Thursday 12 May 2016

दुनिया में ही मां दिखी, दुनिया भर की छांव (संजय पंकज )

भारतीय संस्कृति और अध्यात्म का पूर्ण परिचायक ‘‘ऊँ ’ है। ‘‘ऊँ ’ शब्द है, ध्वनि है, नाद है, सुर है, विस्तार है। ‘‘ऊँ ’ प्रणव है। शिव को समाहित किए हुए है। यह ओंकार ब्रrाण्ड की पुरु ष चेतना को ध्वनित करता है। एक शब्द ‘‘मां’ भी है। ‘‘मां’ में शिव और शक्ति दोनों का समाहार है। यह ओंकार को भी अंतभरुक्त किए हुए है। ‘‘मां’ में प्रणव और प्रणय दोनों हैं। ‘‘मां’ ब्रrाण्ड की स्त्री-चेतना को उस पूर्णता में ध्वनित करती है, जिसमें बड़ी ही सहजता के साथ पुरु ष चेतना को ध्वनित करने वाला ओंकार घुला-मिला है। ‘‘ऊं ’ एकमात्र ऐसा शब्द है, जिसमें प्लुत का प्रयोग किया जाता है। आज भी आर्यसमाज परम्परा में ‘‘ऊँ ’ को ‘‘ओ3म्’ रूप में ही लिखने का प्रचलन है। हस्व और दीर्घ के साथ ही उच्चारण की पद्धति प्लुत भी है, मगर हिंदी में ‘‘ओ3म्’ के सिवा कहीं इसका प्रयोग संभवत: नहीं है। संगीत में स्वर-विस्तार के क्रम में इसका प्रवेश स्वाभाविक रूप से हो जाता है। मां की ध्वन्यात्मकता में प्लुत की बार-बार आवृत्ति होती है। बच्चा मां को जब भी पुकारता है, स्वाभाविक रूप से ध्वनित विस्तार होता है। मां, मां.. हो जाती है। शिव-शक्ति के बिना ‘‘शव’ हैं। ‘‘ऊँ ’ शिव को प्रतीकित करता है। ‘‘मां’ में शिव और शक्ति दोनों हैं। इसमें त्रिदेवों-ब्रrा, विष्णु, महेश की सारी गुणवत्ताएं मिली हुई हैं। ‘‘मां’ सृजन, लालन-पालन और पूर्णत्व को उपलब्ध कराती है। ‘‘मां’ देह रूप में न होते हुए भी देहातीत होकर अपनी परंपरा में जीवित रहती है। जैसे मां का अर्थ हम नहीं लगा सकते। अर्थ और शब्द से परे है मां की ऊंचाई, गहराई और विस्तृति। हम उसकी थाह नहीं पा सकते। उसके विस्तार को नाप नहीं सकते। उसके अछोर को कभी बांध नहीं सकते। कहने की आवश्यकता नहीं कि ब्रrाण्ड के सारे जीवों की उत्पत्ति जिस शक्ति से होती है, वह ‘‘मां’ ही है। और ‘‘मां’ से हर प्राणी का जुड़ाव अनन्य होता है। वात्सल्य का निर्झर हर मानवेत्तर ‘‘मां’ में भी प्रवाहित होता रहता है। अपनी संतति से अटूट प्यार और मोह हर प्राणी में है। अपनी संतति के लिए दिन-रात जगती, कार्य करती और उसे पालती-पोसती कभी भी कोई ‘‘मां’ नहीं थकती है-‘‘थोड़े में सब थक गए, थका सकल परिवार/कभी नहीं थकती मगर, मां की गंगा-धार।’ मां की वात्सल्य-धारा चौबीसों घंटे गंगाधार-सी प्रवाहित होती रहती है। केवल भारतीय भाषाओं में ही नहीं, विश्व की लगभग सारी भाषाओं में मां के लिए जो भी ध्वन्यात्मक शब्द हैं, उसमें विस्तार और अंतर्नाद है। मां किसी भाषा में ‘‘अम्मी’ होती है, ‘‘अम्मा’ होती है, ‘‘मम्मी’ और ‘‘मॉम’ भी होती है-‘‘म’ तो कहीं नहीं छूटता है-‘‘पंडित-मुल्ला-पादरी, गीता और कुरान/मंदिर-मस्जिद से बड़ी, मां या मम्मी जान।’ मातृ और मातर से ‘‘मदर’ है। इसमें भी तो ‘‘म’ निहित है। बच्चा पहला उच्चारण अगर करता है, तो वह ‘‘मां’ ही है। सांस, ध्वनि और चेतना से स्वत: स्फूर्त यह ‘‘मां’ शब्द है। बच्चे के रोने की ध्वनि पर गौर करेंगे तो ‘‘ऊँ ’ और ‘‘मां’ दोनों ही उसमें प्रकारांतर से साफ-साफ ध्वनित होते हुए सुना जा सकता है। यह सांसों की सहज गति और प्राण की स्वाभाविक अंतर्लय के कारण है। वैसे तो स्त्री का संबंधगत हर रूपउदात्त और महत्त्वपूर्ण है। वह हर रूप में महनीय और पूजनीय है। चाहे जिस रूप में हो पुरु ष और परिवेश को सुव्यवस्थित करती कुछ-न-कुछ उसके विस्तार के लिए देती ही रहती है। पुरु ष प्रधान समाज में स्त्री को दिशाहीन करने वाला कोई दूसरा नहीं, पुरु ष ही तो होता है। परम्परा, संस्कृति और मर्यादामां का