Friday 27 May 2016

दो ध्रुवों के गर्द और गुबार में (हरजिंदर, हेड-थॉट, हिन्दुस्तान)

पिछले दो साल में जैसे कुछ भी नहीं बदला। मई, 2014 को याद कीजिए और फिर आज अपने आस-पास देखिए। लगता है, जैसे पूरा देश पिछले दो साल से एक निरंतर इलेक्शन मोड से गुजर रहा है। भाषण अब भी हो रहे हैं। वादे अब भी किए जा रहे हैं।
आरोप-प्रत्यारोप अब भी उसी तरह उछल रहे हैं। सबसे बड़ी बात यह कि जिन्होंने उम्मीदें बांधी थीं, वे अभी सातवेें आसमान से उतरे नहीं हैं और शक व शुबहा पालकर बैठे लोगों का अवसाद अभी उनकी रगों में पहले की तरह ही दौड़ रहा है। ऐसा शायद पहले कभी नहीं हुआ। देश में चुनाव पहले भी होते थे। वे एक मियादी बुखार की तरह आते और पूरे देश में दो-तीन तरह के आवेश बांटकर कभी पतझड़, कभी सावन का एहसास कराते हुए निपट जाते थे। फिर सब कुछ पहले जैसा ही चलने लगता था। लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ। इस बार वे हवाएं रुखसत नहीं हुईं, जिन्होंने दो साल पहले आंधी की गति से बहुत कुछ बदल डाला था।
पूरे दो साल में इस बात का यकीन करने वालों की संख्या में बहुत कमी नहीं आई है कि नरेंद्र मोदी देश की व्यवस्था में आमूल-चूल बदलाव करने जा रहे हैं। वे पूरी ईमानदारी से मानते हैं कि आजादी के बाद 67 साल में जो हासिल न हो सका, अब यह देश उससे कहीं ज्यादा पर काबिज होने जा रहा है। और भ्रष्टाचार को तो सरकार ने लगभग खत्म ही कर दिया है। वे मानते हैं कि अब भारत को विश्व शक्ति बनने से कोई नहीं रोक सकता, इसलिए तिरंगे के साथ भारत माता की जय बोलते हुए वे सोशल मीडिया के नुक्कड़ों और चौराहों पर हर क्षण किसी-न-किसी का बैंड बजाते रहते हैं। उम्मीद एक सकारात्मक चीज है, पर इसकी अति अक्सर नकारात्मक आक्रामकता तक पहुंचा देती है। इसमें कुछ ऐसे भी हैं, जिन्हें पहली बार भारत के पुराने सांस्कृतिक गौरव के लौटने की उम्मीद बंधी है और कुछ ऐसे भी हैं, जिन्हें लगता है कि अब हिंदू हितों पर कोई संकट नहीं आएगा। पर बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है, जो यह मानते हैं कि नरेंद्र मोदी की सरकार अगर इस देश में विकास की नदियां न भी बहा सकी, तो उसे कम-से-कम गुजरात वह बना ही देगी।
दूसरी ओर वे हैं, जो मानते हैं कि अब देश रसातल में गया ही समझिए। हर सुबह सूरज उगने के साथ उन्हें फासिज्म का खतरा उगता हुआ दिखाई देता है और सूर्यास्त होते ही वे सांप्रदायिकता के प्रेतों से निपटने की तैयारी में जुट जाते हैं। उन्हें पूरी ईमानदारी से यह लगता है कि नई दिल्ली में इस समय जो सरकार बैठी है, वह देश के ताने-बाने को तोड़ देगी, उसे अंदर से खोखला कर देगी। यह डर इस कदर हावी है कि कभी इस वर्ग के बुद्धिजीवी सरकारी सम्मान वापसी की झड़ी लगा देते हैं, तो कभी वे इस्तीफे सौंपकर सरकार का रास्ता आसान भी कर देते हैं। उनके लिए सरकार की हर नीति एक छलावा है, उन्हें सरकार के हर कदम में एक षड्यंत्र नजर आता है, वे हर बयान में एक बदनीयती सूंघ लेते हैं।
