जापान दुनिया का शायद ऐसा इकलौता देश है, जो सबसे यादा प्राकृतिकआपदाएं तो ङोलता ही है, परमाणु हमले का संकट भी ङोल चुका है। बावजूद इसके जापान ही ऐसा देश है,जो अपनी प्रबल इछाशक्ति व आत्मबल के बूते फिनिक्स पक्षी की तरह विध्वंस की राख से उठ खड़ा होकर दुनिया के शक्तिशाली देशों की अग्रिम पंक्ति में बना रहता है। यही देश एक बार फिर भयंकर भूकंप की चपेट में है। दक्षिणी -पश्चिमी जापान में गुरुवार 14 अप्रैल से भूकंप के झटके लगना शुरू हुए थे,जो शनिवार को कान के पर्दे फाड़ देने वाले विस्फोट में तब्दील होकर कुमामोतो शहर में भीषण तबाही की इबारत लिखकर प्रकृति के अज्ञात गर्भ में लुप्त हो गए। इस दौरान जापान की दक्षिणी-पश्चिमी पट्टी में 230 बार धरती हिली और कुमामोतो में पहुंचकर इसके हिलने की तीव्रता रिक्टर पैमाने पर 7.3 हो गई,जो बरबादी की वजह बनी। जापान में जब भूकंप शांत हुआ तो वह क्विटो के उत्तर-पश्चिमी इक्वाडोर में 7.8 तीव्रता के भूकंप में प्रगट हो गया।
जापान के भीषण भूकंप का केंद्र कुमामोतो महानगर था। यहां पूरी की पूरी पहाड़ों की श्रृंखला ढह गई। लाखों टन मिट्टी से मकान, सड़कें, रेललाइन, जन-सुविधाएं और औद्योगिक इकाइयां दब गए। जिसके चलते अब तक 70 से यादा मौतें हो चुकी हैं। 1.70 लाख घरों की बिजली और 3.85 लाख घरों के पानी की आपूर्ति ठप है। 1500 लोगों के मलबे के नीचे दबे होने की आशंका जताई जा रही है। 20 हजार सेना के जवानों ने करीब 70 हजार लोगों को बचा लिया है, बावजूद 90 हजार लोगों को तुरंत राहत की जरूरत है। मौसम अभी भी बेहद खराब है, इस कारण समय रहते बचावकर्मियों को जरूरतमंदों के पास पहुंचना मुश्किल हो रहा है। जापान में इतने बड़े पैमाने पर तबाही तब हुई है, जबकि जापान ने भूकंप से मुकाबला करने वाले भूकंपरोधी घर, सड़कें और रेललाइन बिछाने में महारत हासिल कर ली है। औद्योगिक दृष्टि से भी जापान को बड़े नुकसान का सामना करना पड़ा है, क्योंकि सोनी, होंडा, निशान, मित्सुबिशी जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की उत्पादन इकाइयां इसी कुमामोतो शहर में हैं। इसीलिए इस भूकंप से वास्तविक नुकसान कितना हुआ, इसका पता तो इस तबाही से उबरने के बाद ही चलेगा।
इसी तरह क्विटो में आए भूकंप में 270 से यादा लोग काल के गाल में समा गए हैं और हजारों घायल हैं। इस भूकंप ने पोर्तोवाइजो शहर में यादा तबाही मचाई है। यहां के समुद्री तटों पर सुनामी की चेतावनी भी दी गई है। इन भूकंपों ने एक बार फिर संकेत दिए हैं कि दुनिया को प्राकृतिक आपदाओं से बचाए रखना है तो प्राकृतिक संपदा के अकूत दोहन और औद्योगिक विकास पर अंकुश लगाना होगा। दरअसल दुनिया के नामचीन विशेषज्ञों व पर्यावरणविदों की मानें तो सभी भूकंप प्राकृतिक नहीं होते,बल्कि उन्हें विकराल बनाने में हमारा भी हाथ होता है। प्राकृतिक संसाधनों के अकूत दोहन से छोटे स्तर के भूकंपों की पृष्ठभूमि तैयार हो रही है। भविष्य में इन्हीं भूकंपों की व्यापकता और विकरालता बढ़ जाती है। यही कारण है कि भूकंपों की आवृत्ति बढ़ रही है। पहले 13 सालों में एक बार भूकंप आने की आशंका बनी रहती थी, लेकिन अब यह घटकर 4 साल हो गई है। अमेरिका में 1973 से 2008 के बीच प्रति वर्ष औसतन 21 भूकंप आए, वहीं 2009 से 2013 के बीच यह संख्या बढ़कर 99 प्रति वर्ष हो गई। यही नहीं आए भूकंपों का वैज्ञानिक आकलन करने से यह भी पता चला है कि भूकंपीय विस्फोट में जो ऊर्जा निकलती है उसकी मात्र भी पहले की तुलना में यादा शक्तिशाली हुई है। 25 अप्रैल 2015 को नेपाल में जो भूकंप आया था, उनसे 20 थर्मान्यूक्लियर हाइड्रोजन बमों के बराबर ऊर्जा निकली थी। यहां हुआ प्रत्येक विस्फोट हिरोशिमा-नागाशाकी में गिराए गए परमाणु बमों से भी कई गुना यादा ताकतवर थे। जापान और फिर क्विटो में आए सिलसिलेवार भूकंपों से पता चलता है कि धरती के गर्भ में अंगड़ाई ले रही भूकंपीय हलचलें महानगरीय आधुनिक विकास और आबादी के लिए अधिक खतरनाक साबित हो रही हैं। ये हलचलें भारत, पाकिस्तान, चीन और बांग्लादेश की धरती के नीचे भी अंगड़ाई ले रही हैं। इसलिए इन देशों के महानगर भी भूकंप के मुहाने पर हैं।