दर्जा किसी को हासिल नहीं। ईर को भी मां ही पैदा करती है। संरक्षित भी करती है। सर्वश्रेष्ठ होते हुए भी कहीं-न-कहीं मां पीड़ित भी होती है। मां परम्परा, संस्कृति और मर्यादा है। आज हम भारतीय जीवन-मूल्यों को बचाए रखने की पुरजोर आवाज लगाते हैं। बाहर हम अपनी विरासत पर गर्व करते हुए बड़ी-बड़ी और ऊंची-ऊंची बातें करते हैं। घर की चहारदीवारी में सिमटी स्त्रीशक्ति सिसक रही है। उसकी पीड़ा और वेदना को हम समझने के लिए तैयार नहीं हैं। मां की कैसी उपेक्षा और कैसा अनादर हो रहा है, यह छिपा हुआ नहीं है। वृद्धाश्रम बनाने की चिंता बढ़ती चली जा रही है। कहां तो हर घर को आश्रम बनाने की जरूरत है। यह भूलकर हम वृद्धाश्रम की बात करते हैं। अपनी संतति की हर तरह से हिफाजत करती मां कभी यह सोचती और कहती नहीं कि वह उस पर कृपा कर रही है। मगर आज इसके विपरीत, अपनी बूढ़ी और बीमार मां से ऊबते और झल्लाते हुए बेटे उसके लिए वृद्धाश्रम की तलाश करते हैं। हद तो तब हो जाती है जब मां को कोई बेटा दर-दर की ठोकरें खाने के लिए घर से निकाल देता है। कदाचित मां के पास कोई सम्पति है, तो उसे हासिल करने के लिए उसकी हत्या तक कर देता है। आए दिन इस तरह के समाचार हमें मिलते रहते हैं। क्यों मर रही है संवेदना? वात्सल्य के उस निर्मल प्रवाह को क्यों भूल रहे हैं हम? क्यों क्रूर होता जा रहा है समाज? क्यों जड़ से उखड़ रहे हैं लोग? आखिर, कैसी समृद्ध परम्परा और विरासत पर नाज करते हैं हम? यह सिर्फ चिंता और चिंतन का विषय नहीं, यह तो वह जलता हुआ शाश्वत सवाल है, जिस पर सिर धुनते हुए हमें पश्चाताप और प्रायश्चित करने की जरूरत है। मां भी सवाल हो सकती है। मां की महिमा का बखान हमारे ऋषि-मुनियों, संत-मनीषियों, कवि-साहित्यकारों ने खूब किया है। ग्रंथों के पृष्ठ रंगे गए, चिंतन को उत्कर्ष दिया गया, लेखनी को धन्यता मिली, संस्कृति और संस्कार को परिपूर्ण और परिनिष्ठित किया गया। मां भौतिकता से दैविकता की ओर बढ़ती चली गयी। वह आध्यात्मिक हो गयी। प्रकृति और धरती को मां के रूप में हमारी संस्कृति ने समादृत किया। प्रत्यक्षत: धरती पर हमारा आना मां के कारण ही संभव होता है। उसको भौतिकता से ज्यादा आंतरिकता में और आध्यात्मिकता में ही जानने-समझने की जरूरत है। इसका अर्थ यह नहीं है कि हम मां की भौतिकता से अलग हो जाएं। मनसा-वाचा-कर्मणा माँ को हर तरह से संरक्षित करना हमारा नैतिक सांस्कृतिक और आध्यात्मिक दायित्व है। मां की भौतिक काया जब तक बनी रहे, हमें उसकी हिफाजत करनी चाहिए। उसके होने मात्र से बहुत कल्याण होता है। वृक्ष की उपयोगिता सिर्फ उसकी हरियाली भर तक नहीं है। ठूंठ हो जाने के बाद भी वृक्ष बहुविध उपयोगी होता है।मां बूढ़ी होकर भी अपने अनुभव और स्नेहांचल से कितना सुकून और राहत देती है,वही महसूस कर सकता है, जिसने उसका सान्निध्य और सुख प्राप्त किया है-‘‘र्झुी-र्झुी में बसा, एक अटल विास/आएगी सुख-सम्पदा, कहती मां की सांस।’ किसी एक दिन के लिए हम अपनी मां के लिए श्रद्धा और आस्था निवेदित नहीं करें, उसे तो हर क्षण और हर सांस में हमें जीते रहना चाहिए। मां मन, प्राण, आत्मा और चेतना में स्पंदित होती रहे इसकी साधना करने की जरूरत है। मां को साध लें तो ओंकार स्वत: सध जाएगा-‘‘सातों तह आकाश के, सातों सुर-संगीत,/साध लिया मां को अगर, जगर-मगर है जीत/ इस भागमभाग और तनावपूर्ण समय में हमें शीतलता की छांह देकर विश्रांति और शांति केवल मां ही दे सकती है-‘‘दुनिया भागमभाग है, दुनिया एक तनाव/दुनिया में ही मां दिखी, दुनिया भर की छांव।(Rashtriy sahara )

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