ऐसा नहीं है कि ये दोनों वर्ग हर जगह एक-दूसरे के विपरीत धरातल पर ही खड़े हैं, कई जगहों पर ये साथ-साथ भी खड़े दिखाई देते हैं। मसलन, दोनों ही मानते हैं कि मीडिया देश की सही तस्वीर नहीं पेश कर रहा। उम्मीद बांधने वाले भक्त गणों को लगता है कि मीडिया देश की विकास यात्रा का भागीदार नहीं बन रहा और सरकार की उपलब्धियों को छिपा रहा है। दूसरी तरफ के लोग मानते हैं कि मीडिया देश की वास्तविक तस्वीर नहीं दिखा रहा, वह बिक गया है और सरकार की उपलब्धियों को बढ़़ा-चढ़ाकर दिखा रहा है।
लगभग यही सोच न्यायपालिका के बारे में है। और तो और, देश के वित्त मंत्री भी कह रहे हैं कि न्यायपालिका कदम-दर-कदम सरकार के कामों में बाधा पहुंचा रही है। इसके विपरीत, यह भी कहा जा रहा है कि लगातार सांप्रदायिक होते माहौल में न्यायपालिका से लोगों को न्याय नहीं मिल पा रहा। मीडिया और न्यायपालिका में सब कुछ अच्छा हो ऐसा नहीं है, लेकिन इन संस्थाओं की समस्याएं कोई ऐसा भाव भी नहीं हैं, जिसे इन्होंने पिछले दो साल में अपनाया हो। सेनाएं जब युद्धभूमि में आमने-सामने खड़ी होती हैं, तो दोनों तरफ सबसे बड़े खलनायक वही माने जाते हैं, जो तटस्थ होते हैं।
दिक्कत इसमें है कि युद्धभूमि का यह परिदृश्य तब है, जब उसकी कोई जरूरत नहीं है। यह ठीक है कि बीच-बीच में राज्यों के चुनाव आते-जाते रहते हैं, इन मौकों पर कई तरह के छोटे-बड़े मोर्चे खोलने की जरूरत पड़ती रहती है, लेकिन अगर केंद्र में पूर्ण बहुमत वाली सरकार हो, तो अखिल भारतीय स्तर पर घनघोर बारिश व अतिशय उबाल के मौके पांच साल बाद ही आने चाहिए। चुनाव काल का उबाल अमूमन खुद ही शांतिकाल की तरलता में बदल जाता है, पर इस बार यह नहीं बदल रहा है। या राजनीति इसे बदलने नहीं दे रही। जो भी हो, देर-सवेर यह उन्हीं के लिए घातक हो सकता है, जो इसे हवा दे रहे हैं।
अतिशय उम्मीदें भी उतनी ही निरर्थक हैं, जितने कि अतिशय संदेह। भारत का एक सच यह है कि यहां बहुत सारी अच्छी संभावनाएं भी हमें एक हद से ज्यादा तेजी से आगे नहीं ले जा पातीं, और आशंकाएं हमें एक हद से ज्यादा पीछे नहीं ले जा पातीं। ऐसा नहीं लगता कि हाल-फिलहाल में यह यथार्थ बहुत ज्यादा बदलने जा रहा है।
यह ठीक है कि नरेंद्र मोदी की सरकार ने बहुत सारी अच्छी-अच्छी योजनाएं बनाई हैं, मगर योजनाओं के ये बम जब नौकरशाही और सरकारी तंत्र की भुरभुरी जमीन पर गिरेंगे, तो कई फुस्स ही होंगे। कुछ योजनाएं अच्छी भी चलेंगी और कुछ का हश्र वही होगा, जो स्वच्छ भारत का हुआ। एक निर्विवाद योजना को नेताओं ने फोटो खिंचवाने और छपवाने का मौका बनाकर छोड़ दिया। यही हाल आशंकाओं का भी है। ऐसा कई बार लगता है कि देश गलत दिशा या अति की ओर जा रहा है, लेकिन वह अति की ओर जाता नहीं। असम समस्या, पंजाब समस्या या कई प्रदेशों के भीषण सांप्रदायिक दंगे और उनके बाद के हालात यही बताते हैं कि देश के जनमानस में किसी भी अति से सामान्य स्थिति में लौट आने की अद्भुत क्षमता है। यहां तक कि आपातकाल जैसी कठिन स्थिति से भी देश ने अपने को बाहर निकाल लिया। राजनीतिक दलों के लिए फिलहाल अच्छा यही है कि वे अतिशय उम्मीदों और डर के गुबार से अपना आधार बनाने की बजाय, इसके लिए सचमुच जमीन पर काम करें। दो चुनावों के बीच का अंतराल इसीलिए होता है। ताल ठोंकने का मौका तो तीन साल बाद फिर आएगा ही।
(हिंदुस्तान )

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