भूकंप आना कोई नई बात नहीं है। जापान-क्विटो और नेपाल समेत पूरी दुनिया इस अभिशाप को ङोलने के लिए जब-तब विवश होती रही है। बावजूद हैरानी इस बात पर है कि विज्ञान की आश्चर्यजनक तरक्की के बाद भी वैज्ञानिक आज तक ऐसी तकनीक ईजाद करने में असफल रहे हैं, जिससे भूकंप की जानकारी आने से पहले मिल जाए। भूकंप के लिए जरूरी ऊर्जा के एकत्रित होने की प्रक्रिया को धरती की विभिन्न परतों के आपस में टकराने के सिद्धांत से आसानी से समझा जा सकता है। ऐसी वैज्ञानिक मान्यता है कि करीब साढ़े पांच करोड़ साल पहले भारत और आस्ट्रेलिया को जोड़े रखने वाली भूगर्भीय परतें एक-दूसरे से अलग हो गईं और वे यूरेशिया परत से जा टकराईं। इस टक्कर के फलस्वरूप हिमालय पर्वतमाला अस्तित्व में आई और धरती की विभिन्न परतों के बीच वर्तमान में मौजूद दरारें बनीं। हिमालय पर्वत उस स्थल पर अब तक अटल खड़ा है,जहां पृथ्वी की दो अलग-अलग परतें परस्पर टकराकर एक-दूसरे के भीतर घुस गई थीं। परतों के टकराव की इस प्रक्रिया की वजह से हिमालय और उसके प्रायद्वीपीय क्षेत्र में भूकंप आते रहते हैं। इसी प्रायद्वीप में यादातर एशियाई देश बसे हुए हैं।
वैज्ञानिकों का मानना है कि रासायनिक क्रियाओं के कारण भी भूकंप आते हैं। भूकंपों की उत्पत्ति धरती की सतह से 30 से 100 किमी भीतर होती है। कुमामोतो में आया भूकंप जमीन से 20 किमी और क्विटो का 10 किमी नीचे था। जबकि नेपाल में जो भूकंप आया था, वह जमीन से महज 15 किमी नीचे था। इससे यह वैज्ञानिक धारणा भी बदल रही है कि भूकंप की विनाशकारी तरंगें जमीन से कम से कम 30 किमी नीचे से चलती हैं। ये तरंगे जितनी कम गहराई से उठेगी,उतनी तबाही भी यादा होगी और भूकंप का प्रभाव भी कहीं अधिक बड़े क्षेत्र में दिखाई देगा।
कुछ भूकंप धरती की सतह से 100 से 650 किमी के नीचे भी आते हैं, लेकिन तीव्रता धरती की सतह पर आते-आते कम हो जाती है, इसलिए बड़े रूप में त्रसदी नहीं ङोलनी पड़ती है। दरअसल इतनी गहराई में धरती इतनी गर्म होती है कि एक तरह से वह द्रव रूप में बदल जाती है। इसलिए इसके झटकों का असर धरती पर कम ही दिखाई देता है। बावजूद इन भूकंपों से ऊर्जा बड़ी मात्र में निकलती है। धरती की इतनी गहराई से प्रगट हुआ सबसे बड़ा भूकंप 1994 में बोलिविया में रिकॉर्ड किया गया है। पृथ्वी की सतह से 600 किमी भीतर दर्ज इस भूकंप की तीव्रता रिक्टर पैमाने पर 8.3 मापी गई थी। इसीलिए यह मान्यता बनी है कि इतनी गहराई से चले भूकंप धरती पर तबाही मचाने में कामयाब नहीं हो सकते हैं, क्योंकि चट्टानें तरल द्रव्य के रूप में बदल जाती हैं।
अमेरिका व ब्रिटेन समेत यूरोपीय देशों में दो शताब्दियों के भीतर बेतहाशा अमीरी बढ़ी है। औद्योगिकीकरण और शहरीकरण इसी अमीरी की उपज है। यह कथित विकासवादी अवधारणा कुछ और नहीं, प्राकृतिक संपदा का अंधाधुंध दोहन कर, पृथ्वी को खोखला करने के ऐसे उपाय हैं, जो ब्रrांड में फैले अवयवों में असंतुलन बढ़ा रहे हैं। इस विकास के लिए पानी, गैस, खनिज, इस्पात, ईंधन और लकड़ी जरूरी हैं। नतीजतन जो कॉर्बन गैसें बेहद न्यूनतम मात्र में बनती थीं, वे अब अधिकतम मात्र में बनने लगी हैं।
न्यूनतम मात्र में बनी गैसों का शोषण और समायोजन भी प्राकृतिक रूप से हो जाता था, किंतु अब वनों का विनाश कर दिए जाने के कारण ऐसा नहीं हो पा रहा है, जिसकी वजह से वायुमंडल में इकतरफा दबाव बढ़ रहा है। इस कारण धरती पर पड़ने वाली सूरज की गर्मी प्रत्यावर्तित होने की बजाय,धरती में ही समाने लगी है। गोया,धरती का तापमान बढ़ने लगा, जो जलवायु परिवर्तन का कारण तो बना ही, प्राकृतिक आपदाओं का कारण भी बन रहा है। अब जापान और क्विटो में आए भूकंपों के बाद वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि भूकंप प्रभावित इलाकों में 300 किमी लंबे समुद्री तटों पर सुनामी जैसी आपदा आकर तबाही मचा सकती है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)(दैनिक जागरण )
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