Thursday 12 May 2016

पटरी से उतरी भारत-पाक शांति वार्ता (सुशील कुमार सिंह)

पाकिस्तान ने कश्मीर मसले का हवाला देते हुए जिस प्रकार भारत के साथ शांति प्रक्रिया को स्थगित करने की बात कही है उसे देखते हुए यह स्पष्ट है कि पाकिस्तान ने एक बार फिर भारत का भरोसा तोड़ने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है। भारत में पाकिस्तान के उचायुक्त अब्दुल बासित का यह बयान ऐसे समय में आया है जब बीते 2 जनवरी को हुए पठानकोट के आतंकी हमले को लेकर भारत को पाकिस्तान से अछे रूख की अपेक्षा थी। मनमाने ढंग से उठाये गये इस कदम से इस्लामाबाद का चेहरा एक बार फिर दुनिया के सामने बेनकाब होता है। जाहिर है पाकिस्तान से जब-जब अपेक्षा की गई है उसने भारत को निराश ही करने का काम किया है। जिस प्रकार वार्ता को स्थगित करने का स्वांग रचा गया उससे ऐसा लगता है कि यह पहले से ही लिखी गयी स्क्रिप्ट थी जो बीते जनवरी से थोड़े हेरफेर के साथ भारत को झांसा देने के काम में लिया जा रहा था। बासित का यह कहना कि पाकिस्तान की संयुक्त जांच टीम की यह शिकायत रही है कि भारत ने उसका सहयोग नहीं किया जो गैर-जिम्मेदाराना बयान प्रतीत होता है, जबकि भारत सभी सीमाओं को लांघते हुए आतंक से लहुलुहान पठानकोट में पाकिस्तान की जांच टीम को अपनी धरती में प्रवेश कराकर एक प्रकार से जोखिम ही लिया था जिसकी कांग्रेस समेत कई दलों ने विरोध भी किया था। देखा जाए तो पाकिस्तान ने भारत की उदारता का बेजा इस्तेमाल किया है और अपने पलटने वाली आदत को एक बार फिर से प्रदर्शित करके यह बता दिया है कि भारत के किसी भी विश्वास को वह पुख्ता साबित नहीं होने देगा।
जाहिर है, इस मसले को देखते हुए भारत का हैरत में होना लाज़मी है। पाकिस्तान पर वादा खिलाफी का आरोप लगाते हुए भारत ने कहा कि पाकिस्तान की जेआईटी अथवा संयुक्त जांच समिति को देश में इसी शर्त पर आने की इजाजत दी गई थी कि भारतीय एनआईए को भी पाक जाने दिया जायेगा। देखा जाए तो यह एक आदान-प्रदान से भरी सौदेबाजी थी और इसके पीछे एक बड़ी वजह विश्वास की कसौटी पर दो पड़ोसियों के बीच पठानकोट हमले से जुड़े मुद्दे को लेकर दूध का दूध और पानी का पानी करना था परन्तु अब यह भारत के लिए एक बड़ा झटका साबित हो रहा है। भारत ने यह भी साफ किया है कि जेआईटी के दौरे के पहले ही यह सुनिश्चत किया गया था कि पठानकोट हमले से निपटने वाले किसी सुरक्षाकर्मी से मिलने की उन्हें अनुमति नहीं होगी और पाकिस्तान की जेआईटी बीते 26 मार्च से 1 अप्रैल तक छानबीन में लगी रही।
सवाल है कि सब कुछ साफ-साफ होने के बावजूद पाकिस्तान ने ऐसा रूख क्यों अपनाया? जाहिर है कि पाकिस्तान को अपनी जांच पूरी करने के बाद यह स्पष्ट हो चला हो कि भारत का आरोप सही है और यदि इस पर आगे बढ़ने की कवायद की गयी तो आतंकी अजहर मसूद सहित पाकिस्तान को इसकी कीमत चुकानी पड़ सकती है।
स्पष्ट है कि भारत की एनआईए भी पाकिस्तान जाती, ऐसे में पाकिस्तान की कलई भी खुलने की पूरी गुंजाइश थी। मामले को भांपते हुए उसने इधर-ऊधर की बातों में उलझाकर पलटी मारना ही सही समझा। दो टूक यह भी है कि पाकिस्तान आतंक पर बात करने से कतराता भी है। इसके पहले भी अगस्त 2015 में पाकिस्तान वार्ता में गतिरोध पैदा कर चुका है तब भारत ने इसे दुर्भाग्यपूर्ण फैसला बताया था।
मामले की गंभीरता को देखते हुए यह सोच भी विकसित होती है कि भारत ने पाकिस्तान की जांच टीम को आखिर देश में आने की इजाजत ही क्यों दी? क्यों नहीं इसके बगैर ही पाकिस्तान पर दबाव बनाने का पूरा प्रयास किया।
जिस प्रकार पाक ने गैर-जिम्मेदाराना रूख अख्तियार किया है उसे देखते हुए साफ है कि आतंकियों के खिलाफ कार्यवाही करने की उसकी कोई मंशा नहीं है और कहीं न कहीं तथ्यहीन पाकिस्तान ने शांति प्रक्रिया को मनमाने ढंग से रोक कर आतंकियों को प्रोत्साहित करने का ही काम किया है। देखा जाए तो पाकिस्तान के साथ रूठने-मनाने का खेल बरसों पुराना है। मोदी सरकार के दो वर्ष पूरे होने वाले है जिसमें पाकिस्तान से दूरी वाली अवधि अधिक रही है। वर्ष 2014 के नवम्बर महीने में काठमाण्डू की सार्क बैठक से ही कमोबेश प्रधानमंत्री मोदी और शरीफ के बीच दूरी देखी जा सकती है।
