। इससे 2019 के आम चुनाव के लिए मंच तैयार होगा, जिसमें राज्यों के चुनाव नतीजों का समग्र असर नरेंद्र मोदी सरकार को हराने के लिए पर्याप्त होगा। इसके बाद केंद्रीय गठबंधन की प्रकृति और उसके नेता का चयन बातचीत के माध्यम से तय किया जा सकेगा। भाजपा से नफरत करने वाले नीतीश कुमार साफ तौर पर खुद को भविष्य के प्रधानमंत्री के तौर पर देख रहे हैं। यह वह परियोजना है जिसे लालू प्रसाद का भी समर्थन हासिल है, क्योंकि बिहार में वह खुद सबसे बड़े नेता बने रहना चाहते हैं। 1इसके बाद तीसरा मॉडल ममता बनर्जी का है, जिसे फेडरल फ्रंट कहा जा रहा है। इस मॉडल के अनुसार एक ऐसा राष्ट्रीय गठबंधन बनना चाहिए जिसमें न तो कांग्रेस हो, न भाजपा और न ही वामदल। ममता के फेडरल फ्रंट में उम्मीद का आधार 2014 के आम चुनाव में पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, तमिलनाडु, आंध्र और तेलंगाना के नतीजे हैं, जहां क्षेत्रीय दलों ने न केवल जीत हासिल की, बल्कि राष्ट्रीय दलों को अपने यहां घुसपैठ करने से रोक दिया। अगर 2019 में क्षेत्रीय दलों के लिए वैसे ही नतीजे आते हैं जैसे 2014 में आए थे और बिहार, उत्तर प्रदेश, हरियाणा और दिल्ली में उनकी जीत होती है तो केंद्र में क्षेत्रीय दलों के गठबंधन में कुछ भरपाई हो सकती है। जहां नीतीश गठबंधन का आधार कथित सेक्युलरिज्म और भाजपा विरोध को मानते हैं वहीं ममता की नजर में एकता का आधार संघवाद के सिद्धांत हो सकते हैं। 1कागजों पर इन तीनों गठबंधनों की अपनी चुनावी व्यावहारिकता है, हालांकि इसमें दो अड़चनें भी हैं। सबसे पहली बात तो क्षेत्रीय दलों की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि कांग्रेस लोकसभा में अपनी मौजूदा 45 सीटों तक सिमटी रहे और अपने राष्ट्रीय पुनर्जीवन की सभी उम्मीदें छोड़ दे। इस गठबंधन में यह धारणा भी छिपी है कि सभी क्षेत्रीय दल अपने गढ़ों में क्षेत्रीय प्रतिद्वंद्विता को भुलाकर एक व्यापक राष्ट्रीय उद्देश्य से एकजुट हो जाएंगे। यह बात अलग है कि जनता परिवार की प्रस्तावित एकता का जैसा हश्र हुआ उसे देखकर तो यही लगता है कि यह काम कहने में जितना आसान है, करने में उतना ही कठिन। इन सबके ऊपर एक बड़ा सवाल अंकगणित और केमेस्ट्री का भी है। क्षेत्रीय दलों का इस तरह का गठबंधन तभी सबसे अच्छे तरीके से काम करता है जब दबदबे वाली पार्टी सिकुड़ रही हो और कोई अन्य राष्ट्रीय विकल्प उभरने की सूरत नजर न आ रही हो। क्या भारत 2019 में एक खिचड़ी सरकार चाहता है, यह बहस का विषय है। फेडरल फ्रंट जैसी दूर की कौड़ी पर अपनी ऊर्जा खपाने के बजाय ममता बनर्जी के लिए बेहतर यही है कि वह सारा जोर पश्चिम बंगाल की ज्वलंत समस्याओं के समाधान पर लगाएं और इसके बाद दिल्ली की तरफ देखें। इसी सलाह से नीतीश कुमार का भी भला होगा। 1(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार और राज्यसभा के सदस्य हैं)(Dainik jagran)

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