रूस के उफा में मुलाकात तो हुई पर शरीफ द्वारा आतंकवादियों पर कार्यवाही किये जाने के वादा करने के पश्चात इस्लामाबाद पहुंचते ही पलटी मारने के चलते तनाव और बढ़ा। सितम्बर 2015 में संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन के दौरान भी यह दूरी कायम रही परन्तु दिसंबर आते-आते पेरिस में हुए जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में मोदी-शरीफ की कुछ क्षणों की मुलाकात ने मानो सारी तल्खी को समाप्त कर दिया। कयास लगाया जाने लगा कि इस मुलाकात के कुछ मतलब निकलेंगे परन्तु नतीजे इतने सहज होंगे किसी को अंदाजा नहीं था। जिस प्रकार पाकिस्तान से समग्र बातचीत का रास्ता भारत ने खोलने का एलान किया वह हैरत में डालने वाला था। राजनीतिक पंडितों को भी यह बात पूरी शिद्दत से उस दौर में समझ में नहीं आई होगी। फिलहाल आनन-फानन में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज का इस्लामाबाद दौरा भी हो गया। दौरे के एक सप्ताह नहीं बीते थे कि प्रधानमंत्री मोदी ने भी 25 दिसंबर को अचानक काबुल से लाहौर लैंडिंग कर दी। अब तो सियासी भूचाल आना स्वाभाविक था। प्रधानमंत्री मोदी की इस अदा के कुछ कायल तो कुछ हैरान थे। इसी वर्ष की 15 जनवरी को विदेश सचिव स्तर की वार्ता भी होनी थी, परंतु दो जनवरी की भोर में पठानकोट पर आतंकियों के हमले ने एक बार फिर खेल बिगाड़ दिया। तब से मामला ठीक होने की बाट जोहते भारत के साथ पाकिस्तान ने अपनी आदत के मुताबिक एक बार फिर लुका-छुपी के खेल में फंसा दिया।
इस कूटनीतिक दुर्घटना को देखते हुए सवाल उठता है कि पाकिस्तान के मामले में भारतीय संवेदनशीलता का क्या मतलब सिद्ध हुआ? बीते तीन दशकों से आतंक की चुभन ङोलने वाले भारत को आखिर पाकिस्तान से दर्द के अलावा क्या मिला? मुंबई हमले के मास्टर माइंड लखवी से लेकर पठानकोट का मास्टर माइंड अजहर मसूद तक के मामले में सबूत पर सबूत देने के बावजूद भारत के हाथ आज भी खाली हैं। इतना ही नहीं पाकिस्तान में हुए आतंकी हमले के मामले में भी बेगैरत पाकिस्तान भारत को जिम्मेदार ठहराने में पीछे नहीं रहा है। भारत पर अस्थिरता फैलाने का आरोप भी यही पाकिस्तान आए दिन लगाता रहता है जबकि भारत पड़ोसी धर्म निभाने की फिराक में बार-बार ठगा जा रहा है। इस संदर्भ में पाकिस्तान के उचायुक्त अब्दुल बासित का यह कहना कि भारत और पाकिस्तान के बीच अविश्वास की मुख्य वजह कश्मीर ही है पाकिस्तान की असलियत को दर्शाता है। वैसे भी पाकिस्तान की कथनी और करनी में सदैव अंतर रहा है, लेकिन यह भारत है कि बार-बार उस पर भरोसा करता है और वार्ता को पटरी पर लाने की कोशिश भी करता है। उनका यह राग कोई सात दशक पुराना है। पाकिस्तान कश्मीर को लेकर ऐसे संवेदनशीलता दिखाने का ढोंग करता है कि मानो भारत को इसकी कोई चिंता ही नहीं है। इतना ही नहीं पाकिस्तान कश्मीर के मुद्दे का अंतरराष्ट्रीयकरण करने की भी कोशिश करता रहता है। यह भी कहा जाना कि अब मामला भारत ही तय करेगा, उसके पीछे छुपा संदेश यही है कि पलटी पाकिस्तान मारे और उसे सीधा करने का काम हमेशा भारत करता रहे।
जिस प्रकार भारत पाकिस्तान से समस्या समाधान के मामले में अगुवापन दिखाता रहा है उसकी सराहना की जा सकती है, परंतु पाकिस्तान की आलोचना इसके लिए होनी चाहिए कि उसे भारत की इस पहल की इजत करनी नहीं आती। फिलहाल दोनों देशों के बीच वार्ता के सभी आयाम पटरी से उतरे हुए दिखाई दे रहे हैं। ऐसे में आगे की राह कठिन दिखती है, जिस बारे में सरकार को गंभीरता से विचार करना चाहिए।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)(दैनिक जागरण )

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